शिमला से लगभग तीस मील दूर हिमालय के एक सुरम्य शिखर के पास ही यह गाँव था। इस गाँव के ही एक किनारे पर था यह बंगला, छोटा पर निहायत खूबसूरत। मुसकराते फूलों एवं लहराती बेलों ने इसके सौंदर्य को कई गुना बढ़ा दिया था। इस बंगले की तरह गाँव भी छोटा-सा ही था। यही कोई बीच-पच्चीस घर होंगे बस। गाँववाले बंगले में रहने वाले अंगरेज साहब की काफी इज्जत करते थे, हाँ थोड़ा भय भी खाते थे। उन दिनों अंगरेजों का जमाना जो था। गाँववालों के लिए तो विदेशी गोरा रंग ही खासे रौब-दाब का पर्याय था। हालाँकि वे अंगरेज साहब कैप्टन लैंग काफी भले आदमी थे। भारत और भारतीय के लिए इनके मन में काफी आकर्षण था। अनेकों सुविख्यात भारतीय इनके मित्र थे। भोले-भाले ग्रामीणजनों की भी ये समय-समय पर सहायता कर दिया करते थे। गाँववाले इन लैंग साहब को अपनी पहाड़ी भाषा में ‘लानसाहब’ कहकर बुलाते थे। लैंगसाहब को यहाँ की आँचलिक भाषा में अपने नाम का अनुवाद लानसाहब बहुत भला लगता।
इन्हीं लानसाहब के एक मित्र इन दिनों आए हुए थे। ये मित्र भारतीय थे। भारत की अस्मिता, ज्ञान के गौरव की झलक इनमें थी। प्रवृत्ति से ये आध्यात्मिक थे। इनके संवेदनशील ज्ञान की ऊर्जा को भारत ने ही नहीं पश्चिमी जनों ने भी छुआ था। दक्षिणेश्वर के संत श्री रामकृष्ण परमहंस की संगत में उनकी यह प्रवृत्ति और भी अधिक उभरी और निखरी थी। हिमालय का आकर्षण ही इन्हें यहाँ खींच लाया था। बातों-ही बातों में एक दिन परमहंसदेव ने इनसे कहा था, हिमालय तो साक्षात् अध्यात्म है। इसके हर शिखर में आध्यात्मिकता का एक अनोखा गौरव, एक अनूठी ऊँचाई है। केशवबाबू जा सको, तो हिमालय जरूर जाओ। उन्हें परमहंसदेव की बात भा गई और वे कुछ दिनों के लिए यहाँ आ गए। हिमालय की अनोखी सुषमा को देखने और इसके अनूठेपन को अपने कैनवास पर उतारने।
इस गाँव से हिमालय का ऐसा रोमाँचक दृश्य दिखाई देता था कि वर्णन ही नहीं किया जा सकता................. बस हाथ बढ़ाकर पकड़ लो इतने नजदीक लगते हैं पहाड़। उनके ऊपर भोर से साँझ तक खेलती सूर्यरश्मियाँ एक ऐसी अनूठी-अनोखी चित्रकारी करती हैं, जो पल-पल बदलती रहती है। .............. उन्होंने आते ही तय किया कि इस स्वर्णिम ज्योतिर्मय आभास को मूर्तरूप दिया जाए, अपने कैनवास पर। विख्यात चित्रकार न होने पर भी चित्रकारी करना उनका शौक था। फुरसत के पलों में उनकी यह कलात्मक संवेदना उनकी आध्यात्मिक संवेदना से एकाकार हो जाती। इस समय भी कुछ यही हो रहा था।
उन्होंने देखा लानसाहब के बंगले के पास कुछ ही दूर पर बहते एक सोते के बीच में कुछ बड़े पत्थर उभरे थे ......... उनके ऊपर के हिस्से लगभग सपाट थे। अपनी इजल फिट की और डूब गए पिरवेश में
सहसा एक हंसी खनकी .............। वह चौंक गए। ऐसा लगा कि चाँदी की पायजेबें थरथराई हैं। उनके हाथ से ब्रश गिर गया और जब तक वे इसे संभाले तब तक तो वह पत्थरों पर लुढ़कता धारा के ऊपर बहता अदृश्य हो गया ................। उनकी प्रकृति थी जब वे काम में डूबे रहते हैं, तो अपने ही आप से बातें करते रहते। सच तो यह है कि वे खुद भी नहीं जानते कि क्या बातें करते हैं ? पर उनके मित्र अक्सर उनकी इस आदत पर कुछ-न-कुछ टिप्पणी करते रहते हैं। उन्होंने सोचा आज भी उनकी इस बेतुकी आदत पर कोई हंसा होगा।
उन्होंने सिर घुमाया। एक प्यारी सी बच्ची थी, लगभग पाँच साल की। उनकी तरफ शैतानी से देख रही थी ....................। पर उनको अपनी ओर मुड़ते देखकर सहसा वह घबरा गई और पत्थरों ऊपर उछलती-कूदती दूर भाग गई। ऐसा लगा कि कोई मृगछौना भाग रहा है। निष्प्रयास। वह उन्हें जरा भी आभास दिए बिना चुपचाप उन पत्थरों पर चढ़ आई थी, जहाँ वह काम कर रहे थे........... और अचानक जब उसने देखा कि उनका ब्रश गिर गया, तो वह घबरा उठी। शायद उसने सोच लिया कि ये उसे मारने तो नहीं लगेंगे।
