नवरात्रि साधना के अनुबंध-अनुशासन

April 2000

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आध्यात्मिक साधनाओं में शक्तिसंचय करने की दृष्टि से नवरात्रि पर्व का असाधारण महत्व है। गायत्री उपासक चैत्र एवं आश्विन नवरात्रियों में अपनी आँतरिक संपदा बढ़ाने के लिए गायत्री अनुष्ठान करते हैं। इस संधिवेला में साधना का जा लाभ मिलता है, वह अन्य अवसरों पर की गई साधनाओं द्वारा नहीं मिल पाता। सूक्ष्मदर्शी जानते हैं कि इस ऋतुकाल में विशिष्ट प्रकार का चैतन्य प्रवाह प्राणऊर्जा प्रवाह सूक्ष्मजगत् में चलता है, जिसे गायत्री अनुष्ठान के माध्यम से साधक खीचते, धारण करते और अपनी शक्ति बढ़ाते हैं। नवरात्रियों में सूक्ष्म प्रकृति से जो दिव्य अनुदान बरसते हैं, उन अनुदानों के प्रभाव से आत्मिक प्रगति की दिशा में की गई साधनाएँ विशेष फलवती सिद्ध होती हैं। प्रजा परिजन आरंभ से ही नवरात्रियों में बरसने वाले इन अनुदानों से लाभान्वित होते रहे हैं।

इन दिनों मनाई जाने वाली नवरात्रियाँ पिछली सभी नवरात्रियों से भिन्न और असाधारण हैं, क्योंकि इसमें युगसंधि महापुरश्चरण की महापूर्णाहुति का विशेष प्रयोजन भी जुड़ गया है। यों तो नवरात्रियाँ अपने आप में ही असाधारण हैं, क्योंकि इन्हीं दिनों अदृश्य-अविज्ञात अपनी स्वर्गीय विभूतियों को धरती पर उतारता और उससे जाग्रतों के आँतरिक भंडार भर देता है। परिणामस्वरूप निष्ठापूर्वक साधना करने वाले अनुभव करते हैं कि इन दिनों किया गया पुरुषार्थ तत्काल कुछ न कुछ चमत्कारी परिणाम दर्शाता है। इस प्रकार के दैवी चमत्कारों की एक ही पृष्ठभूमि है-उत्कृष्ट चिंतन को आदर्शवादी उपक्रम में उभारने वाला पराक्रम-पुरुषार्थ। जो इसे हजम कर पाते हैं, वे ही विभूतिवान् और सिद्धपुरुष कहलाते हैं।

जब सामान्य नवरात्रियों में ही इस प्रकार के चमत्कारी परिणाम सिद्ध होते देखे जा सकते हैं, तो प्रस्तुत नवरात्रियाँ तो युगसंधि की समापन वेला के साथ जुड़ी हुई हैं। इसलिए इनका महत्व तो और भी अधिक है। अमावस्या एवं पूर्णिमा को यों सदा ही पर्व के रूप में मनाया जाता है और शुभ कार्यों के लिए उन्हें विशेष अवसर या उपयुक्त मुहूर्त समझा जाता है, किंतु जब उनके साथ कुछ विशिष्टता जुड़ जाती है, तो स्थिति और भी उच्चस्तरीय बन जाती है। सोमवती अमावस्या शरद पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा श्रावणी आदि को अतिरिक्त पर्व माना जाता है और उन पर्वों के साथ अमावस्या तथा पूर्णिमा का महत्व और भी बढ़ जाता है। चंद्रग्रहण वाली पूर्णिमा और सूर्यग्रहण वाली अमावस्या की स्थिति भी असामान्य होती है। इन पर्वों पर श्रद्धालुओं को कुछ अतिरिक्त योजनाएँ बनाते हुए देखा जाता है। इस बार का नवरात्रि पर्व भी ऐसी ही अतिरिक्त विशेषताओं से संपन्न होने के कारण सामान्य नहीं है। यह एक ऐसा ऐतिहासिक एवं पुण्यफल प्रदाता अवसर है, जो फिर इस जीवन में मिलना संभव नहीं। अतः इसे साधक स्तर की मनोभूमि बनाकर मनाया ही जाना चाहिए।

इस बार चैत्र नवरात्रि 8 अप्रैल से आरंभ होकर 12 अप्रैल को समाप्त होगी। रामनवमी 12 अप्रैल की है, परंतु साधना पूरे नौ दिन की होती है। नवरात्रि नाम ही इसलिए दिया गया है कि उस तिथियों की घट बढ़ को कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन दिनों की विशेष उपासनाएँ इस प्रकार हो सकती हैं-

