कर्मयोग में पूजा-अर्चना का पूरा कर्मकांड है। तुम्हें कई बार विस्तार से समझा चुके हैं और तुम प्रतिदिन करते भी हो। प्रत्येक मनुष्य को इन्हें पूर्ण विधि-विधान से, सच्चे मन से करना ही चाहिए। यदि समय की कमी हो तो सप्ताह में एक दिन तो करें ही। इसमें परेशानी हो तो महीने में एक बार ही करें। वैसे प्रतिदिन अपनी सुविधानुसार योजना बनाकर भावना से भी कर्मयोग की साधना कर सकते हैं। अलग से समय नहीं चाहिए। सुबह स्नान करके, कपड़े पहनते हुए, कार्य के लिए जाते समय मार्ग में, बस में, ट्रेन में, जहां भी अवसर मिले, आंख बंद करना संभव हो तो आंख बंद करके, भावना करें कि आप कर्मकांड कर रहे हैं।
उपासना स्थल को जैसे साफ करते हैं, पवित्र करते हैं वैसे ही भावना करें कि हमारा जीवन शुद्ध पवित्र होगा, हमारी आजीविका पवित्र होगी, हमारा आचरण, मन, वचन, वाणी सभी पवित्र होंगे, तभी तो यह मनुष्य जीवन सार्थक होगा। मलिनता से देव पूजन में बाधा आती है तभी तो पवित्रीकरण करते हैं। हम अपने जीवन में अंदर-बाहर सर्वत्र पवित्रता की भावना जाग्रत करें। कर्मकांड में जो षट्कर्म हम करते हैं वह आत्मशोधन के लिए ही तो हैं। क्रिया के पीछे भावना के समावेश से ही जीवन की रीति-नीति निर्धारित होती है। यदि भावना ही नहीं है तो फिर सारे दिन बैठकर कर्मकांड करते रहना भी मात्र ढकोसला ही तो है। हमें हर समय अपने चिंतन, चरित्र और व्यवहार में पवित्रता की भावना करनी चाहिए। आचमन, मन, वाणी और अंतःकरण की शुद्धि के लिए करते हैं। शिखा वंदन अपनी संस्कृति की गरिमा को याद करके सद्विचारों की स्थापना की भावना से करते हैं। प्राणायाम द्वारा हर सांस को ध्यान में रखकर जीवन-लक्ष्य को न भुलाने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए हमारी कर्मेंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां श्रेष्ठ हों और जीवन को ऊंचा उठाने में सहायक बनें, यही न्यास की भावना होनी चाहिए।
इस प्रकार भावना पूर्वक षट्कर्म करने के उपरांत देवपूजन का क्रम आता है। देवता तो सर्वत्र व्याप्त हैं, घट-घटवासी हैं। मन ही मन उनका आवाहन, ध्यान, पूजन करने से हम अपने अंतःकरण में देव शक्तियों को जाग्रत करके स्थापित करते हैं। गायत्री माता का चित्र चौकी पर स्थापित करते हैं।
देव पूजन में जल, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य प्रतीक के रूप में चढ़ाया जाता है। भगवान तो निराकार ही है परंतु साकार रूप में हम प्रतीकात्मक पूजन करते हैं। जैसे स्थूल से ही सूक्ष्म की ओर बढ़ सकते हैं, वैसे ही साकार से निराकार में निष्ठा जागृत होती है। स्मरण कराने के लिए साकार उपासना का प्रारंभिक चरण बड़ा ही प्रभावी होता है। फिर तो कल्पना में ही सब कुछ संभव हो जाता है। जल की तरह निर्मलता, विनम्रता, शीतलता, फूल की तरह हंसता-हंसाता जीवन, अक्षत की तरह अटूट निष्ठा, नैवेद्य की तरह मिठास-मधुरता से युक्त व्यक्तित्व, दीपक की तरह स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देने वाला आचरण-यही सब देव पूजन की मूल भावना है।