पर उसकी अपेक्षा के विपरीत वह मुस्कराए और बड़े प्यार से बोले - आ जाओ गुड़िया.........। आओ, तुम्हारा नाम क्या है ? उन्होंने उसे पुकारा। उसने कुछ भी जवाब नहीं दिया। अच्छा आओ.......... मैं तुम्हारी तस्वीर बनाऊँगा, उन्होंने दूसरा ब्रश निकालकर उसे दिखाया।
वह थोड़ा नजदीक आई। चंपा है मेरा नाम चंपा......... मेरे बाबू लानसाहब के बंगले में कार करते हैं।
तो यह थी नयनसिंह की बेटी........। सचमुच यह उतनी ही प्यारी है जितना कैप्टन लैंग उन्हें बताया करते थे।
उन्होंने हिमालय की देवदूतों जैसी गरिमावान चोटियों को कैनवास पर उतारने का प्रयास छोड़ दिया..........और बनना शुरू हुआ चंपा का चित्र...............। लेकिन वह बनाने दे तब तो।...........। हर दस-पंद्रह सेकेंड बाद वह उठती और देखती कि पूरा हो गया या नहीं।
वह मुश्किल से उसे बैठाते.........। थोड़ी देर बाद जब उसने कैनवास पर एक चंपा को वाकई उतरते देखा, तो उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में विस्मय झलक आया..........। पाँच सल की चंपा शहद और दूध का मिला रंग.......उड़ते बाल, बड़ी बड़ी आंखें, लेकिन उनका दिल नहीं हुआ कि उसकी फटी तार-तार फ्रॉक को कैनवास पर ज्यों-का-त्यों उतारा जाए। उन्होंने उसे एक लाल रंग की सितारों जड़ी फ्रॉक पहना दी.......। पर साब मेरे पास तो ऐसी सुँदर फ्रॉक है ही नहीं। तुम तस्वीर वाली चंपा से निकालकर मेरे को दे दो न। उसने आँसू बहाते हुए कहा। तभी नयनसिंह वहाँ आ गया और रोना बंद हुआ।
अगले साल जब वह आए, तो उसके लिए बिलकुल वैसी ही फ्रॉक ढूंढ़-खोजकर ले आए। फिर तो वे दोनों अच्छे दोस्त बन गए। ...... चंपा कंटीली झाड़ियों से हिंसोरु जमा करती....... सूर्य उदय होने से पहले ही उनको जमा करना पड़ता। बड़ी कंटीली झाड़ियाँ होती हैं हिंसोरु की, पर स्वाद जो कोई खा ले कभी भूले ही नहीं। उसके हाथों और पाँवों पर अक्सर काँटे की लकीरें होती। वह उसको लाख मना करते पर ........।
कलकत्ता में आपको यह कहाँ मिलेगा....... खा लो। उसकी निष्कलुष समझ ने उनकी कमजोरी को पकड़ लिया था। उसे पता चल गया था कि इन बाबू को हिंसारु बहुत भाते हैं।
उस साल के बाद कई सालों का अंतराल हो गया। हाँ यदा-कदा नयनसिंह की चिट्ठी आ जाती, जिसमें चंपा का भी जिक्र होता। चंपा नाम जेहन में आते ही उसकी नादानियाँ, शैतानियाँ और चंचल-खूबसूरत प्यारापन सब-के-सब एक साथ जेहन में आ जाते। लेकिन इधर व्यस्तता काफी बढ़ गई थी। ब्रह्मसमाज आँदोलन के साथ अनेकों तरह के कामकाज में वह मशरुफ होते गए। धर्मप्राण समाज सुधारक केशवचन्द्र सेन के नाम से वह सुपरिचित ही नहीं सुविख्यात हो चुके थे। हालाँकि अपनी अतिव्यस्तता में भी उस भोली-सी पहाड़ी लड़की को वह भूले नहीं, पर संपर्क करने का अवसर ही नहीं मिला। इधर नयनसिंह की चिट्ठी भी उन्हें नहीं मिली थी।
आखिरकार इस साल उन्होंने पहाड़ पर दीवाली मनाने का निश्चय किया और इस आशय का एक पत्र उन्होंने कैप्टन लैंग को लिखा और एक पत्र नयनसिंह को। पहाड़ की दीवाली भी बड़ी निराली होती है। बिलकुल अंधेरी घाटी और दूर-दूर तक फैले पहाड़ों पर सहसा हजारों प्रकाशबिंदु अचानक न जाने कहाँ से बिछ जाते हैं। लगता है जैसे असंख्य जुगनूँ कहीं से डेरा डालने आ गए हों।
