(डा. रामचरणजी महेन्द्र, एम. ए. डी. लिट्)
एफ. बी. टी. (लंदन)
संसार में ऐसी कोई दुर्लभ वस्तु नहीं जो तुम्हारे योग्य न हो, या जिस पर तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार न हो। तुम अपनी संकल्प की शक्तियों को आदेश दो (Make a Suggestion) कि मैं एक ईश्वरीय तत्त्व से-जिसका सम्बन्ध मन से है- तादात्म्य रखता हूँ, अतः एवं उससे उत्पन्न होने वाली प्रत्येक उत्तम वस्तु का मैं पूरा पूरा हकदार हूँ- वारिस हूँ। इच्छाशक्ति के लम्बे-चौड़े हाथों से मैं उसे अवश्य प्राप्त कर सकता हूँ।
हम प्रायः ऐसे व्यक्तियों को देखते हैं जो व्यर्थ में अपने आप को तुच्छ एवं नगण्य समझा करते हैं। जिस वस्तु के चिंतन से हानि होती है। निरंतर उसी में बल का क्षय करते रहते हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप (reaction) परिणाम घातक होता है।
जीवन के प्रधान नियमों में कदाचित प्रमुख नियम यही है कि मनुष्य मन, विचार, आकाँक्षा का सदुपयोग सीखे। यह अनुभव करें कि वह परम शक्ति सम्पन्न एक सुदृढ़ चैतन्य आत्म पिंड है। संसार को समस्त उत्कृष्टतम वस्तुओं पर उसका पूर्ण अधिकार है। धन सम्पत्ति, मान-सम्मान, पदाधिकार, धर्म, मोक्ष इत्यादि कुछ भी क्यों न हो उससे विमुख नहीं है वे उसी के लिए सृजित हैं। अतएव उसे एक दिन अवश्यमेव प्राप्त होंगी।
कितने ही पुरुष मन की आकाँक्षाओं को मृतप्राय कर डालते हैं। मनः केन्द्र में अभिलाषित वस्तु के प्रवेश करते ही यह समझने लगते हैं कि वह हमसे दूर की वस्तु है, हमें उपलब्ध न होगी। ऐसी मनोधारा अत्यन्त घातक है। प्रत्येक उत्तम वस्तु सर्वप्रथम मनःकेन्द्र में प्राप्त होती है तत्पश्चात वस्तु जगत में उपलब्ध होती है। अतः हमें चाहिए कि अपनी आकाँक्षाओं का अभिनय (Acting) करें। तत्सम्बन्धी विचारों को मन में उदारतापूर्वक प्रवेश करने दें, अभी से उनका अभ्यास प्रारम्भ कर दें, उसे प्राप्त हुआ (Already achieved) देखने की आदत बना लें।
नैपोलियन ने चिट्ठी लाने वाले सवार को जो उत्तर दिया था वह आत्म-तत्त्व-विद्या के प्रेमियों के लिए बड़े ही महत्त्व का है। नैपोलियन को चिट्ठी देने के लिए वह अश्वारोही वायु वेग से अग्रसर हुआ। अश्व पूर्ण क्लान्त हो चुका था। सवार ज्यों ही नैपोलियन के निकट पहुँचा और घोड़े से नीचे उतरा, थका हुआ घोड़ा त्यों ही पृथ्वी पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। नैपोलियन ने पत्रोत्तर तुरंत लिखकर सवार को दिया और निर्देश किया, “तुम्हारा घोड़ा मर गया है, अतएव तुम मेरे इस विशेष अश्व पर सवार होकर जाओ और सेनापति को हमारा पत्र दो।”
अश्वारोही घबरा गया। क्या ऐसे ऊँचे घोड़े पर बैठने का आदेश सत्य है? उसने विस्म पूर्वक निवेदन किया, “महाराज! हम जैसे निम्नश्रेणी के तुच्छ सेवकों को आपके घोड़े पर बैठना उचित नहीं है।” यह कहते-2 भृत्य ने सर झुका लिया। नैपोलियन ने उत्तर दिया—
