गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

पवित्रीकरण क्यों और कैसे?

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


गुरुदेव तो अधिकतर ध्यान में ही रहते थे। तपोभूमि में आने वाले अतिथियों और यात्रियों से तो हमें ही निपटना होता था, उनकी शंकाओं का समाधान करना होता था। तर्कशील व्यक्ति को संतुष्ट करने में कभी-कभी बड़ी कठिनाई होती थी। इसी से एक दिन हमने पूज्य गुरुदेव से प्रश्न किया ‘‘गुरुदेव! पवित्रीकरण सर्वप्रथम क्यों करते हैं? क्या जल हथेली में लेकर मंत्र पढ़कर छिड़क लेने मात्र से हम पवित्र हो जाते हैं? फिर हम तो पहले ही नहा धोकर साफ धुले वस्त्र पहनकर बैठते हैं।’’

इस पर गुरुजी पहले तो खूब हंसे फिर बाद में बोले, ‘‘बेटा ! क्रिया के साथ भावना भी आवश्यक है। मात्र स्थूल उपचार से कुछ होता नहीं। अध्यात्म को गहराई में घुसकर जानना होता है। मोती समुद्र में भीतर ही मिलते हैं, ऊपर तो कंकण पत्थर ही हाथ आते हैं। केवल जप से जीभ हिलाने से फायदा हैं नहीं। भावना के बिना जप बेकार होता है। मंत्र के साथ यह भावना करनी चाहिए कि चारों तरफ से पवित्रता की वर्षा हो रही है जो हमारी अपवित्रता को, मलिनता को धो रही है। धरती गर्मी के दिनों में तपने लगती है परन्तु जब बरसात होती है तो चारों ओर हरियाली, शीतलता छा जाती है। पवित्रीकरण के साथ भी ऐसी ही भावना करनी चाहिए कि आध्यात्मिकता की वर्षा से शरीर के ताप निकल रहे हैं, दूर हो रहे हैं। शांति की, करुणा की, संवेदना की, पवित्रता की फुहारें पड़ रही हैं, मन शुद्ध और पवित्र हो रहा है। परन्तु आजकल तो लोग भावना यह करते हैं कि हमारी भैंस दूध कम क्यों दे रही है? हमें भगवान ने बेटा क्यों नहीं दिया? धन सम्पत्ति क्यों नहीं दी ? इस प्रकार की मनौतियों का क्रम चल पड़ा है।

क्रिया तो केवल संकेत है, इशारा है, प्रतीक है। जिस प्रकार रेलगाड़ी को गार्ड लाल झंडी दिखाते हैं तो गाड़ी रुक जाती है, हरी झंडी दिखाते हैं तो चल पड़ती है। भावना का ही दूसरा नाम ‘देवता’ है। शंकर भगवान् कैलाश पर्वत पर ढूंढ़ने से मिलने वाले नहीं हैं। मीरा ने तो भावना से ही पत्थर की मूर्ति में भगवान कृष्ण के साक्षात दर्शन कर लिए थे। एकलव्य ने भावना से, श्रद्धा से गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उससे ही धनुर्विद्या सीख ली थी। उत्कृष्ट भावनाएं ही देवता बनकर हमारी सहायता को आती हैं। वे भावनाएं ही तो थीं जिनके बल पर भगवान् स्वयं नंदा नाई की जगह पैर दबाने चले गए थे, सुदामा के चरण धोकर पी गए थे, शबरी के घर जूठे बेर खाने पहुंच गए थे। भगवान को चापलूसी नहीं श्रेष्ठ कार्य ही पसंद होते हैं। शरीर और मन की पवित्रता, शुद्धता से ही भगवान का अवतरण होता है। पवित्र आचरण करना चाहिए।

ऐसी भावना और आचरण से जब पवित्रीकरण की क्रिया होगी तो शरीर और अंत:करण की धुलाई होगी। हमें इसी भावना से शरीर-मन-अंतःकरण को पवित्र करना चाहिए।’’







<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118