देवपूजन के बाद जप एवं ध्यान का विधान है। तीन माला गायत्री जप तो आवश्यक रूप से करना ही चाहिए। एक माला जीवात्मा के लिए, दूसरी माला वातावरण संशोधन के लिए समाज निर्माण के लिए और तीसरी माला मिशन के कार्यों की सफलता के लिए, संसार में सद्विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए। आज संसार में हर ओर विचार प्रदूषण की बाढ़ है। ऐसे विचारों की काट सद्विचारों से ही हो सकती है। मनुष्य के जैसे विचार होते हैं, उसके मन से वैसी ही सूक्ष्म तरंगें आंतरिक वातावरण में प्रवाहित होती रहती हैं और जाने-अनजाने हमारे मन-मस्तिष्क को प्रभावित करती रहती हैं। संसार में व्याप्त कुविचारों को नष्ट करने के लिए हममें से हर एक का यह कर्तव्य है कि सद्विचारों की तरंगों से उनको काटते रहें। यही जप व ध्यान का उद्देश्य है।
यदि समय की कमी लगती है तो कहीं भी, कभी भी मौन, मानसिक जप करते रहें। जैसा तुम्हें अभी बताया था रास्ते में आते-जाते, बस में, ट्रेन में जब भी समय मिले और जब भी मस्तिष्क किसी अन्य रचनात्मक कार्य में व्यस्त न हो तो इसी प्रकार मौन जाप करें। धीरे-धीरे इसका अभ्यास हो जायेगा तो कुविचार मन में घुस ही न पाएंगे। स्वतः ही जाप व ध्यान का क्रम बनता रहेगा। जप इस प्रकार होना चाहिए कि होठ, कंठ, मुख हिलते रहें और आवाज इतनी धीमी हो कि पास बैठा व्यक्ति भी यह न जान सके कि आप क्या कर रहे हैं। जप के साथ-साथ ही ध्यान का भी सम्मिश्रण होना चाहिए। दोनों प्रक्रिया एक साथ चलती हैं।
प्रातःकाल उदीयमान स्वर्णित सूर्य (सविता) का ध्यान करना चाहिए। गायत्री मंत्र का देवता सविता ही है। यह उपासना सार्वभौमिक बनाने के लिए सविता का ध्यान आवश्यक है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी सभी भगवान को प्रकाश रूप में मानते हैं। गायत्री माता भी सबके लिए है। यद्यपि कुछ लोग उसे केवल हिंदुओं का कह सकते हैं परंतु सूर्य तो सभी के लिए है, सारे विश्व का है। वह सभी को प्रकाश व ऊर्जा देता है।
ध्यान करते समय भावना करनी चाहिए कि सविता की स्वर्णिम किरणें शरीर, मन और हृदय में प्रवेश कर रही हैं। शरीर बल, आत्मबल, मनोबल बढ़ रहा है। श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के रूप में ईश्वर के अनुदान-वरदान की हमारे सतत वर्षा हो रही है। जाप एवं ध्यान के सम्मिश्रण से चित्त एकाग्र हो जाता है।
इसके बाद पूजा-वेदी पर रखे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य के रूप में चढ़ाने का विधान है। भावना इस प्रकार करें कि हमारे पास जो भी प्रतिभा, क्षमता, साधन, संपदा है वह सब इस संसार को ही भगवान का विराट रूप मानकर परोपकारार्थ समर्पित करते चलेंगे। दूसरों के दुःखों को बंटाएंगे और अपने सुख को बांटेंगे। वैसे आजकल हो इसका उल्टा रहा है। अधिकतर लोग इसलिए दुःखी हैं कि दूसरा सुखी क्यों है। इस भावना का दमन करते हुए मन में परोपकार की भावना को जागृत करना ही सूर्य को अर्घ्य चढ़ाना है।