नई सदी की अपेक्षा-विज्ञान भस्मासुर न बने

April 2000

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नई सहस्राब्दी एवं सदी की अपेक्षा यही है कि इनसान ज्यादा समझदार बने और दुनिया को परमाणु बमों कि विनाशकारी खतरे से छुटकारा दिलाए। 6 अगस्त व 1 अगस्त 1245 ई. को हिरोशिमा और नागासाकी में जो कुछ भी हुआ, वह नई सदी में भी भुलाया नहीं जा सकेगा। वहाँ बहे रक्त से इनसानियत का दामन जिस तरह से दागदार हुआ, वह आसानी से धुलने वाला नहीं है। वहाँ उठी पीड़ा-कराहटों एवं सिसकियों की गूंज विश्वनभ में इतने सालों बाद भी थाती नहीं हैं। हालाँकि इन्हें सुन पाना उन्हीं के बूते की बात है, जिनमें मानवीय सोच और समझ हैं।

पहला परमाणु बस अमेरिका के कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे.आर. आपेन हाइमर ने बनाया था। उन्होंने 16 जुलाई 1245 ई. को न्यूमैक्सिको अलमोगार्डो के उत्तरी रेगिस्तान भाग में इसका विस्फोट परमाणु विखंडन की प्रक्रिया से होता है। इसमें संवर्द्धित व समृद्ध प्लेटोनियम का उपयोग किया जाता है। इस विनाशकारी परंपरा के नए हथियार हाइड्रोजन बम की शक्ति 10 मेगाटन की होती हैं। इसके निर्माण में ड्यूटोरियम व ट्राइटियन का उपयोग होता है। यह साधारण परमाणुबम से तीन हजार गुना शक्तिशाली होता है। पहले-पहल इसे अमेरिका ने 1251 ई. में प्राप्त किया। अब तो यह रूस, इंग्लैंड, फ्रांस तथा चीन सहित कुछ अन्य देशों के पास भी हैं।

परमाणु हथियारों की विध्वंसक क्षमता को और आगे बढ़ाया सैमुअल टी. कोहेन ने। जिन्होंने न्यूट्रोन बम की खोज की। इसका विस्फोट उच्चशक्ति वाली लेजर किरणों से किया जाता है। इसका प्रभाव केवल जीवधारियों पर पड़ता है, अन्य भौतिक साधनों-सामग्रियों पर नहीं। इसके विस्फोट का मतलब है, विश्वविनाश का अंतिम एवं सर्वनाशी युद्ध लड़ना। इन नाभिकीय हथियारों को और अधिक घातक एवं प्रहारक बनाने के लिए मिसाइल तथा वारहेड भी बना लिए गए हैं। अमेरिका ने अपनी ‘थियेटर मिसाइल डिफेंस’ योजना के तहत सारे संसार में प्रक्षेपास्त्रों का जाल बिछा दिया हैं। इस जंगी बेड़े में आसमान में उड़ते उपग्रह भी तैनात हैं। इस तकनीक ने समूचे संसार को एक तरह से मिसाइल की नोकों पर लटका दिया हैं।

अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध पत्रिका न्यूजवीक ने अपने एक अंक में विभिन्न देशों में उपलब्ध परमाणु जखीरे का ब्यौरा दिया है। इस विवरण के अनुसार, अमेरिका व रूस के पास विश्व के 15 प्रतिशत नाभिकीय आयुध मौजूद हैं। रूस एवं अमेरिका के पास यदि इस तरह के विभिन्न उपक्रमों की संख्या हजारों में है, तो दूसरे तीन अंकों का सैकड़ा तो रखते ही हैं। उदाहरण के लिए, फ्राँस की परमाणु हथियार भंडारण क्षमता 482 वारहेड, 18 एल.बी.एम., 374 एस.बी.एम. तथा 80 परमाणु बम हैं। ब्रिटेन व चीन की स्थिति भी ‘हम किसी से कम नहीं’ की उक्ति को चरितार्थ करने वाली है। नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार, चीन ने अपने पास 1600 परमाणु बम रखने का दावा किया है। अब तो भारत और उसके शरारती पड़ोसी पाकिस्तान ने भी परमाणु हथियार बना लिए हैं। इनके अलावा ईराक, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, अर्जेन्टीना, लीबिया, अल्जीरिया, उत्तरी कोरिया, जापान, क्यूबा व आस्ट्रेलिया जैसे देशों के पास या तो परमाणु बम हैं या फिर ये बनाने की क्षमता रखते हैं।

