गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

आचमन की सार्थकता

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‘‘गुरूजी हमें पवित्रीकरण क्रिया तो समझ में आ गई परंतु तीन बार आचमन करने से क्या लाभ होता है? केवल तीन चम्मच जल से तो प्यास भी नहीं बुझती।’’

‘‘बेटा यह आचमन प्यास बुझाने के लिए नहीं किए जाते। इसके पीछे गहरे तथ्य छिपे पड़े हैं। हमारे शरीर भी तीन होते हैं—स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर।

स्थूल शरीर में आलस्य और असंयम की बीमारी होती है। इन दोनों रोगों ने स्थूल शरीर को चौपट कर दिया है। समय को बर्बाद करने वाला आत्मघाती कहलाता है। हकीम लुकमान ने एक बार कहा था कि मनुष्य स्वयं अपनी जीभ से अपनी कब्र खोदते हैं। जीभ के असंयम ने ही उनके शरीर को उनके रोगों का घर बना दिया है। पहला आचमन जागरूकता तथा संयमशीलता की प्रेरणा देता है। यह आचमन भवरोगों की दवा है। ‘अमृतपान कर रहे हैं’, यही भावना उस समय करनी चाहिए।

इसी प्रकार दूसरे आचमन का भी निश्चित उद्देश्य है। यह सूक्ष्म शरीर के रोगों लोभ और मोह को दूर करने के लिए किया जाता है। लोभ और मोह के रोग ने सूक्ष्म शरीर की शक्ति को क्षीण कर दिया है। हम हमेशा पैसा कमाते और जमा करते रहे परंतु बच्चों को सुयोग्य, संस्कारवान नहीं बनाया। बेटे को वकील, डॉक्टर, अफसर चाहे न बनाते अपितु संस्कारवान बना लेते तो वह वसुंधरा स्वर्ग बन गई होती। इस लोभ-मोह ने हमारे परिवारों को चौपट कर दिया है। दूसरे आचमन से लोभ और मोह का निवारण करने की भावना करते हैं।

तीसरा आचमन कारण शरीर के लिए है। कारण शरीर में भी तो बीमारी है—अविवेक और अनास्था की। ‘कर्मफल’ की सुनिश्चितता पर विश्वास नहीं है तभी तो लोग बिना किसी भय के, निर्लज्जता से पापकर्मों में लिप्त रहते हैं। धर्म पर विश्वास करते हैं, पूजा पाठ करते हैं, पर आत्मा की बात को मानते नहीं हैं। अविवेक के कारण उचित-अनुचित के ज्ञान का अभाव हो गया है। परमात्मा सर्वत्र है, उसकी दृष्टि हर समय हम पर रहती है, यदि ऐसा विश्वास हो तो फिर गलत काम कोई कैसे करेगा। तीसरा आचमन करते समय हम यही भावना करते हैं कि हमारे अंतर्मन में विवेक तथा आस्था का उदय हो रहा है। अपने भव रोगों को दूर करने के लिए हम औषधि का पान कर रहे हैं।’’






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