जन्म गाँठ का सन्देश

December 1944

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आगामी 9 दिसम्बर 45 को हमारे जीवन का 32 वाँ वर्ष समाप्त होकर 33 वाँ आरम्भ होता है। हमारे देश-देशान्तरों में फैले हुए अनन्य आन्तरिक सुदृढ़ बन्धुओं में से अनेकों ने इस जन्म तिथि के अवसर पर कुछ सन्देश माँगे हैं। उन्होंने लिखा है कि “केवल शिष्टाचार और प्रथा परिपाटी के कारण नहीं वरन् गंभीरतापूर्वक हम अनुभव करते हैं कि आपने अब तक जो अनुभव किए हैं जो ज्ञान संचय किया है, उसका साराँश हमें बतावें।” अपने परिवार के सदस्यों का आग्रह और अनुरोध हमने सिर मस्तक पर रखने में हमने सदैव अपना सौभाग्य समझा है। तदनुसार अपने विश्वासों का साराँश अपने प्रिय पाठकों के सामने उपस्थित करते हैं।

अपने वर्तमान शरीर के 32 वर्षों के जीवन में से बालकपन का थोड़ा सा समय छोड़कर शेष सारा समय अध्ययन, अभ्यास, साधना, शिक्षा, सेवा और सत्संग में ही व्यतीत हुआ है। भारत वर्ष के एक कोने से दूसरे कोने तक कई बार यात्राएं की हैं। देश के ऊँचे से ऊँचे महापुरुषों के निकट संपर्क में रहने का सौभाग्य प्राप्त किया है। विभिन्न भाषाओं के हजारों ग्रन्थों का अध्ययन किया है।

धुरन्धर अनुभवी विद्वानों, ब्रह्मनिष्ठ महात्मा, तपस्वी, और योग विद्या के पारंगत तत्त्वदर्शियों से भेंट करने और उनकी कृपा प्राप्त करने के अवसर हमने पाये हैं। ब्रजभूमि मथुरापुरी में गुप्त प्रकट रीति से पधारते रहने वाले महात्माओं की सहज कृपा से अनायास अपने घर पर ही अनुग्रहपूर्ण दर्शन हो जाने से सुअवसर संघर्षमयी अशान्त दुनिया के बीचों-बीच खड़े होकर उसकी भीतरी और बाहरी स्थिति का भी सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया है। इन सब आधार सूत्रों से निस्संदेह कुछ मानसिक बौद्धिक और आत्मिक सामग्री हमारे पास एकत्रित हुई है, उस एकत्रित ज्ञान और अनुभव का साराँश अपने अन्तःकरण के गंभीर तल में से निकाल कर पाठकों के सामने उपस्थिति कर रहे हैं।

हमने पिछले 32 वर्ष में दो बातें ऐसी अमूल्य पाई हैं जो पूर्णतया प्रत्यक्ष सत्य से परिपूर्ण है, जिनके संबंध में आस्तिक और नास्तिक एक मत से सहमत हैं वे दो बातें यह हैं (1) पुरुषार्थ करो (2) दूसरों की सहायता करो। संसार में अनेक प्रकार के वैभव, सुख, सम्पदा, भोग, ऐश्वर्य मौजूद हैं, इस मर्त्यलोक का एक भाग ऐसा आनन्द मय है जिसकी तुलना में स्वर्ग को तुच्छ गिना जा सकता है। साथ ही दूसरा भाग ऐसा दुख मय है जिसके सामने बेचारा नरक भी काँपता है। आनन्द को, इस पृथ्वी के स्वर्गीय स्वर्णिम भाग को सब लोग चाहते हैं परन्तु यह भूल जाते हैं कि उसे किस प्रकार पाया जा सकता है। स्मरण रखने की बात यह है कि “शक्ति ही सुखों की जननी है” बल से, पुरुषार्थ से, विजय लक्ष्मी को, श्री सम्पदा को, प्राप्त किया जाता है। सुख और सौभाग्य केवल उनके लिए है जो शक्तिसम्पन्न हैं, बलवान हैं, पुरुषार्थी हैं, पराक्रमी हैं उद्योगी हैं। तन्दुरुस्ती, लक्ष्मी, कीर्ति, प्रतिष्ठा, बुद्धिमत्ता, विद्या, स्वर्ग, मुक्ति, आदि सम्पदायें पुरुषार्थ का फल हैं। ईश्वर के यहाँ न्याय है वह मंजूरी को देखकर फल देता है। भाग्य, प्रारब्ध आदि और कुछ नहीं अपना ही पुरुषार्थ है। कल मेहनत की जा चुकी और आज मजूरी मिल रही है। बस यही प्रारब्ध है। मुफ्त के माल की तरह इस दुनिया में एक तिनका भी किसी को नहीं मिलता, जो लेता है उसे अनेक गुना देना पड़ता है। इसलिए पहली शिक्षा जो हमने अपने जीवन में सूर्य के समान स्पष्ट और सत्य के समान स्वच्छ अनुभव की है वह यह है कि-शक्ति संचय करो अपनी भीतरी और बाहरी उन्नति के लिए हर घड़ी लगे रहो, पराक्रम को, पुरुषार्थ को अपनी जीवन मंत्र बना लो। यह बात कसकर गिरह बाँध लो कि ईश्वर सिर्फ उनकी मदद करता है जो अपनी उन्नति के लिए आप प्रयत्न करते हैं।

