गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

उपासना

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उपासना पास बैठने को कहते हैं, उप-आसन

जिस प्रकार आग के पास लकड़ी बैठती है तो वह आग बन जाती है। भगवान के पास बैठने से उसी के अनुरूप गुण, कर्म और स्वभाव बनाना पड़ता है, भगवान के अनुशासन पर चलना पड़ता है। समर्पण करना पड़ता है। जिस प्रकार कठपुतली बाजीगर के इशारे पर नाचती है, उसी प्रकार का समर्पण करना पड़ता है भगवान के प्रति। पत्नी जब पति को समर्पण कर देती है तो उसकी अर्धांगिनी कहलाती है, घर की मालकिन बन जाती है, पति की संपूर्ण जायदाद की हकदार हो जाती है। यह है समर्पण का परिणाम। आज तो लोग उल्टे भगवान को ही अपने इशारे पर नचाना चाहते हैं, जबकि स्वयं भगवान के इशारे पर नाचना चाहिए। पानी की एक बूंद जब समुद्र को समर्पण कर देती है तो वह समुद्र कहलाती है। भक्त और भगवान के बीच ऐसे ही अजीब रिश्ते हैं। गंदा नाला भी जब गंगाजी में मिल जाता है तो वह भी गंगा के समान ही पवित्र हो जाता है। सच्चे समर्पण से भक्त भगवान के बराबर हो जाता है। भगवान से बड़ा भी हो जाता है। एक बड़े ही मार्मिक उदाहरण से पूज्यवर ने समझाया कि भक्त भगवान से भी बड़ा कैसे हो जाता है।

एक बार नारदजी पृथ्वी लोक पर आए। रास्ते में एक किसान की कुटिया में ठहर गए। किसान ने नारदजी की सेवा की। सुबह जब नारदजी चलने लगे तो किसान ने कहा ‘कहां जा रहे हो?’ नारदजी बोले ‘विष्णु भगवान के पास जा रहा हूं’। किसान ने उनसे अनुनय विनय की हमारे कोई संतान नहीं है, आप विष्णु भगवान से हमारे लिए प्रार्थना करना। नारदजी सीधे विष्णुजी के पास गए और सबसे पहले उस किसान की बात सुनाकर उसको संतान देने का अनुरोध किया। भगवान बोले ‘उस किसान के भाग्य में इस जन्म में तो क्या, अगले सात जन्मों में भी संतान का विधान नहीं है।’

कुछ दिनों बाद उसी किसान के घर के पास एक साधु आया और कहने लगा कोई रोटी खिला दे, उसे एक बच्चा दूंगा। किसान ने कहा ‘महाराज आप मेरे घर पधारिए। एक नहीं जितनी भी रोटियां आप खाना चाहें मैं खिलाऊंगा।’ साधु ने कहा ‘हम तो केवल दो ही रोटियां खाते हैं।’ वह साधु दो रोटी खाकर और किसान परिवार को आशीर्वाद दे कर चला गया। समयानुसार उस किसान के घर दो बच्चों का जन्म हुआ। सात-आठ वर्ष बाद नारदजी पुनः उसी गांव में पहुंचे तो उस किसान के घर दोनों बच्चों को खेलते देखा। नारद जी ने पूछा कि ये किसके बच्चे हैं? किसान ने बड़े ही विनीत भाव से कहा ‘मुनिवर ये हमारे ही पुत्र हैं।’ नारदजी ने सोचा कि जब भगवान विष्णु ने यह कहा था कि इस किसान को तो सात जन्मों तक भी संतान का सुयोग्य नहीं है फिर यह सब कैसे हुआ। वह तुरंत विष्णु लोक को चल दिए। विष्णु भगवान से मिलने के लिए नारदजी को कोई रोक-टोक नहीं थी। वे सीधे उनके कक्ष में घुस गए तथा क्रोध एवं क्षोभ भरी वाणी में बोले ‘भगवन्! आपने मुझसे झूठ बोला है। आपने कहा था कि उस किसान के भाग्य में सात जन्म तक बच्चे नहीं हैं फिर उसे आपने दो संतान कैसे दे दी?’ भगवान ने मुस्करा कर नारद जी को शांत किया और बोले कि सुबह इसका उत्तर देंगे।

प्रातः बेला में नारदजी को साथ लेकर भगवान विष्णु जंगल में भ्रमण को गए। नारद ने वहां देखा कि एक कुटी से एक महात्मा बाहर निकले। उनकी कुटी के चारों ओर तरह-तरह के फलों से लदे हुए अनेक वृक्ष थे परंतु यह देखकर नारदजी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह साधु महात्मा सूखे पत्ते खा रहे थे। पास जाकर पूछने पर उस साधु ने बताया कि फल तो सब भाई बहनों, बच्चों के लिए हैं। भगवान ने कहा ‘आप कम से कम हरे पत्ते ही क्यों नहीं खा लेते।’ वह साधु बोला ‘हरे पत्ते गाय, भैंस, बकरियों के लिए सुरक्षित हैं। मैं तो इन सूखे पत्तों से ही अपनी क्षुधा शांत कर लेता हूं।’

