गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

तपस्या के चार स्तंभ

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तपस्या के अंतर्गत चार प्रकार के संयम अपनाने पड़ते हैं—अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम और इंद्रिय संयम। ये तपस्या के चार स्तंभ हैं।

अर्थ संयम क्या है?   धन कमाना तो सब जानते हैं परंतु खर्च करना नहीं जानते। एक भिखारी भी काफी धन कमा लेता है और अनेक तो मरते समय अच्छी खासी रकम पेंट में बंधी छोड़ जाते हैं। कोई मेहनत से कमाता है कोई आसानी से कमा लेता है। पर उस धन का सदुपयोग करना भी तो कोई सीखे। बुरे कामों से बचने के लिए अर्थ संयम आवश्यक है। लिप्सा और लालसा तो कभी किसी की पूरी नहीं हो सकती। दुर्व्यसनों की कोई सीमा ही नहीं है। तरह-तरह से मन को फुसलाते व ललचाते हैं। उनसे बचकर ही सुखी जीवन जिया जा सकता है। और उनसे बचने का उपाय अर्थ संयम ही है। ईमानदारी से अधिक से अधिक कमाओ पर उस धन को समाज का धन समझो। जितना धन तुम्हारे पास आता है उतना ही अधिक समाज का ऋण भी तो चढ़ता है। तभी तो कहा है कि सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से लुटाओ। पर कहां लुटाओ? समाज की भलाई में न कि दुर्व्यसनों की, लालसाओं की पूर्ति में। नशेबाजी, जुआखोरी, फैशन परस्ती आदि से बचकर ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धांत अपनाया जावे।

दूसरा है समय संयम।    हर व्यक्ति को काल विभाजन करके काम करना चाहिए। तपस्या का यह मूल सिद्धांत है। आचार्य बिनोवा भावे ने समय का मूल्य पहिचाना, एक-एक क्षण का सदुपयोग किया तो वे विश्व की 14 भाषाओं के ज्ञाता बन गए। वे एक मिनट भी बरबाद नहीं करते थे। जितने भी महापुरुष हुए हैं सभी ने अपनी जिंदगी को घड़ी से नियंत्रित किया है। कहते हैं कि रावण ने तो काल को अपनी पाटी से बांध रखा था। तभी तो उसने सोने की लंका बसा रखी थी। भगवान ने सबके लिए बराबर 24 घंटे समय दिया है। एक-एक क्षण को ठीक प्रकार से उपयोग करो। बेकार के आलस, प्रमाद, गप्पबाजी में समय को बरबाद न करो तो तुम देखोगे कि कितना समय बच जाएगा। उसे अन्य रचनात्मक कार्यों में लगाओ तो तुम्हारी भी उन्नति होगी और समाज का भी भला होगा। श्रेष्ठ जीवन के लिए समय का सदुपयोग भी तप है। हमारे अपने जीवन की भी जो उपलब्धियां हैं वह समय संयम का ही प्रतिफल है।

तीसरा है विचार संयम।      विचार शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। वेद का संदेश है—‘जो जैसा सोचता है और करता है वह वैसा ही बन जाता है।’ जो महान बनने का विचार करेंगे वे एक दिन महान बन ही जाएंगे। जब विचार दृढ़ होगा तो उसके लिए प्रयास भी होगा और आगे चलकर वह फलीभूत भी होगा। जहां विचार ही निकृष्ट होंगे तो प्रयास भी उसी दिशा में होंगे और उनका फल भी निकृष्ट ही होगा। आजकल यही हो रहा है। लोगों के विचार निकृष्ट होते जा रहे हैं। आसुरी प्रवृत्तियां कुविचारों के माया जाल में फंसा रही हैं और व्यक्ति जाने-अनजाने उसमें आकंठ डूबता जा रहा है। इस जंजाल से छूटने के लिए विचार संयम आवश्यक है। सद्चिंतन होना चाहिए और उसके लिए स्वाध्याय का सतत अभ्यास आवश्यक है। इसी से विचारों में परिवर्तन आएगा। मन को कभी खाली न छोड़ो। खाली दिमाग शैतान का घर। जब भी खाली समय हो मन को आत्मचिंतन में लगाओ। कुविचारों को आने मत दो, उन्हें जबरदस्ती निकाल कर बाहर करो। अपने विचारों की दिशाधारा ऊर्ध्वगामी बनाने का सतत प्रयास करते रहो।

