समग्रता का ईश्वरीय बोध

April 2000

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मन सिकुड़ा है, मस्तिष्क फैला है। कर्मक्षेत्र समूचे विश्व तक फैलकर सीमातीत हुआ है, स्नेह-सूत्र परिवार की छोटी-से-छोटी इकाई में भी टूटकर टुकड़े-टुकड़े हुआ है। स्थूल फैलकर स्थूलतम हो रहा है, सूक्ष्म और अधिक सिमटकर सूक्ष्मतम बन रहा है। कर्म-तर्क बौद्धिकता के धरातल पर मनुष्य महानता का मुखौटा पहनकर आगे बढ़ा दिख रहा है, कर्म-श्रद्धा अगोचर के मूल्यों पर वह बौना और कमजोर पड़ रहा है, आखिर क्यों ?

बुद्ध का कहा आज लाखों पृष्ठों में विवेचित हो रहा है, श्रीकृष्ण की गीता के अक्षर-अक्षर पर प्रवचन और भाष्य हो रहे हैं। कुरान और बाइबिल को घर-घर तक, प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए अथक प्रयास किए जा रहे है, पर बुद्ध की करुणा, श्रीकृष्ण का निष्काम कर्म, ईसा व मुहम्मद का प्रेम व भाईचारे की छवि क्यों नहीं चमक-दमक रही है, यह एक गूढ़ पहेली है।

विचार में विश्वास नहीं, धर्म में श्रद्धा नहीं, परस्परता-सामाजिकता में सुख-दुःख की अनुभूति नहीं, तब वह व्यक्ति न तो धार्मिक हो सकता है और न ही सामाजिक। धर्म और समाज के विभिन्न सवाल उस व्यक्ति की स्वार्थ-लालसा और लिप्सा को तीखा और कड़वा बना देते हैं। ये कटुस्वार्थ जब सामाजिक कटुता का रूप लेते हैं, तो साँप्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय आदि-आदि विषवल्लरियाँ उगती और पनपती है।

संप्रदाय, जाति, क्षेत्र-जीवन की ये इकाइयां हैं, समग्रता नहीं। जैसे आँख, कान, नाक, हाथ, पाँव ये शरीर की इकाइयां हैं, समग्रता नहीं। इकाइयाँ समग्रता की पूरक हैं, विरोधी-विद्रोही नहीं। विषग्रस्त मनुष्य ही धार्मिकता के मूल्य पर हिन्दू-मुसलमान, सिख, ईसाई को लड़ाता है। हम धार्मिक हैं, हम मनुष्य हैं-समग्रता के इस ईश्वरीय बोध में साँप्रदायिकता, जातीयता का विष उत्पन्न हो ही नहीं सकता। हम हिंदु-मुसलमान हैं, पर अविरोधी पूरक इकाई के रूप में ही। समग्रता में तो हम मनुष्य हैं, परमेश्वर की संतान, मनुष्य हैं-मननशील मनुष्य।


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