‘‘क्या देवताओं का पूजन करने वाले से ही भगवान प्रसन्न होते हैं?’’
हमारे इस प्रश्न का समाधान करते हुए पूज्यवर ने कहा ‘‘बेटा भगवान तो बाहर नहीं अपने भीतर ही हैं। देव-दानव सभी तो इस शरीर में वास करते हैं। हर समय देवासुर संग्राम हमारे भीतर चलता रहता है। जब दैवी भावना प्रबल होती है तो वह हमको कुकर्मों की ओर खींचते हैं।
देव पूजन से हम अपने अंदर देवत्व के भाव पैदा करने की भावना करते हैं। देवताओं की दैवी शक्तियों का आह्वान करते हैं। यह भावना करनी चाहिए कि ये दैवी शक्तियां हमारे अंतरंग में आ रही हैं (
आवाहयामि), अपनी जड़ें जमाकर स्थापित हो रही हैं (
स्थापयामि) और हम उनका ध्यान करके (
ध्यायामि) अपने अंदर दैवी भावों को पुष्ट कर रहे हैं। सभी देवता अपने समस्त गुणों सहित हमारे मन में अवतरित होकर हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। वे केवल पूजा की चौकी पर ही मूर्ति रूप में नहीं हे बल्कि सूक्ष्म रूप में हमारे भीतर-बाहर सभी ओर विद्यमान हैं तथा आसुरी शक्तियों का नाश कर रहे हैं।
भगवान एक ही है। भगवान के पास बैठने से हमारा भी देवत्व विकसित होता है ठीक वैसे ही जैसे पारस की समीपता से लोहा भी सोना बन जाता है। भगवान का अवतरण हमारे भीतर होना चाहिए। सच्चे मन से, श्रद्धा एवं भावना से पूजा करनी चाहिए। गहराई में प्रवेश करना चाहिए। जिस प्रकार जमीन के ऊपर कंकड़-पत्थर ही मिलते हैं परंतु जमीन की गहराई में जाने से बहुमूल्य खनिज, सोना, चांदी तथा अन्य महत्वपूर्ण पदार्थ पेट्रोल इत्यादि मिलते हैं, उसी प्रकार अंतरमन में उतरने से देव विभूतियों की प्राप्ति होती है।
ऋषियों ने पहना कर्मकांड आत्मशोधन का ही बताया है क्योंकि जब तक कषाय-कल्मष रहेंगे, भगवान की कृपा नहीं पा सकेंगे। मैले कुचैले बच्चे को मां भी गोद में नहीं लेती है। पहले उसे साफ-सुथरा करती है तभी गोद में उठाती है। हमें भी भगवान की गोद में बैठने के लिए पात्रता विकसित करनी चाहिए। अंतःकरण की चेतना के परिष्कार के लिए ही तो सारे कर्मकांड भजन, पूजन हैं। केवल चावल, फूल, रोली चढ़ाकर ही भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकते। कर्मकांड के पीछे उच्च कोटि की विचारणा है। सही तरीके से पूजा तभी होगी जब उसमें अंतर्निहित दर्शन की महत्ता को याद रखेंगे। आध्यात्मिकता तो भावना का ही खेल है। हमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, चारों को वश में करके आचरण को शुद्ध करना चाहिए। बर्तन में दूध तभी सुरक्षित रहेगा जब बर्तन साफ हो, उसमें किसी प्रकार की मलिनता न हो। छलनी में दूध का दोहन करेंगे तो दूध कैसे ठहरेगा। व्यसनों से मुक्त हो जाओ तो पतन, पराभव के छिद्र बंद हो जाएंगे और आत्मशक्ति प्राप्त होगी, प्राणशक्ति का संचय होगा।
देवताओं का आवाहन करके उन्हें भीतर धारण करते हैं। देवता व्यक्ति नहीं, शक्ति हैं जो हमारे शरीर के भीतर हैं।
मूर्ति तो केवल एक मॉडल के रूप में है। सूर्य एक है, सबको प्रकाश देता है, चाहे हिंदू हो, मुसलमान हो या अन्य किसी भी संप्रदाय का हो। वहां भेदभाव है नहीं। देवपूजन में हम इन देवताओं का ध्यान करते हैं। उनकी शक्तियों का आह्वान करते हैं।
शंकर भगवान के सिर से गंगाजी निकलती हैं अर्थात् हमारे मस्तिष्क से भी पवित्र, पावन, शुद्ध विचार ही निकलने चाहिए। यह ज्ञान-गंगा की प्रतीक है जो समस्त मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। हमारे विचार भी ऐसे ही हों। शिवजी के सिर पर चंद्रमा स्थापित है। चंद्रमा तो गाल होता है, सिर पर कैसे ठहरता है उसे तो बांधना पड़ता है। परंतु नहीं! यह तो प्रतीक है-शीतलता का, शांति एवं सरसता का। कैसी ही विपरीत परिस्थितियां क्यों न आ जाएं तो भी संतुलित रहें, विवेक से शांतिपूर्वक समस्या का सामना करें। क्रोध और अविवेक के भावों को न आने दें। भगवान के सच्चे भक्तों को भी अपना मानसिक संतुलन नहीं खोना चाहिए। शंकरजी के गले में विषधर लिपटे हैं। यह उनकी कला है कि दुष्ट प्रवृत्ति के जीवों को भी बस में करके उसने मनचाहा कार्य करा लेते हैं। अपने प्रभाव से, क्षमता से दुष्टों को भी सुधार कर अपने अनुरूप बना लेना चाहिए, जैसे भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल का, नारदजी ने रत्नाकर डाकू का जीवन बदलकर उन्हें महान बना दिया था।
