सूर्य-सेवन से रोग मुक्ति

December 1944

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(एम. एस. मोसवर्ने)

साहित्य सेवियों को अपने कार्य में कुछ ऐसा चस्का होता है कि वे अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बिना सामर्थ्य से बहुत अधिक कार्य करते रहते हैं। मुझे भी ऐसा ही चस्का था, अध्ययन और साहित्य निर्माण में इतनी दिलचस्पी थी कि निरंतर कम से कम बारह घंटा प्रतिदिन की औसत से काम करता था, आर्थिक दशा अच्छी न होने के कारण पौष्टिक भोजन मिल नहीं पाता था। सामर्थ्य से अधिक शक्तियों का खर्च करते-करते आखिर में क्षय रोग का शिकार हो गया।

तपैदिक के कीटाणु मेरे फेफड़े को गलाने लगे। हलका-हलका बुखार रहने लगा। डाक्टरों की चिकित्सा आरंभ हुई। पैकिटों के पैकिट गोलियाँ, बोतलों की बोतलें दवाइयाँ, दर्जनों इंजेक्शन मेरे शरीर में प्रवेश कर गये। डाक्टरों की फीस और दवाओं की कीमत चुकाते-चुकाते मेरा घर खाली हो गया। परन्तु लाभ का कोई चिन्ह नजर न आता था दशा दिन पर दिन बिगड़ती चली जा रही थी। मुझे ऐसा मालूम देने लगा मानों मृत्यु अपना विकराल मुँह फाड़कर मेरी ओर बढ़ती चली आ रही है। छोटे-छोटे बच्चों को निर्धन और असहाय अवस्था में छोड़कर चले जाने से उनकी जो दुर्दशा होगी उसका स्मरण करके मेरी अन्तरात्मा में बड़ी वेदना होने लगी। जिन ग्रन्थों को मैं अपने जीवन में पूरा करना चाहता था। वे सब अधूरे पड़े रह जायेंगे यह सोच-सोचकर मैं अत्यधिक दुखी रहने लगा।

एक दिन मेरे मित्र विकवेन मुझे देखने आये। उन्होंने जब मुझे इस दशा में देखा तो बहुत दुखी हुए। मि. विकवेन प्रकृति विज्ञान के अन्वेषक थे। उन्होंने बताया कि सूर्य किरणों में क्षय के कीटाणुओं को नाश करने की ऐसी अद्भुत शक्ति है जैसी संसार की किसी भी दवा में नहीं है। यदि मैं सूर्य की किरणों का सेवन करूं तो इस दिशा में भी मृत्यु के मुख से निकल सकता हूँ। उन्होंने सूर्य सेवन की सभी विधि भी मुझे समझा दी।

मैं अब भी बच सकता हूँ, यह आशा मेरे लिए इतनी महत्वपूर्ण थी कि उसके बदल में बड़े से बड़ा काम करने को भी मैं तैयार था। दूसरे ही दिन मैं शहर के बाहर खुली आबोहवा वाले स्थान एरिजोना के लिए रवाना हो गया। यह स्थान ऐसा था जहाँ शहर का धुआँ और गर्द गुब्बार नहीं पहुँचता था सूर्य की किरणें बिना किसी रुकावट के उस स्थान पर पड़ती थीं। हर रोज दोपहरी की कड़ी धूप को छोड़कर ढाई घंटे सवेरे और ढाई घण्टे शाम को मैं हलकी धूप का सेवन करने लगा। सफेद रंग का एक बारीक सा कपड़ा शरीर पर पहनकर धूप में बैठा या लेटा रहता। सिर को ढंके रहना जरूरी था। इसके सिवाय शरीर के हर एक अंग को बारी-बारी लौट पलटकर धूप में सेंकता। जब धूप हलकी होती तो बिलकुल नंगे बदन सूर्य सेवन करता। पेट और छाती को अधिक धूप लगाता था। इससे त्वचा के छेद खुलकर खूब पसीना निकलता था। सूर्य सेवन के बाद बन्द कमरे में साबुन की सहायता से खूब रगड़-रगड़ कर स्नान करता। आमतौर से क्षय में स्नान नहीं कराया जाता परन्तु मेरे मित्र ने बताया था कि कमजोर आदमी को स्नान के समय हवा के झोंके से बचाव कराके स्नान करना चाहिए। स्नान से हानि नहीं वरन् लाभ ही होता है।

इस प्रकार करीब तीन मास मैंने सूर्य सेवन किया। दिन-दिन मेरी हालत सुधरती गई और तीन महीने में मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया। इस प्रकार सूर्य की सहायता से मैं मृत्यु के मुख में से निकल आया। मेरा विश्वास है कि हर एक रोग से चाहे व कितना ही कठिन हो सूर्य किरणों का समुचित सेवन करने से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118