परमाणु बम बनाने के प्रयुक्त साधन यूरेनियम एवं प्लेटोनियम भंडारण की क्या स्थिति है ? इसकी रिपोर्ट मोनेटरी इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडी इन कैलीफोर्निया के विलियम पोर्टर नरे तैयार की है। उनके अनुसार रूस के पास एक हजार टन परिष्कृत यूरेनियम तथा 170 टन समृद्ध प्लेटोनियम का विशाल भंडार है। परंतु वहाँ की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाने के कारण इसका रखरखाव ठीक से नहीं हो पा रहा है। परिणामस्वरूप तस्करों की बन आई है। पूर्वी यूरोपीय देशों में 1993 में 53 मामले और 1994 में 124 मामले पकड़े गए। बरामद हुए इन पदार्थों से कई बम बनाए जा सकते हैं।

अमेरिका के पास 21 परमाणु हथियार केंद्र है। इसके संपूर्ण घोषित परमाणु हथियार 4000 से 10,000 मेगावाट के बराबर हैं। हग एवरेट और जी.ई. पग ने इस संबंध में पर्याप्त शोध की है। अपने इस शोध अध्ययन को उन्होंने ‘बायोलॉजिकल इन्वायरन्मेंटल इफेक्ट ऑफ न्यूक्लियर वार’ के नम से प्रकाशित किया है। उनके अनुसार,समूची दुनिया के पास जो सम्मिलित रूप से परमाणु हथियार हैं, उसका यदि मात्र 15 से 20 प्रतिशत का प्रयोग किया जाये तो लगभग दस लाख वर्ग कि.मी. जैसे व्यापक क्षेत्र में भीषण अग्निज्वाला जंगल की आग की भाँति भड़क उठेगी। सारे हथियारों के प्रयोग से तो पृथ्वी को कई बार राख की ढेरी में बदला जा सकता है।

‘प्रोग्रेस आँर कैटास्ट्राफी’ में बेंटेले ग्लास ने भी कुछ इसी तरह से सर्वेक्षण किया है। उनके अनुसार 1500 मेगावाट का विस्फोट 630 लाख व्यक्तियों को मारने की क्षमता रखता है। 10000 मेगाटन के विस्फोट से तो पुराने सोवियत संघ के पूरे क्षेत्रफल के 70 फीसदी लोगों को पूरी तरह से विनष्ट किया जा सकता है। विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि वस्तुतः परमाणु विस्फोट से बचे हुए लोग भी इसके विकिरण के आँशिक असर से मर जाएंगे।

‘एक्शन ऑफ रेडियेशन आँन मेमेलियन सेल्स’ में विज्ञानवेत्ता टी.टी. पक ने आनुवांशिकी पर विकिरण के प्रभाव का विस्तार से उल्लेख किया है। इनके अनुसार, परमाणु विकिरण से न केवल कोशिकाएं बल्कि क्रोमोसोम्स भी क्ष्ज्ञत-विक्षत हो जाते हैं। वाशिंगटन के ‘जेनेटिक कमेटी ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस’ ने परमाणु विकिरण के आनुवंशिक प्रभाव को तीन प्रकार से बताया है, क्रोमोसोम्स का टूटना, टूटे भाग का नष्ट हो जाना तथा जीन म्यूटेशन। इसे जे.जी. कार्लसन, एम.ए. बैडर, एन.पी. डुबीनीन तथा जे.पी. ब्रावन जैसे वैज्ञानिकों ने भी प्रमाणित किया है। इनके अनुसार, परमाणु विकिरण से जो जेनेटिक प्रभाव होते हैं, उससे भावी पीढ़ी का विकलाँग होना सुनिश्चित है।

विस्फोट से निकले आयोडीन-131 की घातक अवधि एक माह तक रहती है। इसके विकिरण से थाइराइड ग्लैंड की प्रत्येक कोशिका नष्ट हो जाती है। स्ट्राँशियम-89 अपना विषाक्त प्रभाव 53 दिनों तक बनाए रखता है। इससे निकली बीटा किरणें अस्थि कोशिकाओं एवं मज्जा को विनष्ट कर डालती हैं। कैसियस-137 की प्रभावी आयु 30 वर्षों तक होती है। इससे बीटा तथा गामा किरणें विकसित होती हैं, जो प्रजनतंत्र पर बुरा असर डालती है। कार्बन-14 तो हजारों साल तक अपना प्रभाव बनाए रखता है। इसका प्रभाव जीन को म्यूटे कर देता है, जिससे भावी संतान विकलाँग हो जाती है। यूरेनियम-38, रेडियम-26 एवं पोटेशियम-40 आदि रेडियोएक्टिव तत्वों का विषाक्त अंश भी हजारों साल तक बना रहता है। इसकी वजह से फेफड़े, गुरदे, आँख तथा स्नायुसंस्थान में असाध्य बीमारियाँ फैलती है।

