गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

आराधना

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पूज्यवर ने आगे बताया ‘‘तीसरी धारा है आराधना, यही सरस्वती है। गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम से ही त्रिवेणी बनती है। ऐसे ही उपासना, साधना और आराधना तीनों का संगम आवश्यक है। तभी जीवन सफल होता है। आराधना कहते हैं समाज सेवा को। भगवान कृष्ण ने यशोदा माता को अपना विराट स्वरूप विश्व ब्रह्मांड में दिखाकर यह बोध कराया था कि यह संसार मेरा ही रूप है। भगवान राम ने कौशल्या तथा काकभुसंडि को विराट स्वरूप दिखाया था कि कण-कण में मेरी ही सत्ता समाई हुई है। भगवान की सच्ची पूजा-आराधना इस समाज की सेवा करना ही है। भगवान राम ने भी समाज की सेवा की। असुरों का नाश कर धरा को दुष्टों से मुक्ति दिलाई। रावण, कुंभकरण जैसे राक्षसों को मारा और प्रजा को सुखी बनाने के लिए अभिनव समाज की रचना की। भगवान राम ने तो ऋषि मुनियों की हड्डियों के ढेर देखकर ही संकल्प ले लिया था-‘निसिचर हीन करौं महि।’ पृथ्वी को असुरता से मुक्त कराने के इस संकल्प से ही रामराज्य की स्थापना हुई। उसी रामराज्य के लिए आज हम तरस रहे हैं। भगवान बुद्ध, गांधी, विवेकानंद सभी ने समाज की भरपूर सेवा की। बुद्ध ने भिक्षुओं का, गांधी ने स्वतंत्रता सेनानियों का, राम ने रीछ वानरों का, कृष्ण ने ग्वाल बालों का संगठन बना कर समाज की सेवा की। भगवान बुद्ध ने तो यहां तक कहा था कि हम तब तक मुक्ति नहीं चाहेंगे जब तक कि एक भी प्राणी बिना मुक्ति के इस धरती पर हो। जनता जनार्दन की सेवा, लोकमंगल की कामना ही समाज सेवा है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर को 450 रुपये मासिक वेतन मिलता था। वे केवल पचास रुपये अपने खर्च में लेते थे। शेष चार सौ रुपये परोपकार के कार्यों में लगाते थे। यही सच्ची आराधना है।

द्रौपदी का उदाहरण देते हुए गुरुदेव ने बताया कि एक बार यमुना स्नान को गईं तो वहां देखा कि नदी किनारे एक बाबा बैठे हैं। द्रौपदी ने पूछा ‘‘बाबा क्यों बैठे हो?’ बाबा ने उत्तर दिया ‘बेटी! मेरी लंगोटी पानी में बह गई है।’ द्रौपदी ने तुरंत कहा ‘बाबा आप तो मेरे पिता तुल्य हैं, और यह कहते हुए अपनी साड़ी का एक हिस्सा फाड़कर उन्हें दे दिया। यही सेवा की, त्याग की, दान की भावना थी जो भगवान के खाते में चढ़ गई। जब दुःशासन चीर हरण कर रहा था तो भगवान ने सैकड़ों गुना साड़ी बढ़ा दी थी। यह सब आराधना का ही चमत्कार था।

गुरुदेव ने बगदाद की एक मुस्लिम बुढ़िया का उदाहरण भी सुनाया। वह बुढ़िया हज पर जाने की तैयारी कर चुकी थी। पर उस वर्ष भारी अकाल पड़ा था। उसने सोचा इस वक्त मेरा पहला कर्तव्य भूखों की सेवा करने का है, हज पर तो बाद में भी जा सकती हूं। उसने अकाल पीड़ितों की सहायता को पहला कर्त्तव्य माना और सेवा कार्य में जुट गई। कहा जाता है कि खुदा ने उसी दिन इस बुढ़िया की हज मंजूर कर ली। इस पर फरिश्तों ने एतराज किया कि जिन्होंने मक्का तक की यात्रा की उनकी हज तो मंजूर नहीं की फिर इस बुढ़िया की कैसे कर ली। इस पर खुदा ने कहा ‘‘और लोगों ने तो केवल रास्ता ही नापा है पर बुढ़िया ने मेरी सच्ची सेवा की है। हज के सिद्धांत को उसी ने समझा और किया है।’’

उपासना, साधना और आराधना तीनों को ही भुलाकर हम पक पाए की खाट लेकर खड़े हैं। इससे काम कैसे चलेगा। केवल मंत्र जपने से तभी तो कुछ लाभ नहीं होता। आज समाज में कितनी कुरीतियां हैं। दहेज का दानव किस तरह हावी हो रहा है। सैकड़ों बेटियां मौत के मुंह में जा रही हैं। बाल विवाह के नाम पर कितनी छोटी कन्याओं पर गृहस्थ का बोझ डालकर उनके शारीरिक और मानसिक विकास तथा प्रगति के साथ खिलवाड़ हो रहा है। अशिक्षा, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति आदि समस्याएं छोटी नहीं हैं। इनसे देश-समाज खोखला हो रहा है। जातिवाद, भाषावाद, प्रांतवाद, संप्रदायवाद की समस्याएं हैं। मृतक भोज की परंपरा कितनी घातक है। जो घर शोक के वातावरण में डूबा हो वहां कमर तोड़ महंगाई के इस जमाने में दावतों की यह परंपरा कितनी क्रूर है। नशाखोरी बढ़ रही है। समाज में पश्चिमी सभ्यता के धब्बे लग रहे हैं। हमारी संस्कृति रूपी सीता का हरण हो गया है।

आज के समय में आराधना के लिए इन सब समस्याओं के निराकरण के लिए युग की पुकार सुनकर आगे आना होगा। अपनी क्षमता, साधना, समय व प्रतिभा को नियोजित करना होगा। तभी सच्ची सेवा होगी। त्रिपदा गायत्री की यही भक्ति है। यदि इतना कर लिया तो समझो कि अध्यात्म की सही परिभाषा जान ली।






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