जीवन चेतना की धुरी - प्राणविद्या

April 2000

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सूर्यदेव समूचे विश्व को अपने प्राण-अनुदान बाँटने के लिए आ चुके थे। समूची प्रकृति उनके आज के इस प्रथम स्पर्श से पुलकित थी। प्रातःकाल के ये क्षण बड़े ही सुहावने थे। महर्षि पिप्पलाद अपना कुटिया में आत्मचिंतन में लीन थे, तभी भार्गव वैदर्भी ने उन्हें श्रद्धाभाव से प्रणाम किया और एक ओर खड़ा हो गया। महर्षि ने उसे अपने पास बुलाते हुए बैठने का संकेत करते हुए कहा-आयुष्मान् ! तुम्हारी मानसिक परेशानियों का शमन हो गया अथवा नहीं ? तुम्हें और क्या जानना शेष है ? तुम्हारे मन में जो संशय-शंकाएं हों, उन्हें तुम मुझसे पूछ सकते हो।

भार्गव वैदर्भी पलभर मौन रहकर विनम्र स्वर में बोला- भगवान् आपके सान्निध्य में आकर कोई अभागा ही होगा, जो मानसिक परेशानियों से घिरा रहे, किन्तु मेरा मन अभी भी प्रश्नों और तर्कों से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाया है। मैं इसीलिए आपसे यह जानना चाहता हूँ कि कितने देव इस आश्चर्यजनक सृष्टि को नमन करते हैं, कौन से देव इस सृष्टि को प्रकाशित करते हैं, इसका ज्ञान कराते हैं और कौन से देव उन सभी में मुख्य और श्रेष्ठ हैं ? हे देव ! आप कृपा करके मुझे यह ज्ञान दीजिए।

महर्षि पिप्पलाद भार्गव वैदर्भी के इन प्रश्नों को सुनकर थोड़ा चिंतनलीन हुए और उनके अधरों पर मंदस्मित झलका। जिसकी आभा उनके समूचे मुखमंडल पर फैल गई। वह बोले- वत्स ! आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वाक्, चक्षु, कान ये सभी देवता है। इंद्रियों के द्वारा ये सभी मिलकर देवों की शक्ति को प्रकाशित करते हैं और प्राणी के शरीर को धारण करते हैं।

इनमें श्रेष्ठ कौन है, इस विषय में मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ। एक समय की बात हैं, सभी इंद्रियाँ आपस में संघर्ष करने पर उतारू हो गई। सभी अपने को श्रेष्ठतम सिद्ध करना चाहती थी। उन सबमें वरिष्ठ प्राण ने उन्हें काफी समझाने की कोशिश की कि आखिर तुम लोग झगड़ती क्यों हो ? किन्तु इंद्रियाँ चुप होने को तैयार न थी। हर एक अपने को दूसरे से श्रेष्ठ बता रही थी। प्राण बड़ी चिंता में पड़ गया कि जड़ जगत् के पाँचों महाभूत एवं चेतन जगत् की पाँचों इंद्रियाँ आपस में उलझ गई हैं। प्राण ने उन्हें फिर से समझाने की कोशिश की कि क्यों तुम सब बेकार के मूर्खतापूर्ण अभिमान के चक्कर में पड़े हो। मैं ही अपने को पाँच प्राणों में बाँटकर जड़-चेतन सृष्टि रूपी इस छप्पर को धारण किए हुए हूँ।

प्राण की इन बातों को सुनकर इंद्रियों के साथ पंच-महाभूत भी बुरी तरह से बौखला उठे। उन्होंने किसी भी तरह उसके कथन को मानने से इनकार कर दिया। प्राण ने तब उनसे कहा-चलो यही सही, तुम्हीं अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करो। नेत्रों को भारी गर्व था कि वे देख सकते हैं। उन्होंने दूसरों से कहा, तुम सब हम पर निर्भर होकर ही अपना काम कर पाती हो। यदि हम क्षणभर को भी विराम ले लें, तो तुम सब अपने आप ही निरर्थक हो जाओगी।

