प्रातःकाल आंख खुलते ही ‘आत्मबोध’ की साधना प्रारंभ होती है। जागते ही पालथी मारकर बिस्तर पर बैठ जाएं तथा यह दिन एक नए जन्म की तरह मानकर भगवान से प्रार्थना करें कि हे सर्वशक्तिमान भगवन् हमें ऐसी शक्ति देना जिससे हम सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन को सार्थक कर सकें। यह जीवन 84 लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद भगवान ने हमें उपहार स्वरूप प्रदान किया है। जागरण के साथ ही चिंतन के आधार पर इस जीवन के उद्देश्य, स्वरूप और उपयोग को समझें तथा उसी के अनुसार अपनी गतिविधियां निर्धारित करें। हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत का सूत्र ही आत्मबोध तथा तत्वबोध की साधना है। व्यवहारिक जीवन को प्रभावित करने वाली यही उच्चस्तरीय साधना है। यह भाव सूत्र आत्मिक प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने में सहायक है। इसका अवलंबन, आत्मचिंतन, आत्मशोधन, आत्मनिर्माण व आत्म विकास के चारों चरणों की पूर्ति के लिए अतीव महत्वपूर्ण है।
रात्रि सोते समय की साधना को तत्वबोध के नाम से जानते हैं। सोते समय यह विचार करना चाहिए कि नींद एक प्रकार की मृत्यु है। जो नया जन्म सुबह उठते समय परमेश्वर की अनुकंपा से हमें प्राप्त हुआ था वह पूर्ण हो रहा है। उस नए जन्म की, नए जीवन की, पूरे दिन की गतिविधियों की आत्म समीक्षा सोते समय करनी चाहिए। दिनभर के कार्यों का मूल्यांकन करें कि निद्रा रूपी मृत्यु की गोद में निश्चिंत होकर जा रहे हैं। जिस ध्येय से यह मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ था उसकी पूर्ति में पूरी निष्ठा से कार्य किया है। इस प्रकार आत्मसंतोष से परिपूर्ण, शांतचित्त से गहरी नींद में सो सकेंगे। न तो करवटें बदलने की जरूरत पड़ेगी और न नींद की गोलियों की।
इस प्रकार स्वयं ही प्रतिदिन अपना जन्म और अपनी मृत्यु के दृश्य की भावनापरक कल्पना करते रहने से आत्मज्ञान का निश्चय ही उदय होता है। अभ्यास के साथ जब यह भावना गहरी होती जाती है तो यह आसानी से समझ में आने लगता है कि मनुष्य जीवन ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ अनुदान है और उसके सदुपयोग की दिशा में कुछ विशिष्ट कार्य करने की आस्था जागृत होती है। यही तो ज्ञानयोग की साधना है। इसके लिए किसी भी अतिरिक्त समय की आवश्यकता कहां है। सुबह जो समय बिस्तर में आलस्य में बिना देते हैं वह भी इसकी आवश्यकता से कहीं अधिक है। रात को तो बिस्तर पर लेट कर आंख बंद करने के बाद नींद आने तक का समय ही पर्याप्त है।