डीन जोनाथन ने परमाणु विस्फोट से पैदा होने वाले वीभत्स दृश्य के बारे में कुछ इस तरह से कहा है- “जब अस्पताल, पानी, बिजली, परिवहन, उत्पादन तथा व्यापार समाप्त हो जाएगा और सर्वत्र सड़ी-जली लाशों की दुर्गंध फैल रही होगी, तो कौन-सा व्यक्ति या कौन-सा समाज उस रौरव नरक के बीच जीना चाहेगा।”

परमाणु युद्ध से उत्पन्न होने वाले पर्यावरण संकट का शब्दचित्र विश्वविख्यात अमेरिकन विज्ञानवेत्ता कार्लसाँगा ने खींचा है। उनके अनुसार, भौगोलिक एवं जैवीय संपदा में रासायनिक जहर घुल जाने से रक्ताल्पता, पीलिया, मूर्छा आदि बीमारियाँ सामान्य हो जाएंगी। यह नाभिकीय शीत ऋतु महाप्राण निराला की शत ऋतु की सर्पिणी की भाँति हिंस्र हो उठेगी। करोड़ों टन धुएं और धूल के काले बादल वातावरण पर काली परत चढ़ा देंगे। पृथ्वी के तापमान में 40 से 50 डिग्री की जोरदार गिरावट आएगी। नाभिकीय शीत ऋतु का एक मॉडल 1983 में रिचर्ड टुर्को, ओवेन टून, थामस एकरमेन, जेम्स पोलैंड आँर कार्ल साँगा ने तैयार किया था। इसे टेप्स मॉडल के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार तब पुराणोक्त रौरव नकर साकार हो उठेगा। इसमें बचे रहेंगे, तो सिर्फ काक्रोच या तिलचट्टे। क्योंकि ये ही हैं, जो चार लाख रंटजन की तीव्रता को आसानी से पचा सकते हैं।

इस भयावह विनाश से बचने और बचाने के लिए अधिक न सही तो थोड़े से लोगों ने तो जरूर सोचा है। इसी सोच का परिणाम है, ‘परमाणु विद्युत ऊर्जा परियोजना’। इस समय संसारभर में 560 परमाणु संयंत्रों से विद्युत किया जा रहा है। 26 देशों में परमाणु ऊर्जा केन्द्रों से 300 गीगावाट बिजली पैदा हो रही है। एक गीगावाट दस हजार लाख वाट के बराबर होता है। एक टन यूरेनियम 235 को जलाने से तीन लाख टन कोयले के बराबर शक्ति मिलती है। 2000 टन यूरेनियम से एक लाख मेगावाट विद्युत का उत्पादन किया जा सकता है।

हालाँकि इन परमाणु संयंत्रों का एक दूसरा पहलू है, जो वैज्ञानिक दुनिया के सामने एक महाप्रश्न की तरह है। यह सवाल है, परमाणु कचरे को ठिकाने लगाना। परमाणु ऊर्जा को उत्पन्न करने वाले सभी देश इस समस्या से बुरी तरह चिंतित और व्यथित है। साथ ही इसके विकिरण से जहाँ एक ओर ओजोन कवच नष्ट होता है, वहीं दूसरी ओर इन संयंत्रों के पास रहने वाली आबादी विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं आनुवंशिक रोगों का शिकार होती है। फिर भी यह परमाणु क्षमता का न्यूनतम खतरा है, ऐसा माना जा सकता है।

दुनिया को परमाणु खतरे से बचाने के लिए सबसे पहले सन् 1963 ई. में आँशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि हुई। 1967 ई. में लैटिन अमेरिका में नाभिकीय हथियारों पर प्रतिबंध के लिए दूसरी महत्वपूर्ण संधि हुई। 1968 में एन.पी.टी. तथा 1972 में एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि हुई। इसी वर्ष रासायनिक हथियारों के बारे में भी समझौता हुआ। सन् 1985 ई. में दक्षिण पैसिफिक को सर्वसम्मति से परमाणु मुक्त क्षेत्र के रूप में स्वीकारा गया।