लानसाहब के बंगले पर पहुँचने पर उन्हें नयनसिंह नजर आया। बिलकुल हड्डी-हड्डी हो गया था। कैप्टन लैंग भी थोड़ा मुरझाए से लग रहे थे। चंपा कैसी है ? उन्होंने पूछा। दरअसल चंपा के वहां न दिखने पर वह थोड़ा निराश हो गए थे। उन्होंने सोचा था कि हंसती-खिलखिलाती चंपा उनसे मिलने जरूर पहुँचेगी।
चंपा, चंपा तो खत्म हो गई। उसने कहा भर्राई आवाज में। क्या कहा, क्या कहा तुमने। वह लगभग चीख पड़े, क्या हुआ उसको.......।
साब वह तो पिछले साल बच्चा होने में खत्म हो गई थी। अब तो एक साल होने को है।
क्या कह रहा है यह, पागल तो नहीं हो गया है.........।
मुश्किल से तेरह-चौदह साल की होगी वह......उन्होंने कहा।
हाँ साब तेरह की थी। हमारे यहाँ तो जल्दी शादी का रिवाज है। समाज का दबाव तो मानना पड़ता है। नयनसिंह बोलता जा रहा था, पर वह निःशब्द थे।
कैप्टन लैंग के बंगले पर उन्होंने वह रात सिसकियों के बीच बिताई। वह हैरान भी थे, बेहद परेशान भी। समाज के दबाव से दस साल की छोटी-सी बच्ची की शादी और तेरह साल में उसकी मौत। बालविवाह की इस घिनौनी बुराई ने उन्हें विक्षुब्ध कर दिया। रात बीतते ही वह नयनसिंह के घर जा पहुँचे। यह बंगले का आउट हाउस ही था।
फर्श पर फीणे की चटाई पर नयनसिंह बैठा था। उसकी पत्नी ने आग्रह से चाय पिलाई। जब चाय खत्म हो गई, तो नयनसिंह बिना कुछ कहे उठा और पिछले कमरे से वही कैनवास उठा लाया, जो उन्होंने आठ साल पहले बनाया था। कैनवास धुएं से बदरंग हो चला था। एक कोना किसी चूहे ने शायद कुतर डाला था और टूटी छत से चू रहे पानी ने कई जगह रंग को धूमिल कर दिया था, पर चंपा फिर भी वहीं मौजूद थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में अभी भी वैसा ही विस्मय था, जैसाकि उन्होंने उस दिन देखा था, जब वे उसका चित्र बना रहे थे। उनकी आँखों से आँसू की एक बूँद निकली और कैनवास पर टपक पड़ी। नयनसिंह और उसकी पत्नी भी सिसक उठे। वह बिना कुछ कहे पहाड़ों की ओर निकल पड़े।
बालविवाह की सामाजिक कुरीति उनके मन-मस्तिष्क में हलचल मचाए थी। वह सोच रहे थे बालविवाह एक तरह से बालहत्या ही तो है। अब यह व्यक्ति स्वयं करे या फिर समा के दबाव में आकर करे, अपराध कम तो नहीं होता। फिर यदि व्यक्ति की मानसिकता बदल सकती है, तो समाज की क्यों नहीं। एक नहीं, अनेक सामाजिक कुरीतियाँ अपने देश में नागफनी की तरह फैल रही हैं। इनके काँटों से रोज अनेक मासूम जिंदगियाँ तार-तार हो जाती है। उनके मस्तिष्क की यह हलचल एक निश्चय में बदल गई-वह सामाजिक कुरीतियों की नागफनी को साफ करेंगे, ताकि फिर किसी मासूम चंपा की खिलखिलाहट न छिने।
उन्होंने अनुभव किया कि दुःख की बाढ़ उतरने पर मनुष्य में एक शक्ति आ जाती है और वह इनसान को उसके पुरुष-स्त्रीपन से परे उसके शारीरिक-मानसिक गुण-अवगुणों से परे पहचानने लगता है। एक तादात्म्यता का बोध होता है, मनुष्यमात्र से, शायद प्राणिमात्र से। एक ऐसी दृष्टि मिलती है, जो पहले नहीं थी। आज उन्हें ऐसी ही दृष्टि मिली थी। उन्हें इस अनोखी दृष्टि का वरदान देकर उस दिन का सूरज चला गया। शाम रात में बदलने लगी। यह दीवाली की रात थी। घने अंधेरे में अनेकों प्रकाशबिंदु चमक उठे। अभी भी वह सोच रहे थे कि यदि हर विवेकवान एवं विचारशील अपने अंचल में सामाजिक कुरीतियों-बुराइयों के विरोध में प्रकाशबिंदु की तरह चमक उठे, तो समूचे देश में चमकने वाले ये अनेकों प्रकाशबिंदु घने अंधेरे को भी रोशन कर देते। शुरुआत उन्होंने स्वयं से की। ‘केशवचंद्र सेन’ उनका यह नाम बालविवाह ही नहीं सभी तरह की सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष का पर्याय बना गया।