अवतार-रहस्य

December 1944

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(श्री धर्मपालसिंह, रुड़की)

शास्त्रों में यह बतलाया गया है कि जीव कर्म का फल भोगने में परतंत्र है फल में उसके वश की कोई बात नहीं है। फल का अधिकार एक गुप्त शक्ति के हाथ में है जिसको हम ईश्वर परमात्मा कहते हैं। इस गुप्त रहस्य को ब्रह्म विद्या के ज्ञाताओं ने इस प्रकार खोला है, कि मनुष्य जो कुछ इच्छा या कर्म करता है उसका छोटा सा प्रभाव परमात्मा के सर्वव्यापी मायारूपी नभ मण्डल पर पड़ता है। वह छोटा प्रभाव हमारी इन चमड़े की आँखों से दिखाई नहीं देता इसलिए उसे गुप्त चित्र या चित्र-गुप्त भी कहते हैं। इन्हीं गुप्त चित्रों के अनुसार अकेले प्राणी की इच्छाओं के योगिक परिणाम से व्यष्टि प्रारब्ध, और सब प्राणियों की इच्छाओं के योगिक परिणाम से समष्टि प्रारब्ध बनते हैं।

जैसे ध्वनि-प्रति ध्वनि में, बिम्ब-प्रति बिम्ब में बदलता है। वैसे ही इच्छाएँ प्रति इच्छाओं में बदलती हैं। जब हम किसी कुएँ (गुम्बद) में कोई आवाज करते हैं तो वह उसी रूप में वापस आती है। गाली से गाली प्रशंसा से प्रशंसा, और भले शब्दों से भले शब्द वापस सुनाई देते हैं। ठीक इसी प्रकार भूमण्डल पर जैसी इच्छाएं या कर्म मनुष्य करता है उसकी प्रति इच्छाओं और प्रतिक्रियाओं का चित्र नभ मण्डल पर बनकर फल लाता है इसलिए जब हम दूसरों का अशुभ चिन्तन अथवा कर्म द्वारा बुरा चाहते हैं तो उसका वैसा ही चित्र नभ मण्डल पर तैयार हो जाता है जो समय पाकर हमारे बैरी शत्रु के रूप में प्रगट होकर हमें हानि पहुँचा जाता है। इसी प्रकार जब हम किसी का मन-वाणी कर्म द्वारा हित चाहते और करते हैं तो इस प्रकार की प्रति इच्छाएँ और क्रियाएँ इसी गुप्त चित्र द्वारा तैयार होकर हमारे मित्रों, शुभ-चिन्तकों-सहायकों के रूप में प्रगट होकर हमारा भला कर जाते हैं। शास्त्रों में इसीलिये यह उपदेश लिखा गया है-कि सदैव भला सोचो भला करो, धर्म को ग्रहण करो अधर्म को त्यागो। क्योंकि शुभ-चिन्तन कर्त्ता की उन्नति और अशुभ चिन्तन उसकी अधोगति का कारण होते हैं।

प्राणियों की सामूहिक इच्छाओं का परिणाम समष्टि प्रारब्ध होता है यह बतलाया जा चुका है। मनुष्यों की बहुत सी इच्छाएँ एक समान भी होती है और बहुत भिन्न भी, यह समानता-भिन्नता देश और काल के अनुसार होती हैं जब किसी देश के निवासी भौतिक सम्पत्ति सोना-चाँदी-धन-धान्य-वैभव-ऐश्वर्य से सम्पन्न होते हैं तो बहुधा उनके अन्दर डाह, ईर्ष्या अभिमान, दूसरों को नीचे गिराने और स्वयं ऊँचा चढ़ने की इच्छाएँ तथा भिन्न-2 प्रकार से विषयों को भोगने की कामनाएँ अधिकतर समान रूप से उत्पन्न होती हैं इन मलिन कामनाओं के कारण वे लोग नास्तिक- और ईश्वर विरोधी बन जाते हैं, फलस्वरूप इन मलिन इच्छाओं का सामूहिक चित्र नभ-मण्डल में तैयार होकर समष्टि प्रारब्ध से एक मलिन अहंकार युक्त व्यक्ति के रूप में प्रगट होता है जिस को दैत्य दानव या राक्षस कहते हैं।

जब किसी देश में काल चक्र के प्रभाव से दरिद्रता, निर्बलता, दीनता, दासता, जुल्म, दुःख, महामारी, अकाल, उपद्रव, अपना डेरा डाल देते हैं तब वहाँ के पीड़ित असहाय लोगों में, दया, करुणा भक्ति, परस्पर प्रेम, सहानुभूति अहिंसा अनाभिमान जैसी शुद्ध भावनाएँ समान रूप से अधिकतर उत्पन्न होती हैं जिसके फलस्वरूप देश में ईश्वराधना, भक्ति, सदाचार-धर्म, परमानन्द भोगने की इच्छाएँ, जिज्ञासाएँ, और उनके अनुसार कर्म भी होने लग जाते हैं जिससे देश में आस्तिकता और धर्म का प्रचार बढ़ने लगता है और सत् धर्म की स्थापना के लिए सामूहिक शुभ इच्छाओं के परिणाम स्वरूप जो चित्र नभमण्डल मैं तैयार होता है जो समष्टि प्रारब्ध से व्यक्त होकर संसार में प्रकट होता है अवतार कहलाता है। अर्थात् एक प्रभावशाली व्यक्ति जो शुद्ध अहंकार का परिणाम होने से साक्षात् ईश्वर का ही होता है उसका प्रादुर्भाव होना, अवतार कहलाता है। इन महापुरुषों का जन्म किन्हीं पूर्व कर्मों के बन्धन में आकर नहीं होता किन्तु शुद्ध समष्टि प्रारब्ध के अनुसार प्रकृति के कोष से सब शक्तियाँ संग्रह करके उद्देश्य पूरा करने के लिए, स्वेच्छा से होता है।


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