विचारों का परिणाम!

December 1944

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यजुर्वेद के ब्राह्मण में लिखा है—”यन्मसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तदकर्मणा करोति, यद कर्मणा करोति तदभि सम्पद्यते॥”

अर्थात्—मनुष्य जैसे विचार करता है वैसी ही वाणी बोलता है। जैसे वचन बोलता है वैसे ही कर्म करता है, जैसे कर्म करता है वैसे ही उसकी गति होती है।

इस मंत्र में बताया गया है कि मनुष्य की जो सद्-असद् गति होती है। उन्नति-अवनति होती है, सुख सम्पत्ति या दुख दारिद्र मिलता है। उस सुख-दुख का गति का कारण कर्म है। जो जैसा करता है उसे वैसा फल मिलता है। यह कर्म अचानक नहीं हो जाता, कर्म करने की प्रेरणा उसे वाणी से प्राप्त होती है। खुद कहने से या दूसरों की सुनने से प्रेरणा मिलती है। कहने सुनने से कर्म की ओर प्रगति होती है, परन्तु वह कहना सुनना जिसमें प्रेरक शक्ति भरी होती है मन की भीतरी हिस्से से आती है। विचार और संकल्प ही वह तत्व है जिस से प्रेरणा मिलती है, विचार करने, कहने सुनने की इच्छा होती है और फिर कर्म करने में प्रवृत्ति हो जाती है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जैसे गति को, फल को हम लोग प्राप्त करते हैं उसका मूल कारण प्रारंभिक स्रोत विचार है। विचार वह बीज है जो कर्म रूप वृक्ष के रूप में बढ़ता है और उसके मीठे कडुए फल हमारे सामने उपस्थित हैं।

जिस प्रकार बीज और फल का आपस में अत्यन्त निकट का संबंध है उसी प्रकार विचार और दुख-सुख का संबंध है जिसके मन में बुरे विचार काम कर रहे हैं, दुर्भावनाएं भरी हुई हैं उसको वाणी से, आकृति से उसी प्रकार के भाव प्रकट होंगे। कौवे की बोली सुनकर जैसे दूसरे कौवे इकट्ठे हो आते हैं उसी प्रकार दृश्य और अदृश्य सहयोगी जमा हो जाते हैं और फिर उसी दिशा में कार्य आरंभ हो जाता है। चोरों, व्यभिचार, ठगी, आदि के जो भाव मन में घुमड़ते हैं उनके कार्य रूप में परिणत होने का मार्ग निकल ही आता है। जब बुरे कार्य आरंभ हुए तो जेल, बदनामी, शत्रुता, धन नाश, कलह, विपत्ति, अवनति आदि के दृश्य प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगते हैं। वह दुखदायी, विपत्तिमय परिस्थितियों में फँस जाता है। इसके विपरीत जिसके मन में सद्विचारों का आरंभ होता है उसकी वैसे ही वाणी और चेष्टा होती है तदनुसार अच्छे सहायक और अवसर मिलते हैं जिनसे अच्छे काम करना सुलभ हो जाता है। यह निश्चय है कि अच्छे काम करने वाला अच्छी गति को, उन्नति और समृद्धि को प्राप्त करता है।

उपरोक्त श्रुति पर हम जितनी गंभीरता से विचार करते हैं उतना ही स्पष्ट होता जाता है कि भले बुरे परिणामों का मूल कारण विचार हैं। जो मनुष्य इस संसार में सुखदायक परिस्थितियों को प्राप्त करना चाहता है उसे जड़ तक पहुँचकर यह पता लगाना चाहिए कि सुखदायक परिणाम कैसे प्राप्त हो सकता है। श्रुति ने स्पष्ट कर दिया है कि यदि सुख शान्ति की इच्छा है तो सद्विचारों को अपनाओ यदि दुख और विपत्ति भोगना चाहते हो तो कुविचारों में डूबे रहो। जैसे विचार करोगे वैसी ही गति को प्राप्त करोगे।

हम लोगों को विचारों का महत्व समझना चाहिए। सब प्रकार की उन्नति सद्विचारों द्वारा ही होनी संभव है। मस्तिष्क के नियंत्रण में सारा शरीर है। विचारों के अनुसार ही शरीर के विभिन्न कल-पुर्जों की योग्यता और शक्ति बनती है उसी के द्वारा जीवन संग्राम में सफलता प्राप्त की जा सकती है। सात्विक विचारों को मन में स्थान देने से गुण-कर्म, स्वभाव सभी ऐसे आकर्षक हो जाते हैं कि सब लोग सहायता करने के लिए दौड़ पड़ते हैं। इस प्रकार शुद्ध विचारों वाले मनुष्य का जीवन सुख और समृद्धि से परिपूर्ण हो जाता है।


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