वाणी यह अपना अपमान सहन न कर सकी। तत्काल उसने व्यंग्यबाण छोड़ा और धमकाते हुए सबको डाँटा और कहा- मेरे बिना क्षणभर तो तुम अपना काम चला नहीं सकती, जबकि मैं तो दूसरी इंद्रियों के बगैर भी शरीर धारण करने में सक्षम हूँ। उसका यह बड़बोलापन कानों से सहा न गया। उन्होंने वाणी को टोकते हुए कहा-तुम चाहे जितना क्रोध में चिल्लाकर कहती रहो, पर जब तक हमारा अस्तित्व न होगा तुम्हारी सारी चेष्टाएं विफल हो जाएंगी। हमारे बिना तुम सभी का अस्तित्व बेकार ही है।

मन अभी एक कोने में खड़ा मौन भाव से सबकी बातों को सुनता हुआ अपने संकल्प-विकल्प की वीथियों में विचरण कर रहा था और साथ-ही-साथ इंद्रियों की मूर्खतापूर्ण बातों का उपहास कर रहा था, किन्तु इनकी बातें सीमा से बाहर चले जाने पर उसका अब मौन बने रहना असंभव हो गया। अपने स्वभावानुसार वह गंभीर स्व में कहने लगा, अरी इंद्रियों ! मैं तुम्हारा वाहन हूँ। तुमसे जैसा चाहूं वैसा काम करवा सकता हूँ। मेरे नियन्त्रण से बाहर जाने पर तुम्हारी सारी महत्ता धरी-की-धरी रह जाएगी।

आँखों और कानों को तो मन की यह बात कुछ समझ में आई और वे शाँत भी हुए, पर वाणी भला इतनी आसानी से कहाँ चुप होने वाली थी, उसने मन को ललकारा और कहने लगी, मन तुम्हारी अपने आप में भला क्या सत्ता है ? तुम तो हम सब पर ही आश्रित हो। यदि हम सब मिलकर तुम्हारा सहयोग न करें, तो तुम किस तरह अपना काम कर सकोगे ? अब तो मन भी चंचल हो उठा। अविवेकी मन ने भी मान लिया और वाणी ने अपनी धाक जमा ली। फिर क्या था, वाणी ने फिर से दूसरी इंद्रियों को भी धमकाना शुरू किया। वे भी कब तक चुप रहतीं। अब तो झगड़ा उग्र-से-उग्रतर होता गया। प्राण उनकी मूर्खता पर मुस्करा रहें थे, पर वे चुप रहे।

ये सब लड़ते-लड़ते प्रजापति के पास जा पहुँची। प्रजापति ने उनका सारा झगड़ा सुना और उन्होंने सभी को शाँत करते हुए कहा- हे इंद्रियवंद! तुम सबकी बातें सुनकर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि तुम सब श्रेष्ठ हैं। फिर क्या था वाणी सबसे पहले अपनी श्रेष्ठता की धाक जमाने के लिए सभी से विद्रोह करके एक वर्ष के लिए चली गई और जाते-जाते कहती गई-अब पता चलेगी तुम सबको मेरी महिमा। मेरे न रहने पर तुम सबकी जो दुर्दशा होगी, उसके परिणाम खुद-ब-खुद सामने आ जाएँगे। उसे भ्रम था कि वाणी से रहित होने पर लोग न तो बोल पाएँगे और न कुछ काम कर सकेंगे।

एक साल बिताकर वाणी जब वापस लौटी तो वह अपनी महिमा पर स्वयं में बड़ी प्रसन्न हो रही थी। वह सोच रही थी कि सब-की-सब इंद्रियाँ उसके अभाव में परेशान हो उठी होंगी और उसके पहुँचते ही प्रसन्नता से भर जाएँगी। इस तरह सब पर अपने ही आप उसका रौब चल जाएगा। पर यहाँ हुआ उलटा, सभी इंद्रियों ने उसके पहुँचते ही उस पर व्यंग्य किया-अरे! तुम एक साल तो क्या दस साल भी न लौटतीं, तो इस शरीर का कोई अनिष्ट नहीं कर सकता था। आखिर हम जो थीं यहाँ। वाणी का गर्व हो गया, वह लज्जित हो गई। उसकी मुखरता फीकी मुसकान में विलीन होकर रह गई। कानों और आँखों की भी यही गति हुई। मन ने भी विद्रोह किया, पर विद्रोह के एक वर्ष की अवधि में भटकते हुए उसे कुछ ऐसा लगा, जैसे कि वह स्वयं को ही सता रहा हैं।