“दुनिया में ऐसी कोई भी उत्कृष्ट वस्तु नहीं, जिस पर फ्रांस के एक छोटे से छोटे सैनिक का अधिकार न हो या उसे प्राप्त न हो सके। प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक वस्तु प्राप्त कर सकता है।”
तुम किस अवस्था में आत्म-विस्मृति किए हो? तुम्हारा वास्तविक स्वरूप क्या है? तुम क्यों इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार नहीं करते। यदि कोई तुम्हें कमजोर, मूर्ख, डरपोक कहता है तो तुम उत्तर नहीं देते और कहते कि “मैं शक्ति सम्पन्न ज्योतिर्मय आत्मपिंड हूँ। एक महान् शक्ति का पुत्र हूँ। ऐसा कोई पद नहीं जिसके योग्य मैं न हूँ। संसार में ऐसी कोई अलभ्य वस्तु नहीं जिस पर मेरा स्वत्व न हो।”
जब कभी तुम्हारे मन में बुज़दिली के विचार प्रवेश करने लगे तो पुरुषोचित साहस से गर्जना करो कि “मैं निश्चिन्त हूँ साहसी हूँ और सब का स्वामी हूँ। प्रत्येक उत्कृष्ट वस्तु पर मेरा अधिकार है।”
ऐसे व्यक्ति संसार में अतिन्यून हैं जिनमें आत्म उत्तेजना है और निज शक्ति में विश्वास है जो संसार की टीका-टिप्पणी की तनिक भी परवाह नहीं करते और सदैव शुभ प्रेरणा में अग्रसर हुआ करते हैं।
जो अपनी बेकदरी करते हैं वे पापी हैं क्योंकि वे परमेश्वर स्वरूप परम-आत्मा की निन्दा करते हैं, कारण, मनुष्य ईश्वर की प्रतिमूर्ति है। ईश्वर में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं, सीमा बंधन नहीं, प्रत्युत समृद्धि की विपुल सम्पदा भरी पड़ी है। ईश्वर का आदेश है कि पूर्ण बनो जैसा कि मैं हूँ। अतः कभी अपने आप को नीच, दीन, दुःखी, दरिद्री, रोगग्रस्त न समझो। प्रत्युत उत्साहपूर्वक कहो और गर्व से छाती फुलाकर कहो कि प्रत्येक उत्तम वस्तु पर मेरा अधिकार है। कोई मुझ से वह अधिकार हरण नहीं कर सकता। इस प्रकार मन को भद्दी वस्तुओं से हटाकर सुन्दर और शिवत्व से परिपूर्ण सुमनोहर वस्तुओं पर केन्द्रित करना, विरोध से हटाकर ऐक्य (nity) में संलग्न करना, मृत्यु के विचार से हटाकर दिव्य जीवन के रहस्य में केन्द्रित करना एक बहुत उत्कृष्ट कला है। इस कला में पारंगत बनने का प्रयत्न कीजिए।
पाठको! आत्म तत्व की प्राप्ति कर संसार की प्रत्येक उत्कृष्ट वस्तु पर अपना अधिकार होने का प्रमाण दो। दिखला दो कि तुम साधारण नहीं हो, नगण्य नहीं हो, हेय नहीं हो, केवल बात ही बात नहीं करते हो प्रत्युत उत्तम वस्तुओं के स्वामी हो। उनकी प्राप्ति के निमित्त सद् संकल्प करते हो, फिर प्राणपण से चेष्टा कर उसे प्राप्त भी कर लेते हो।