इन सबके बाद बहुचर्चित सी.टी.बी.टी. यानि कि व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि सामने आई। इन दिनों इस संधि की योजना समूचे देश एवं समूची दुनिया में चर्चा का विषय बनी हुई है। आखिर यह है क्या ? तो इसका जवाब निम्न बिन्दुओं में है-

1- कोई भी परमाणु क्षमता संपन्न देश किसी अन्य देश को न तो कोई परमाणु हथियार देगा और न ही इसके निर्माण या प्रयोग के लिए उसे प्रेरित करेगा।

2- संधि पर हस्ताक्षर करने वाले कोई भी गैर परमाणु क्षमता संपन्न देश किसी क्षमता संपन्न देश से परमाणु हथियार या प्रौद्योगिकी प्राप्त नहीं करेंगे।

3- (क) हर परमाणुरहित देश अंतर्राष्ट्रीय परमाणु एजेंसी के निर्णय को मानेगा। (ख) शाँतिपूर्ण उपयोग के लिए भी परमाणु तकनीक का आदान-प्रदान यह एजेंसी ही करेगी। (ग) शाँतिपूर्ण उपयोग के लिए यदि किसी तरह का परमाणु विस्फोट किया जाता है, तो इसकी जाँच-पड़ताल भी यही एजेंसी करेगी।

4- इस संधि को मानने वाले देश हथियारों की होड़ कम करने का प्रयास करेंगे।

5- परमाणु हथियारों पर रो लगाने के लिए कुछ देशों के समूह अलग संधि या प्रयास कर सकते हैं।

इस परमाणु अप्रसार संधि पर 5 मार्च 1970 में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्राँस और चीन ने हस्ताक्षर किए थे। जबकि विश्व में कुल स्वतंत्र राष्ट्रों की संख्या 221 है। इनमें से 185 देश तो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य है। हालाँकि इस परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने वाले सदस्य देशों की संख्या 178 हो चुकी है और इस संधि से संबंधित किसी प्रस्ताव के अनुमोदन के लिए 90 देशों की सहमति आवश्यक है। परंतु यह संधि है बड़ी भेदभाव भरी। इसके तहत सिर्फ पाँच देशों को ही परमाणु हथियार रखने का अधिकार प्राप्त है अन्य को नहीं। इसकी अनेकों खामियों के चलते भारत ने अब तक हस्ताक्षर नहीं किए हैं।

इसे यदि कुछ यों कहा जाए कि दुनिया के कुछ प्रभावशाली देश अपने परमाणु हथियारों के बल पर इस संधि के सहारे अपने वर्चस्व को बरकरार रखना चाहते हैं, तो कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं। क्योंकि इस संधि के प्रभाव में आने के बाद से परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र कम से कम नौ बार गैर-परमाणु क्षमता संपन्न देशों पर आक्रमण की धमकी दे चुके है। लगभग आठ देशों में नाभिकीय होड़ स्पष्ट दिखाई दे रही है। परमाणु विध्वंसकों की तादाद में कम से कम पाँच गुना बढ़ोतरी हुई है। संधि पर हस्ताक्षर करने के बावजूद फ्राँस व चीन ने परमाणु परीक्षण किए हैं। अमेरिका जीरोयील्ड के तहत अपनी ही प्रयोगशाला में अनगिन परमाणु परीक्षण करता चला जा रहा है। दिखावा कुछ भी हो, पर उसकी राहें अभी बदली नहीं।

जबकि नई सदी नई सोच की माँग करती है। यह सोच ऐसी हो, जो दुनिया में शाँति व समृद्धि की नई राहें बना सके और उस पर चलने की हिम्मत जुटा सके। अब तक हमने जो भूल की, उनका प्रायश्चित करने का ठीक यही समय है। इक्कीसवीं सदी को उज्ज्वल भविष्य का रूप देने के लिए जिस प्रबल पुरुषार्थ की अपेक्षा है, उसे आज से-अभी से शुरू करना पड़ेगा। हम सबको इसके लिए संकल्पित होना पड़ेगा कि नई सदी में हमारे कदम विध्वंस और विनाश की नहीं, शाँति और सृजन की राह पर चलें।


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