प्राणों के लिए अब यह इंद्रियों का अति भौतिकवाद असहनीय हो चला था। अब उसने जड़-चेतन से उत्क्रमण करना शुरू कर दिया। प्राण का विद्रोह करा भर था कि पाँचों इंद्रियाँ अपनी जड़ से हिल गईं। वे उसके साथ ही शक्तिहीन हो गई और स्वयं भी निकलने लगीं। जब प्राण फिर से स्थिर हुआ, तब वे पुनः स्थिर हो पाई। यह सब कुछ ठीक उसी प्रकार घटित हुआ, जैसे मधुमक्खियों में रानी मक्खी के उड़ जाती हैं और उसके बैठ जाती जाने पर फिर से सब-की-सब बैठ जाती हैं। प्राण के विचलित होते ही दूसरी इंद्रियों का भी अस्थिर होना स्वाभाविक था। अब उनका यह भ्रम टूट गया और उन्हें विश्वास हो गया कि हम सभी का अस्तित्व प्राण पर ही निर्भर हैं। सभी ने प्राण से व्याकुल भाव से याचना की कि वह उन सबको छोड़कर कहीं न जाए। क्योंकि उसका एक पल का वियोग ही शरीर को व्यर्थ व नष्ट कर देगा। जड़ जगत् के पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तथा चेतन जगत् की सभी इंद्रियाँ मिलकर प्राण की प्रीतिपूर्वक स्तुति करने लगे।

महर्षि पिप्पलाद अपनी अंतर्चेतना की गहनता में निमग्न होकर यह सारा विवरण देते जा रहे थे। कालगति जैसे थम गई थी। आसपास के वातावरण में गहरी निस्तब्धता थी। प्राण की महिमा स्पष्ट करते हुए पिप्पलाद ने कहा, संपूर्ण जातिगत भेद-विभेद और आयोजनों का मूल आधार जीवन ही हैं। जैसे रथ के पहिये की नाभि से अरे लगे होते हैं, वैसे ही सब कुछ जीवन से ही जुड़ा है और यह प्राण ही जीवन है। यही जीवनरूपी पहिये की नाभि हैं। यज्ञ आदि के साथ सभी संस्कारों के कर्मकाँड भौतिक शक्ति सब कुछ इसी प्राण में अवस्थित हैं।

यही प्राण देवों की अग्नि हैं। पितरों की स्वधा है, ऋषियों में चरित है, अथर्वांगिरस का सत्य हैं। यही प्राण तेजस्वी इंद्र है। रक्षाकर्म के कारण वही रुद्र है, अंतरिक्ष में प्रवाहित वायु भी यही हैं। यही पर्जन्य बनकर जलवर्षा करता है। यही वनस्पतियों और अन्न का रूप धारण करता है। इसी के आधार पर जीवन टिका हुआ हैं। इसी प्राण के वश में सब कुछ हैं। इंद्रियाँ भी प्राण की इस महिमा से अभिभूत थीं। उन्होंने प्राण से प्रणत हो निवेदन किया, हे प्राण! अब तुम उत्क्रमण मत करो, जो तुम्हारा रूप हमारे मन में भरपूर प्राणशक्ति का संचार हो। हे प्राण! आ हमारी इस प्रकार से रक्षा करो, जैसे माता अपने पुत्रों की रक्षा करती हैं। अब आप ही हमारे लिए श्री एवं प्रज्ञा विधान करें, ताकि हम भौतिक ऐश्वर्य और आध्यात्मिक सौंदर्य से सुशोभित हो सकें।

