[लेखक—श्री नरेन्द्र]
(1)
यहाँ कौन है जग में पापी?
यह मेरा भोला भाई है,
यह मेरा भूला भाई है,
यहाँ कौन है इस जग में पापी?
(2)
बालक हैं थक ही जाते हैं,
पल भर कहीं ठहर जाते हैं,
क्या डर है यदि कठिन मार्ग में,
संग न थे शिशु चल पाते हैं।
(3)
कंटक मय जग जीवन बन है,
मार्ग निरन्तर अगम गहन है,
हे, गम्भीर, ज्ञान के ज्ञाता!
बालक हैं, थक ही जाते हैं।
(4)
महाव्रती हे गहन तपस्वी!
ये लघु शिशु हैं, चञ्चल मन हैं,
ज्ञान शून्य, निर्बोध सरल चित्-
शिशु ससीम हैं, कोमल तन हैं,
देखे फूल कली किसलय दल,
क्रीड़ातुर हो उठे चपल चल,
ये क्या जानें जग मिथ्या है,
यह असार जग की माया है
भ्रमित हुए भूले भृंगों से,
लगे खेलने नवरंगों से,
(5)
प्यास लगी देखी मरीचिका,
भूल गए अपनापन मरु में,
भूख लगी देखे सुवर्ण फल,
भूले शिशु सोने के तरु में,
कौन नहीं हो उठता चञ्चल?
कौन नहीं भूला जीवन में?
केवल शिशु ही थे यदि भूले
जीवन मरु में तृष्णा तरु में!
हे इन्द्रिय जित! अह अचंचल!
ये शिशु हैं कुन्दन से निर्मल!
(6)
विकसित कुसुमों की सुस्मिति मिस-
डाली डाली आमंत्रित कर।
शूल चुभाती थी, हा निर्दय-
शिशुओं को यों सम्मोहित कर॥
मरु की मिथ्या मृग मरीचिका,
इन्हें भ्रमाती थी जीवन में।
वञ्चित भ्रमित दुखित नख दुर्बल।
ये ही हैं वे पापी निर्बल॥
(7)
कण्टक भय जग जीवन बन है।
मार्ग निरन्तर अगम गहन है॥
लो अब तो निशि भी घिर आई,
निर्जन में छाई अँधियारी,
ज्ञानवान्! हे महा पुरुष! क्या—
छोड़ चलोगे इनको बन में।
हे प्रदीप! क्या इन्हें भटकते
ही छोड़ोगे इस जीवन में?
भूले भटके हैं शिशु निर्बल।
ये पापी कुन्दन से निर्मल॥
-प्रभात फेरी
*समाप्त*