मन खोलकर निर्भयता पूर्वक कह डालों कि मैं अमुक वस्तु की प्राप्ति की आकाँक्षा रखता हूँ, उस की प्राप्ति में सन्देह, शक-शुबाह, किंचित् मात्र भी नहीं रखता हूँ। मुझे अमुक वस्तु की आवश्यकता है। अतः चाहे कुछ भी हो मुझे उस से अपना सम्बन्ध स्थापित कर ही लेना है। कोई मुझे उससे रोक नहीं सकता। मैं अपने संकल्पों, महत्त्वाकांक्षाओं, युक्तियों के प्रति सच्चा हूँ, दृढ़ हूँ अपने मनोरथों पर स्थायी रहने वाला दृढ़ निश्चयी हूँ निज परिस्थितियों का स्वामी हूँ परमात्मा सत्ता से अभेद संबंध रखने वाला अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा हूँ, निराशा, निरुत्साह एवं निर्वेदना के क्षयी विचारों को सर्वदा के निमित्त तिलाँजली दे चुका हूँ। मैं आत्मतत्त्व में पूर्णता से स्थित हूँ। सब अवस्थाओं का स्वामी हूँ। अतएव मेरी शक्ति में किसे सन्देह हो सकता है।
उत्तमता ईश्वरीय तत्व है अतएव उसके सान्निध्य की आकाँक्षा उस परम तत्व को निज शरीर में प्रकट करता है। जो जितना ही उत्तम-तत्व के समीप अग्रसर होगा तदनुकूल ही ईश्वरी अंश अपने आप में प्रकट करेगा। अनेक व्यक्ति जीवन को बेगार ही समझकर कुढ़ते-कुढ़ते जीते हैं वस्तुतः ऐसे व्यक्ति निम्न श्रेणी के हैं क्योंकि वे उत्तमता जैसी ईश्वरीय अंश की अवहेलना करते हैं।
तुम जो कार्य हाथ में लो उस में उत्कृष्टता प्रकाशित करो। उत्कृष्टता को अपना जय चिन्ह (Landmark) बना लो। जो पुरुष संसार में अपना नाम उन्नत कर सके हैं निस्सन्देह उन्हें उत्कृष्टता से परम प्रीति थी।
तुम्हारा प्रत्येक कार्य उत्तमता लिए हुए हो। पूरा कार्यक्रम उत्तमता से परिपूर्ण हो। भोजन करो तो उत्तमता (स्वच्छता) से हो, रहन-सहन उत्कृष्टता पूर्ण हो, टहलना, फिरना, बोलना-जीवन की प्रत्येक क्रिया अत्यन्त सावधानी से उत्तम-रीति से सम्पन्न हो। उसमें सद्व्यवस्था हो, क्रम हो, उत्तमता हो। गीताजी का प्रवचन है—
कर्मणयेवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचनः।
इन अमूल्य वचनों के अनुसार प्रत्येक मनुष्य का परम कर्त्तव्य है कि वह उत्तम रीति के कर्म करने का आग्रह करे। जो जितना ही उत्तमता के निकट आयेगा उतना ही परमेश्वर के सन्निकट होगा। अतः जो कार्य करो उसमें लक्ष्य उसमें प्रधान लक्ष्य उत्कृष्टता सम्पादन ही रहे। इसी महत नियम द्वारा पालनकर्त्ता को उत्कृष्ट फल के दर्शन होते हैं। यह मत विचारों कि हमें उत्कृष्टता के अनुपात का पुरस्कार प्राप्त नहीं हो रहा है अतः काम क्यों उत्तम रीति से करें? स्मरण रहे उत्तम कृत्य ही फल है। (Good work is an end in itself) ऐसा करने से उत्कृष्ट तत्व की अवश्य सिद्धि होगी।
अपना प्रत्येक कार्य उत्कृष्टता से करने से जो आनन्द लाभ होता है उसका वर्णन असंभव है। आत्मतत्व के पुजारी! यह कदापि अनुभव न करो कि तुम कार्य को सर का बोझ समझ रहे हो, या वह बेगार है। नहीं, तुम उत्कृष्टता से कार्य करने के निमित्त बने हो। उत्कृष्टता के भ्रमर हो अतएव तुम उत्कृष्ट रस का ही पान करो।