दूसरी शिक्षा जो हमने अपने पिछले 32 वर्ष में पाई है वह यह कि-दूसरों की सेवा करो। अपने घर वालों से, कुटुम्बियों से संबंधियों से, मित्रों से परिचितों से, अपरिचितों से सेवामय, प्रेम पूर्ण, उदारता और त्याग से भरा हुआ बर्ताव करो। अपने लिए कम चाहो और दूसरों को अधिक दो। अपने अन्दर शक्ति उत्पन्न करो किन्तु उस शक्ति को भोग-विलास में खर्च न करो वरन् गिरे हुओं को उठाने में लगा दो। स्वयं उन्नति करो पर उस उन्नति से अहंकार को तृप्त न करो वरन् दूसरों को उन्नत बनाने में लगा दो। मनुष्य की सेवा ईश्वर की पूजा है। ईश्वर चापलूस, खुशामदी या रिश्वतखोर हाकिम, नवाब या अमीर उमराव की तरह नहीं है जिसे आदमी प्रशंसा, स्तुति, चापलूसी, खुशामद भेंट, मिठाई, टहल, चाकरी की जरूरत हो। वह समर्थ है हम उसके सामने दीपक न जलावें तो भी उसकी आँखें सब कुछ देखने में समर्थ हैं हम उसकी महिमा बारम्बार न गावें तो भी उसकी महिमा सर्वविदित है। वह इन बातों की जरा भी परवाह नहीं करता, और न इन कर्मकांडों को देखकर किसी से खुश या ना खुश होता है। परमात्मा को वे प्यारे हैं जो उसकी आज्ञा मानते हैं। परमात्मा की आज्ञा मनुष्य के लिए क्या है? इसी एक प्रश्न का विवेचन करने के लिए हमने अब तक निरंतर विचार किया है, एक से एक ऊँचे महापुरुषों से परामर्श किया है। इस प्रश्न के उत्तर में हमें सर्वसम्मति से एक ही बात बताई गई है “स्वयं अपनी उन्नति करो और उस उन्नति को दूसरों के लिए खर्च करो।”

हर एक दृष्टि से हर एक क्षेत्र में हमने एक ही बात पाई है जो शारीरिक दृष्टि से बलवान है उसको शारीरिक सुख है जो मानसिक दृष्टि से बलवान है उसको साँसारिक सुख है, जो आत्मिक दृष्टि से बलवान है उसको आन्तरिक सुख है। सुख और बल एक ही वस्तु के दो पहलू हैं दोनों एक दूसरे के साथ अनन्य रूप से जुड़े हुए हैं। जो बलवान हैं वे सुखी रहेंगे स्वर्ग भोगेंगे जो निर्बल हैं उनके लिए दुख और नरक ही निश्चित है। प्रकृति का, परमात्मा का यह बड़ा कठोर नियम है। यह दया और निर्दयता के साथ ही न्याय से परिपूर्ण है। जो भी है, पर है सत्य, अटल, प्रत्यक्ष और सर्वत्र दिखाई देने वाले, इस नियम को ईश्वरीय आदेश को हमें ठीक प्रकार अनुभव करना है और तदनुसार आचरण के लिए तत्पर होना है।

पाठको! फिर सुनो-हमारे 32 वर्ष के अनुभव ज्ञान और अध्ययन के साराँश को ध्यान पूर्वक सुनो और उचित जँचे तो उसे गाँठ बाँध लो। शक्ति संचय के लिए, आत्म उन्नति के लिए, भीतरी और बाहरी योग्यताएं बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करना आपका सब से पहला काम होना चाहिए इसके बाद दूसरा काम यह है अपनी उपार्जित शक्तियों को भोग और अहंकार की पूर्ति में नहीं वरन् मनुष्य जाति को ऊँचा उठाने में सत् की ओर ले जाने में खर्च करो। बढ़ो और बढ़ाओ -उठो और उठाओ-तरो और तारो-यही हमारा अपनी बत्तीसवीं वर्ष गाँठ के उपलक्ष में संदेश है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118