महर्षि पिप्पलाद के इन वचनों को सुनकर भार्गव वैदर्भी विस्मयमुग्ध थे। अब वे प्राण की महिमा को जान चुके थे। परंतु अब उनमें प्राणविद्या को जानने की जिज्ञासा बलवती हो उठी। वह प्राणविद्या के उस विज्ञान एवं विधान का जानना चाहते थे, जिसके आचरण, अनुकरण एवं प्रयोग से प्राणों को नियंत्रित एवं संयमित किया जा सके। जिसके द्वारा स्वयं में असीमित ऊर्जा का प्रखर प्राणभंडार स्वयं में संजोया जा सके। महर्षि से उनकी यह आंतरिक उथल-पुथल छुपी न रह सकी। उन्होंने करुणार्द्र दृष्टि से कहा-पूछो वत्स! तुम क्या पूछना चाहते हो।

हे प्रभु! मैं इस प्राणविद्या का विज्ञान-विधान जानना चाहता हूँ। भार्गव वैदर्भी के इन शब्दों में उसकी उत्कट जिज्ञासा की स्पष्ट गूँज थी।

महर्षि के मन में आज अनूठी शिष्यवत्सलता थी। बिना एक पल की देर लगाए वह करने लगे-”गायत्री विद्या ही प्राणविद्या हैं। चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र में प्राणविद्या का समस्त विज्ञान -विधान निहित है। महर्षि आत्मनिमग्न हो बोल रहे थे-सूर्य ही समस्त सृष्टि के प्राणों का आदि स्त्रोत हैं वत्स! सभी जीवधारी, वृक्ष-वनस्पति इसी से प्राणों का अनुदान पाते हैं। इसी की प्रचंड ऊर्जा प्रखर प्राणचेतना बनकर समूचे ब्रह्माँड में संव्याप्त देव हैं।”

हे भगवान! कहते हुए भार्गव वैदर्भी ने कुछ और पूछना चाहा, परंतु महर्षि तो जैसे आज स्वयं की गहराइयों में पूर्णतः विलीन हो चुके थे। वे ब्रह्मस्पंदनों से अनजान बोले जा रहे थे- ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। यह चौबीस अक्षरों वाला मंत्र सविता देवता का शब्द रूप हैं। सविता के साथ समूची सृष्टि के रहस्य इसमें सँजाए और समाए हैं। वाणी से इसका जप, मन से इसका अर्थ-अनुसंधान एवं हृदय से सविता देव के प्रति पूर्णतः समर्पित होकर उनका ध्यान, जीवन और सृष्टि के समस्त रहस्यों को स्वयमेव उद्घटित कर देता है। इस महामंत्र के उच्चारण के साथ सवितादेव के ध्यान का योग होते ही सृष्टि में संव्याप्त वैश्व प्राणचेतना जीन से एकाकार हो जाती है और अनंत अपने आप ही मानव चेतना में समाता चला जाता है।

महर्षि पिप्पलाद के इन वचनों को सुनकर भार्गव वैदर्भी का अंतर्मन प्राणविद्या के शुभ प्रकाश से आलोकित हो उठा। उसने गुरुचरणों में प्रमाण किया और निवेदन किया, हे प्रभु! अब मुझे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही विषयों के संदर्भ में कोई संदेह नहीं रह गया है। मैं कृतार्थ और कृतकृत्य हो गया हूँ देव। अब मैंने जान लिया है कि गायत्री महामंत्र ही सृष्टि एवं जीवन का सार है। इसकी उपासना से भौतिकता एवं आध्यात्मिकता दोनों ही सुलभ हैं। गायत्री महामंत्र का जप एवं सविता देव का ध्यान ही प्राण को सुपुष्ट, मन को सतेज, इंद्रियों को सचेतन, हृदय को पवित्र एवं जीवन को बलवान बनाता है। भार्गव वैदर्भी के इन स्वरों में उसके आत्मबोध की झलक थी।

महर्षि पिप्पलाद विश्व के स्वामी सविता देव की प्राणचेतना की प्रचंड धारा लीन अभी भी ध्यानावस्था में थे। विस्मय-विमुग्ध वैदर्भी उनकी चरणधूलि लेकर अपनी कुटिया में लौट गए। उन्होंने अपने साथी अंतेवासियों को गुरुसुख से ज्ञात प्राणमहिमा और गायत्री विद्या का रहस्य बताया। यह सब जानकर उसके उन्य सभी साथियों के मन में भी सविता देव के प्रति भक्ति जाग उठी। वे सबके सब भी गायत्री महामंत्र की साधना में लीन होने लगे।


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