गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

तपस्या

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तपस्या जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक है। सच पूछो तो मनुष्य का जीवन ही तप है। सूर्य तपता है तभी प्रकाश व ऊर्जा की वर्षा करता है। पानी तपता है तो भाप बनता है और बड़े-बड़े इंजन व मशीनों को चलाता है। लोहा तपता है तो फौलाद (स्टील) बन जाता है। तप के बल पर ही यह सृष्टि चल रही है। ब्रह्माजी तप करने पर ही सृष्टि की रचना कर सके थे। भागीरथ ने तप किया तो सुरसरि गंगा को स्वर्ग से धरित्री पर ले आए। तप तो जीवन का आवश्यक अंग है। तप के लिए सप्ताह में एक दिन का अस्वाद व्रत करें। नमक और चीनी दोनों ही बीमारियों को जन्म देती हैं। एक दिन को दोनों का त्याग कर दें। जीभ पर काबू हो जाए तो सभी इंद्रियां संयमित हो जाती हैं, नियंत्रित हो जाती हैं। अतः रविवार या गुरुवार या किसी भी निश्चित दिन ‘अस्वाद व्रत’ रखें। इससे शारीरिक लाभ तो है ही, मानसिक व अध्यात्मिक लाभ भी है। तप में उपवास (व्रत) के साथ मौन साधना भी करनी चाहिए। जहां तक संभव हो मौन रहें। बोलना सभ्यता की पहिचान है, प्रतिदिन की आवश्यकता है, पर एक-एक शब्द सोचकर बोलना चाहिए। मधुरभाषी, मितभाषी बनना चाहिए। सुबह शाम दो घंटे मौन का अभ्यास करें। यह साधना साधक को अंतरमुखी बनाती है। हम स्वयं एकांत में रहकर मौन का अभ्यास करते हैं। ब्रह्मचर्य को जीवन की मूल आवश्यकता समझें। ब्रह्मचर्य से ही शंकराचार्य, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद आदि ने अद्भुत एवं अद्वितीय कार्य कर दिखाए। हनुमान जी तो समुद्र लांघकर लंका तक जा पहुंचे थे। लोगों में यह बड़ा भारी भ्रम है कि गृहस्थ जीवन और ब्रह्मचर्य एक दूसरे के विरोधी हैं जबकि सत्य तो यह है कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। हमारा चिंतन स्वस्थ होना चाहिए। काम वासना के विचार आएं तो हनुमान, अर्जुन, शिवाजी, विवेकानंद का ध्यान करें। उन जैसे महापुरुषों के प्रसंग याद करें। ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है ब्रह्मा का सा आचरण। आवश्यकता होने पर सृष्टि रचना करें और शेष दूसरों की भलाई के, परोपकार के कार्यों द्वारा परिवार के, समाज के और सारे संसार के उत्थान हेतु अपनी प्रतिभा व क्षमता का उपयोग करें।





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