पूर्वजों का अनुकरण

December 1944

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(श्री रमेश वर्मा, खागा)

अपने पूर्वजों की महानता का आदर करना, यह एक मानवोचित कर्त्तव्य है। हम भारतीय लोग इस कर्त्तव्य का महत्व भली प्रकार समझते हैं और अपने पूर्वजों की बहुत सी बातों का अनुकरण करने का प्रयत्न भी करते हैं। परन्तु देखते हैं कि वह अनुकरण अधिकाँश में लाभ के स्थान पर हानिकारक परिणामों को उत्पन्न करता है।

विचार करने पर मालूम होता है कि यह हमारी अपनी भूल है। देश काल के अनुसार जो रीति रिवाज उन्हें उस समय अपनाने पड़े थे, आज वैसा समय और वातावरण न होते हुए भी उन प्रथा, परिपाटी और परम्पराओं का अन्धानुकरण करने में सन्तोष किया जाता है। यह हमारी भूल है। अनुकरण करने योग्य बात यह है कि हमारे पूर्वजों ने शिल्प, व्यापार, स्वास्थ्य, शिक्षा, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, गणित आदि अनेकों प्रकार के तथ्यों का अन्वेषण किया, उन्हें मौलिक दृष्टि से विचार और तत्संबंधी ऐसी ऐसी जानकारियाँ खोज निकाली जो उनके उस समय तक अज्ञात थीं।

आज जैसे योरोप और अमेरिका समुन्नत हैं उसी प्रकार प्राचीन काल में भारत वर्ष सब दृष्टियों से बढ़ा चढ़ा था। कारण यह है कि जिन लोगों के मस्तिष्क वास्तविकता को खोज निकालने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं वे ही ऊँचे उठते और आगे बढ़ते हैं। पाश्चात्य देशों में नित नूतन आविष्कार हो रहे हैं, यह आविष्कार और अन्वेषण भौतिक, शारीरिक और मानसिक हर एक दिशा में हो रहे हैं, यह प्रगति उन्हें ऊँचा उठाती और आगे बढ़ाती है। यदि उन्होंने ऐसा सोचा होता कि हमारे पूर्वज जहाँ तक सोच चुके हैं, या जो कुछ बना चुके हैं बस यही पर्याप्त है, उससे आगे की बात करना या सुधार करने को कहना अनुचित है तो किसी दिशा में कोई प्रगति न हुई होती, एक भी आविष्कार दृष्टिगोचर न हुआ होता।

उन्नत वे लोग होते हैं जिनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक होता है। वैज्ञानिक इस बात की परवाह नहीं करता कि अब तक इस संबंध में क्या कहा जाता रहा है। न्यूटन से पहले कोई यह नहीं कहता था कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। “कोई नहीं कहता” क्या इतनी सी बात ने न्यूटन की दृष्टि को संकुचित किया? नहीं, कदापि नहीं। उसने अपना प्रयास जारी रखा और अपनी खोज लोगों के सामने उपस्थित कर दी। लोगों ने उससे कहा कि—पुरानी किसी किताब में यह नहीं लिखा है कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। तो भी न्यूटन रुका नहीं, उसने कहा एक वैज्ञानिक के लिए यह सोचना आवश्यक नहीं कि पूर्व समय में यह बात इसी रूप में मानी जाती थी या किसी और रूप में?

भारत वर्ष वैज्ञानिकों का देश है। हमारे तत्वदर्शी ऋषि महर्षि बड़े भारी अन्वेषक और शोधक हुए हैं। उस समय में जितने साधन उपलब्ध थे उन्हें देखते हुए उन्होंने अपने जमाने में आश्चर्यजनक शोधें की थी। यह शोधें इसलिए आगे बढ़ीं, जारी रहीं और सफल हुई कि उनका दृष्टिकोण विशुद्ध वैज्ञानिक था। जो पहले कहा जा चुका है वह ठीक है यह विचार आते ही वैज्ञानिकता समाप्त हो जाती है और हठधर्मी आरम्भ हो जाती है। हमारे पूर्वजों की गुण गाथा पृथ्वी भर में प्रसिद्ध है। यह गौरव गरिमा उन्होंने हठधर्मी से दूर रहकर और वैज्ञानिकता का आश्रय लेकर ही प्राप्त की थी।

आज हम लोग अपने पूर्वजों का अनुकरण करते हैं। किस बात का?—उनके समय की किन्हीं रीति-रिवाजों या उन प्रथा परम्पराओं का-जो अब बिलकुल बे काम हो गई हैं, सड़ गई हैं, यह हठधर्मी नहीं तो और क्या है? पूजनीय पूर्वजों की स्वर्गस्थ आत्माएं यदि हम लोगों को देखती होंगी तो हमारी मूर्खता की बड़ी भर्त्सना करती होंगी। हमारे पूर्वज तो “पुत्रादिच्छेत्पराजयम” पुत्र से पराजय की इच्छा करते थे, अपने से अधिक आगे बढ़ा हुआ संतान को देखना चाहते थे, क्योंकि उन्होंने स्वयं भी अपने पितरों से आगे बढ़ने का प्रयत्न किया था।

हमें अपने पूर्वजों की वैज्ञानिकता का शोधक दृष्टि का अनुकरण करना चाहिए आज की समस्याओं पर आज के ढंग से स्वतंत्र मस्तिष्क से विचार करना चाहिए तभी हम सच्चे सपूत कहला सकते हैं।

शोक समाचार!

गत सप्ताह ‘अखण्ड-ज्योति’ सम्पादक श्री आचार्य जी की धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो गया। कराल काल से न जाने इस दंपत्ति का स्वर्गीय सौभाग्य क्यों सहन न हुआ। श्रीमती जी के तत्वावधान में महिलाओं सम्बन्धी एक उच्च कोटि के मासिक पत्र निकलने की तैयारी हो रही थी कि अकस्मात यह वज्रपात हो गया। भगवान की इच्छा प्रबल है।

-चन्द्रकिशोर तिवारी।


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