यह सब देख सुनकर नारदजी हतप्रभ होकर विष्णु भगवान का मुंह ताकते रह गए। तभी कुछ देर में वह साधु अपनी कुटी से एक तलवार निकाल लाया और हवा में इधर-उधर घुमाने लगा। भगवान ने उससे इस व्यवहार का कारण पूछा तो साधु ने कहा ‘‘कहीं मुझे नारद मिल जाता तो इसी तलवार से उसके दो टुकड़े कर देता’’ ‘‘क्यों भाई! नारद ने क्या बिगाड़ा है?’’ भगवान के यह पूछने पर साधु ने बताया ‘‘वह हमेशा गप मारता रहता है।’’ यह देखकर नारदजी ने भगवान को इशारा किया कि चलो भाग चलें।

मार्ग में भगवान ने नारदजी को समझाते हुए कहा वह वही साधु है जिसके आशीर्वाद से उस किसान के घर दो बच्चों का जन्म हुआ था। इसका रोम-रोम हर पल लोक मंगल के कार्य में रत है। उसके आगे अपने खाने पीने की भी इसे कोई चिंता नहीं है। क्या तुम्हें यह साधु मुझ से भी श्रेष्ठ नहीं लगता? तुम्हीं बताओ कि इसका आशीर्वाद फलीभूत होना चाहिए या मेरा विधान? इसकी उपासना उच्च स्तर की है जिसके फलस्वरूप यह मेरे बराबर ही नहीं मुझसे भी उच्च पद का अधिकारी है।

भगवान ऐसे ही भक्तों के वश में होते हैं जो केवल कीर्तन ही नहीं करते वरन् लोक मंगल का कार्य भी करते हैं। जो जैसा करता है वह वैसा ही फल भोगता है। वह भक्त जो सच्चा समर्पण करता है, भगवान उसे बड़ा बना देता है। उसकी बात को भगवान बड़ा कर देता है। सच्ची उपासना करने वाले का भगवान भी हर प्रकार से मान रखते हैं। वे शबरी के घर जाकर उसके जूठे बेर खाते हैं, सुदामा के चरण धोकर पीते हैं, विदुर के घर का साग खाते हैं और राजा बलि के घर भिक्षा मांगने जाते हैं।

गायत्री मंत्र के साथ भी यही बात है। श्रद्धा जितनी होगी उतना ही मंत्र फलित होगा। श्रद्धा के कारण ही तो मीरा के साथ गिरधर नाचते थे। पत्थर से भगवान प्रकट हो गए थे। एकलव्य ने श्रद्धापूर्वक द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति की उपासना की और उसी से धनुर्विद्या में पारंगत हो गया। यह श्रद्धा ही तो थी जिससे रामकृष्ण परमहंस का भोजन ग्रहण करने को मां काली साक्षात आती थीं। रानी रासमणि से किसी ने शिकायत की कि यह रामकृष्ण पुजारी स्वयं ही भोग खा लेता है तो रासमणि ने छुपकर देखना चाहा। भोग रखकर रामकृष्ण ने मां काली को पुकारा परंतु मां प्रकट नहीं हुईं। इस पर रामकृष्ण ने कहा ‘‘मां इसलिए नहीं खा रही है कि उनके बच्चे ने नहीं खाया तो मां पहले कैसे खाएगी।’’ यह कहकर जैसे ही राम कृष्ण ने एक कौर तोड़कर खाया तो मां काली प्रकट हुई और भोजन करने लगीं।

बिना श्रद्धा-भक्ति के सारा कर्मकांड निरर्थक है। पूज्यवर ने पुनः एक दृष्टांत सुनाया। एक शिष्य था जो केवल जल ही औषधि रूप में दे कर लोगों की आधि-व्याधि सब ठीक कर देता था। जब उसकी ख्याति उसके गुरु के पास पहुंची तो वे स्वयं ही शिष्य के पास गए और पूछने लगे ‘तुम्हारे पास कौन सा मंत्र है जिसके अभिमंत्रित जल देने से सब ठीक हो जाते हैं।’ शिष्य ने कहा ‘गुरुदेव मेरे पास ऐसा कोई मंत्र नहीं है, यह सब तो आपके चरणों का ही प्रताप है। गुरुदेव! गुरु पूर्णिमा को आपके चरण धोकर जो जल मैं लाता हूं वही तो सबको देता हूं। सब उसी चरणामृत का चमत्कार है।’ गुरु ने सोचा मेरे चरणों के जल में जब इतना चमत्कार है तब तो मैं ही सबको अपने चरण धोकर जल दिया करूंगा। गुरु घर लौटा और प्रचार करा दिया कि जिसे भी कोई आधि व्याधि हो औषधि ले जाए। लोग आने लगे। शिष्य तो एक चम्मच जल ही पिलाता था, उसके गुरु ने एक एक गिलास पिलाना शुरू कर दिया। पर किसी को कोई फायदा नहीं हुआ। वह पुनः अपने शिष्य के पास गया और इसका कारण पूछा तो शिष्य ने कहा ‘गुरुदेव! हम जो जल देते हैं उसमें श्रद्धा-भावना भरी होती है। आपके पास तो केवल कर्मकांड है। हमारे पास अपना तो कुछ भी नहीं है। हमने अपने आपको खाली कर दिया है। अब इसमें जो कुछ भी है सब आप ही का है।’

पूज्यवर ने यह प्रसंग सुनाकर कहा ‘बेटा! श्रद्धा, समर्पण के साथ की जाए तभी फलीभूत होती है। उपासना के साथ साधना का भी उतना ही महत्व है। उपासना भगवान की करते हैं परंतु साधना स्वयं अपनी की जाती है।






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