दीपक का उत्तरदायित्व

December 1944

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(राजकुमारी रतनेशकुमारी मैनपुरी)

सारे दिन के कठोर परिश्रम के पश्चात् अस्ताचल की ओर अनिवार्य गति से विश्राम हेतु जाते हुए भगवान दिनपति ने चिन्तित भाव से पूछा-मेरा कर्त्तव्य भार कौन ग्रहण करेगा।

झिलमिलाती हुई तारिकाओं ने संकोच पूर्वक कहा-हम प्रस्तुत हैं देव! पर दिनकर ने पूर्ववत् चिन्तित भाव से ही कहा-पर नन्ही तारिकाओं! तुम्हारा क्षीण आलोक कुटियाओं और राजमहलों तक तो प्रवेश भी नहीं कर सकेगा। फिर निस्तब्धता छा गई, मैंने साहसपूर्वक कहा इस हेतु मुझे आदेश हो देव!

मेरा मस्तक नत था हृदय धड़क रहा था और रह-रह कर ये प्रश्न उठ रहा था-क्या यह मेरा केवल दुस्साहस मात्र है? पर उन्होंने प्रशंसा पूर्वक मेरी ओर देखते हुए मेरी क्षुद्र शक्ति को जानते हुए भी कहा-तथास्तु।

नन्हे दीप! नन्ही तारिकाओं! तुम्हारे सद्साहस पर बधाई! अपना-2 कर्त्तव्य भार अब सम्हालो सर्व शक्तिमान जगत् नियन्ता तुम्हारे इस सद्उद्योग को पूर्ण करने की शक्ति तुम्हें प्रदान करे। उत्साहवर्धक इन शब्दों को प्रफुल्लता पूर्वक कह कर वे अस्ताचल में विलीन हो गये। तभी से मैं प्रतिक्षण अपना कर्त्तव्य पालन करता आ रहा है।

मेरा जीवनाधार और प्रकाशोत्पादक स्नेह धीरे-2 घट रहा है। वायु के तीव्र झोंकों से रह-2 कर मेरी क्षीण लौ काँप उठती है। रह-2 कर यही आशंका मेरे हृदय के सन्तोष और दृढ़ता में विक्षेप उत्पन्न कर रही है कि क्या मैं अपना कर्त्तव्य पूर्ण न कर पाऊँगा।

मुझे मृत्यु का डर नहीं है। वह तो कठोर परिश्रम के पश्चात् नवशक्ति प्राप्ति के हेतु अनन्त जीवन में एक क्षणिक पर अनिवार्य विश्राम मात्र है। पर मेरे हृदय की ये ही एक मात्र अभिलाषा है कि मैंने जो उत्तरदायित्व उठाया है वह अपूर्ण ही न रह जाये भगवान दिनेश ने मेरी सद्भावनाओं पर आपकी ही न्यायशीलता के कारण विश्वास कर के ये गुरुतर भार दिया है। नहीं तो मेरी शक्ति ही क्या? मेरी अनन्य आकाँक्षा की पूर्ति आप के ही हाथ है करुणामय!


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