गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

आस्था संकट

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साधना की इतनी सरल एवं सटीक व्याख्या को समझाकर हमने अपने जीवन में इसका समावेश करने का संकल्प लिया। परंतु मन तो चंचल भी होता है और तर्कशील भी। उसकी जिज्ञासा पूर्णतः शांत कहां हो पाई थी। अंततः एक दिन समय पाकर हमने पूछ ही लिया ‘‘गुरुदेव! आजकल लोग अनेक देवी देवताओं की पूजा किया करते हैं। हमें किसी उपासना करनी चाहिए और क्यों? कृपया समझावें।’’

पूज्यवर ने हंसते हुए कहा, ‘‘बेटा! यह तो हम तुम्हें कई बार समझा चुके हैं। ईश्वर तो सबका एक ही है। हिंदू ही क्यों। मुसलमान, ईसाई, पारसी, संसार का कोई भी धर्म, मत-मतांतर मानने वाला उसे चाहे जिस नाम से पुकारे। ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति, ईश्वर तो एक ही है लोग उसे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। उस परमेश्वर की उपासना मनीषियों द्वारा परिस्थिति के आधार पर समयानुसार प्रचलित की गई है। अवतार भी इसी के अनुरूप समयानुसार जन्म लेते रहे हैं। बेटा इस समय तो सबसे बड़ा संकट ‘आस्था संकट’ है। आदर्शवादिता समाप्त होती जा रही है। यदि चिंतन, चरित्र, व्यवहार से व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाए तो वह पशु स्तर से भी निम्न कोटि का होता जा रहा है। मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना ही इस समय की महती आवश्यकता है।

इस समय धन की कमी है नहीं, भुखमरी है नहीं, बुद्धि की कमी भी नहीं है। कमी है तो केवल सद्बुद्धि की। इसी से चारों और त्राहि-त्राहि मची है। इसी कारण आज की परिस्थिति के अनुरूप ‘महाप्रज्ञा’ का अवतार दूरदर्शिता, विवेकशीलता के रूप में हुआ है। उपासना में इसी का समावेश करना चाहिए।

इसी महाप्रज्ञा गायत्री का तप करके ब्रह्माजी ने सृष्टि रचना जैसा कठिन कार्य संपन्न किया था। अब इसका अवतरण सद्बुद्धि के रूप में हो रहा है। रावण रूपी असुरत्व को समाप्त करने के लिए ऋषियों ने अपना रक्त संचित कर एक घड़े में रखकर खेत में गाड़ दिया था। वही घड़ा जनक जी को खेत में हल चलाते समय प्राप्त हुआ था। जब राक्षसों का उत्पात इतना बढ़ गया कि वे ऋषि-मुनियों तक को समाप्त कर देना चाहते थे, तब सभी देवता प्रजापति ब्रह्माजी के पास गए और आराधना करने लगे कि कोई उपाय बताइए जिससे असुरों को समाप्त किया जा सके। ब्रह्माजी ने कहा कि सभी देवता अपनी शक्ति एकत्रित करें। इससे जो महाशक्ति का अवतरण होगा वही दैत्यों का विनाश करेगी। यह तो सर्वविदित है कि इसी महान सहकार से शक्ति स्वरूपा दुर्गा का अवतरण हुआ था और उसी ने असुरों का नाश किया था।

आज का संकट, आज की समस्याएं अलग प्रकार की हैं। सींग-पूंछ के राक्षस तो कहीं नहीं हैं। (पहले भी नहीं थे, ये तो केवल उनके आसुरी, पशु-तुल्य गुणों की अभिव्यक्ति करने के निमित्त दर्शाये जाते थे) परंतु राक्षसी वृत्तियां लोगों के मन में गहरी जड़ें जमाए हैं। इन वृत्तियों को भस्मसात तभी किया जा सकेगा जब अंतःकरण में सद्बुद्धि का प्रवेश हो। यही आज का ‘आस्था संकट’ है। इसकी निवृत्ति के लिए हमने अनेकानेक उपाय सुझाए हैं। अपनी रचनाओं पुस्तकों द्वारा हम सदा इस दिशा में जन साधारण का मार्गदर्शन करते आए हैं। एक बार तुम इन्हें पुनः पढ़ जाओ। एक बात तुम्हें बताए देता हूं कि साधारण कार्यक्रम में हमने ‘प्रज्ञायोग’ साधना पर ही बल दिया है। यही सर्वसुलभ, सर्वोपयोगी तथा अनेक प्रतिफल प्रस्तुत करने वाली साधना है। इसमें ज्ञान, कर्म, भक्ति तीनों का ही समावेश है।







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