तपस्या का चौथा स्तंभ इंद्रिय संयम है।    हमारी पांचों इंद्रियां ईश्वर का अनमोल वरदान हैं। ये हमारी हर प्रकार से सहायता करती हैं और घनिष्ठतम मित्र के समान हैं। साथ ही ये चंचल भी हैं और असंयमित होकर हमारे लिए घोर शत्रु के, आस्तीन के सांप के समान हो जाती हैं। स्वाद और दृष्टि इंद्रियां तो सबसे अधिक चंचल होती हैं। ये हमारे स्वास्थ्य और चरित्र को भ्रष्ट करने का मूल कारण बन जाती हैं। अपनी इंद्रियों का संयम करने पर ही हमारे भीतर प्रसुप्त दिव्य क्षमताएं जाग्रत होती हैं। तभी हम नर से नारायण, मानव से महामानव बनने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। इन इंद्रियों को संयमित करने के लिए व्रत उपवास, मौन इत्यादि अनेक विधान हमने समझाए हैं।

ये चार तप चार खंभों की तरह हैं। इन्हीं पर आत्म विकास का भवन खड़ा होता है। यदि ये खंभे ही कमजोर होंगे तो फिर भवन को तो धराशायी होना ही है। इस प्रकार के तप करने के लिए समय की कमी कहां है। यदि भली प्रकार ये चारों तप किए जाएं तो भी उल्टे हमारे पास फालतू समय बच जाएगा जो कि पहले बेकार के कामों में बर्बाद हो रहा था।

इसी प्रज्ञायोग की साधना वर्तमान समय की महती आवश्यकता है। आजकल की परिस्थितियों के अनुरूप यह शाश्वत साधना सर्वसुलभ एवं सर्वोपयोगी है। उससे आत्मकल्याण और लोक मंगल दोनों ही मार्ग साधे जा सकते हैं। यह समय युग संधि का है। युग संधियां बार-बार नहीं होतीं। शताब्दी का ही नहीं सहस्राब्दी का परिवर्तन होने जा रहा है। युग बदल रहा है। ऐसा समय आया था जब असुरत्व को समाप्त करके रामराज्य की स्थापना रघुकुलनंदन ने की थी। उसी प्रकार कृष्ण भगवान ने महाभारत का सूत्र संचालन करके युग परिवर्तन किया था। बुद्ध भगवान ने समाज में आमूलचूल बदलाव का मार्ग प्रशस्त किया था। हम भाग्यशाली हैं जो ऐसे युग संधिकाल में जन्म मिला है। नवयुग के स्वागत का हमें सुअवसर मिल रहा है। जो समय को पहचानते हैं वे अवसर को चूकेंगे नहीं। यह विशिष्ट समय है। जो जाग्रत हैं उन्हीं को असाधारण लाभ भी मिल सकता है। देव शक्तियां तो हर समय अपने अनुग्रह की, अनुदान-वरदान की उदारता पूर्वक वर्षा करती रहती हैं। परंतु लाभ तो उसी को मिल सकेगा जिसकी मनोभूमि उपजाऊ होगी। अपनी भाव संवेदना जगाकर युग धर्म के निर्वाह में जुट जाएं यही हमारी सुनिश्चित घोषणा है।

गुरुदेव के इतने सारगर्भित विचारों को सुनकर ऐसा लगा मानों सारी शंकाओं का समाधान हो गया। सारा अंधेरा छंट गया। सविता का प्रकाश चारों ओर फैलने लगा। सचमुच महाकाल युग परिवर्तन का मार्ग दिखा रहा है। ‘इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य’ का द्वार खुलने जा रहा है—इस आस्था की पुष्टि हो गई।





संसार की सारी सफलताओं का मूल मंत्र है, प्रबल इच्छा शक्ति। इसी के बल पर विद्या, सम्पत्ति और साधनों का उपार्जन होता है। यही वह आधार है जिस पर आध्यात्मिक तपस्याएं और साधनाएं निर्भर रहती हैं। यही वह दिव्य संबल है जिसे पाकर संसार में खाली हाथ आया मनुष्य वैभव संपन्न एवं ऐश्वर्यवान बन कर संसार को चकित कर देता है। जीवन में उन्नति और सफलता की आकांक्षा करने से पहले अपनी इच्छा शक्ति को प्रबल तथा प्रखर बना लेने वालों को न कभी असफल होना पड़ता है और न निराश।

—श्रीराम शर्मा आचार्य

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