धार्मिकता और ईश्वर भक्ति

December 1944

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(श्री कान्तिकुमार जी आर्य, हैदराबाद)

पानी-पानी चिल्लाने से किसी की प्यास नहीं बुझती। जिसे अपना प्यास बुझानी है उसे जल ग्रहण करके मुख द्वारा पेट तक पहुँचाना होगा। धर्म-धर्म चिल्लाने से, या ईश्वर-ईश्वर रटने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। जो धर्म और ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें कल्पना और जल्पना की परिधि से आगे बढ़कर कुछ काम करना होगा। सिद्धान्तों और तत्वों को जीवन में प्रत्यक्ष रूप से कार्यान्वित करना होगा महात्मा कबीर का वचन है कि—

सहज राम को नाम है, कठिन राम को काम।

करत राम को काम जब, परत राम से काम॥

वाक् शूरों की शूरता हम उनके भाषणों और लेखों में बहुत से सुनते और पढ़ते चले आ रहे हैं, किन्तु वह प्रयास प्रायः निरर्थक ही रहा है। विचार और आचरण के समन्वय बिना कोई ठोस वस्तु पैदा नहीं होती। धर्मात्मा वह है जो अपने जीवन को धार्मिक सिद्धान्तों से भरपूर बनाने के लिये प्रयत्नशील रहता है। पवित्रता, उदारता, सेवा, सहानुभूति, ईमानदारी, समानता और न्यायशीलता यह धार्मिकता के प्रधान लक्षण हैं। जिसमें यह गुण नहीं वह भले ही कंठी माला, तिलक, जनेऊ आदि पहने हो, कैसा ही वेश बनाये हो, कैसे ही मजहबी कर्मकाण्ड करता हो सच्चा धार्मिक नहीं हो सकता।

इसी प्रकार ईश्वर भक्ति घंटा-घड़ियाल तक सीमित नहीं है। प्राणिमात्र में समाये हुए परमात्मा को जो पहचानता है, प्रेम करता है और जनता जनार्दन की सेवा के लिए कटिबद्ध रहता है सच्चा ईश्वर भक्त वही कहा जायगा अब समय आ गया है कि हम मूढ़ विश्वासों से छुटकारा पाकर सच्ची धार्मिकता और ईश्वर भक्ति को पहिचानें और उसी पर आरुढ़ होने का प्रयत्न करें।


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