शंकरजी अपने शरीर में भस्म रमाते हैं। यह भस्म हमें निरंतर अपनी मृत्यु का ध्यान दिलाती है। यह शरीर कभी भी मुट्ठी भर राख में बदल सकता है। इस शरीर की क्षणभंगुरता को याद रख कर निरंतर अपने लक्ष्य के प्रति सावधान रहें। राजा परीक्षित ने मौत को याद रखा तो सात दिन में ही मुक्ति पा ली थी। हम सबको भी सात दिन ही तो जीना है। सप्ताह में सात दिन होते हैं और उनमें से ही किसी दिन हम सबको जाना है। हमारा यह जीवन लोक मंगल के कार्य में अर्पित हो जाए यही उद्देश्य रहे। शंकर जी की बारात में लंगड़े लूले, अंधे सभी प्रकार के लोग थे। हमें दीन-हीन, पिछड़े समाज के सभी लोगों को लेकर चलना चाहिए। किसी की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जापान के गांधी के नाम से विख्यात संत कागावा कोढ़ियों के बीच रहकर आजीवन सेवा करते रहे। ठक्कर बापा भंगियों के बीच रहते थे। भगवान राम ने रीछ-वानर तक को साथ रखा था। भगवान कृष्ण ने तो ग्वालबालों को सदैव अपने साथ रखकर यह दिखाया कि पिछड़ों की उपेक्षा कभी नहीं करें। उन्हें भी उचित मान-सम्मान दें।
शंकरजी के तीन नेत्र हैं। हमारे प्रत्यक्ष दो ही आंखें हैं। यह तीसरा नेत्र ज्ञान का है, विवेक का है, इसे स्वयं विकसित करना होता है। हमारी दूरदर्शिता, विवेकशीलता, जाग्रत होनी चाहिए। भगवान शंकर की पूजा करने से ये सभी गुण हमारे अंदर विकसित होने चाहिए।
देवी का पूजन करते हैं। देवी सहकारिता की, सामूहिकता की प्रवृत्ति की प्रतीक है। एक बार असुरता देवत्व पर हावी हो गई और देवताओं को हारना पड़ा। तब देवता ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने पूछा ‘तुम क्यों हार गए?’ देवताओं के पास कोई उत्तर नहीं था। देवता असंगठित थे, यही उनकी हार का मूल कारण था। अतः ब्रह्माजी ने कहा ‘तुम्हें संगठित होना पड़ेगा तभी विजय प्राप्त कर सकोगे।’ ब्रह्माजी की बात मानकर देवता अपने-अपने अहं को त्यागकर संगठित हुए। उनकी सम्मिलित शक्ति से देवी का प्रादुर्भाव हुआ। वे विजयी हुए। सप्त ऋषियों ने मिलकर ही इस देव संस्कृति के प्रकाश को सारे विश्व में फैलाया था। तीन नदियां एक हो गईं तभी त्रिवेणी संगम हुआ और प्रयाग तीर्थराज बन गया। आज सभी जगह संगठन का अभाव है। साथ रहने में उनके अहं टकराते हैं। अलग-अलग रहने की वृत्ति से ही समाज में कमजोरी आ रही है। देवताओं की बिखरी हुई शक्ति जब संगठित हो गई तो एक प्रचंड शक्ति का अभ्युदय हुआ उसे दुर्गा कहते हैं। अनेक हाथ, अनेकानेक अस्त्र–शस्त्र सभी एक ही शक्ति से संचालित होने लगे। इसी दुर्गा ने शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ जैसे राक्षसों से सबको मुक्ति दिलाई। व्यक्तिवाद की भावना से ही आज मनुष्य हर क्षेत्र में पराजित हो रहा है। हम देवी का पूजन इसी संघ भावना से करेंगे तो दैवी शक्ति हमारे भीतर जागेगी और स्वर्ग जैसी सहकारिता धरा पर छा जाएगी।
गायत्री माता को भी जानना चाहिए। गायत्री माता बाहरी साज-शृंगार से, पूजा-पाठ से प्रसन्न नहीं होतीं। वह तो प्रसन्न होती हैं जब अपनी वृत्ति हंस जैसी विवेकशील और दूरदर्शी बन जाए। गायत्री माता पुष्प पर बैठी हैं। कमल के उस पुष्प पर जो है तो कीचड़ में परंतु उससे ऊपर उठकर निर्विकार रहता है। संसार में बुराइयां तो हैं, सदा से ही हैं और आगे भी रहेंगी। उन्हें निर्मूल कर सकना संभव नहीं है। परंतु हम इतना तो करें ही कि अपने भीतर बुराई का प्रवेश नहीं होने दें। रहें इस प्रकार जिस प्रकार जल पर नाव तैरती है। जल में नाव रहती है पर नाव में जल नहीं रहता। यदि नाव में छेद हो जाए और जल नाव में भर जाए तो नाव डूब जाती है। श्रेष्ठ आचरण और श्रेष्ठ कर्तव्य करना ही सच्ची आध्यात्मिकता है, गायत्री माता की असली पूजा है। गायत्री माता की कृपा भी उस पर होगी जो इस प्रकार जीवन जीना चाहेगा। गायत्री माता के एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में वेद है। कमंडल सादगी का प्रतीक है। उसमें जल है श्रद्धा का प्रतीक है, शालीनता, सरसता का प्रतीक है। वेद संसार के समस्त ज्ञान का मूल है। हम ज्ञान के उपासक बनें, स्वाध्याय में प्रमाद न करें। बिना विद्या के, बिना ज्ञान के मनुष्य को शास्त्रों ने बिना सींग व बिना पूंछ का जानवर कहा है। ज्ञान प्राप्ति के बाद भी उसका गर्व न करें, सादगी से रहें, श्रद्धापूर्वक उस ज्ञान का जनकल्याण हेतु सदुपयोग करें।’’