1- प्रतिदिन 27 माला गायत्री महामंत्र का जप करके नौ दिन में चौबीस हजार का अनुष्ठान। इसमें प्रायः ढाई घंटा समय प्रतिदिन लगता है।

2- पंचाक्षरी गायत्री-”ॐ भूर्भुवः स्वः” का 24 हजार का संक्षिप्त अनुष्ठान-इसके 27 माला जप में प्रतिदिन एक घंटा समय लगा हैं।

3- गायत्री चालीसा के 109 बार पाठ।

4- नौ दिन में 1000 गायत्री मंत्रलेखन और पाठ।

इनमें भी प्रायः एक एक घंटा समय नित्य लगता है। इतना समय यदि एक साथ निकाल पाना कठिन जान पड़े, तो एक दिन का साधनाक्रम दो बार में पूरा किया जा सकता है। नवरात्रि के इस गायत्री अनुष्ठान में सुख शाँति, समुन्नति, आत्मकल्याण तथा पारमार्थिक प्रयोजनों की पूर्ति के सभी बीज विद्यमान हैं।

युगसंधि की इन नवरात्रियों में की जाने वाली अनुष्ठान साधनाओं का विशेष महत्व हैं। इन साधनाओं के विशिष्ट परिणाम भी मिलने वाले हैं। यह तथ्य ध्यान में रखने के साथ साथ यह रहस्य भी हृदयंगम किया जाना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के साथ जुड़ी रहने वाली सिद्धियों की दृष्टि से नवरात्रि अनुष्ठानों का मर्म दस अवसर पर किए जाने वाले अनुशासनों के साथ जुड़ा हुआ है। अनुष्ठान का अर्थ ही है- विशेष साधना, जिसमें कुछ तपश्चर्याएं भी जुड़ी रहती है, उन्हें न अपनाने पर वह साधारण उपासना मात्र रह जाती है, अनुष्ठान नहीं कहलाती।

अनुष्ठानों के साथ जिन नियमों, तपश्चर्याओं का पालन करना पड़ता है, वे सामान्य व्यवहार में कुछ कठिन तो पड़ते हैं, पर ऐसे नहीं हैं कि जिन्हें सच्ची लगन या निष्ठा के रहते व्यस्त रहने वाले व्यक्ति भी पालन न कर सके। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इन दिनों पालन किए जाने वाले अनुशासनों का नवरात्रियों में अभ्यास करने के उपराँत उन्हें जीवनदर्शन में स्थायी रूप से सम्मिलित करने की जो प्रेरणा है, उसी को अपनाने पर प्रगति का समस्त आधार केंद्रीभूत हैं।

नवरात्रि साधना को प्रखर बनाने एवं साधक की निष्ठा परिपक्व करने के लिए अनुष्ठानों में जो नियम अनुबंध रखे गए है, उन्हें ‘व्रत’ कहते हैं। इन व्रतों के पालन की परंपरा शास्त्रकारों ने इस दृष्टि से बनाई है कि साधना में अधिकाधिक प्रखरता का समावेश किया जा सके। तपश्चर्याओं के तत्वदर्शन का सार संक्षेप यही है कि आदर्शवादी उद्देश्यों के लिए स्वेच्छापूर्वक कष्ट सहन किया जाए और उस अवसर पर संकल्पशक्ति एवं आस्था को परिपक्व बनाया जाए। इस प्रकार की निष्ठा एवं सत्साहस ही मनोबल की वृद्धि करते हैं तथा उच्चस्तरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए ऊर्जाभंडार की तरह काम आते हैं।

नवरात्रि साधना के दिनों जिन अनुशासनों, व्रतों या तपश्चर्याओं का पालन किया जाता है, उनमें से पाँच प्रमुख हैं। ये हैं-उपवास, ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, अपनी शरीर सेवा स्वयं करना और चमड़े की वस्तुओं चमड़े के बने जूते चप्पल, कोट, बैग, बेल्ट आदि का परित्याग। यथा-संभव इन नियमों, व्रतों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। परंतु परिस्थितिवश यह संभव न हो तो उसमें कुछ सरलता बरतने की गुंजाइश भी है। कृच्छ चाँद्रायण और सौम्य चाँद्रायण व्रत का अंतर जो जानते हैं, वे इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हैं कि साधक की शारीरिक, मानसिक एवं सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप व्रतबंधों में ढील रखने का प्रावधान भी रखा गया है। नवरात्रि के दिनों जिन व्रत नियमों का पालन करने की परंपरा है, उनमें स्थिति विशेष को देखते हुए ढील या कमी भी की जा सकती है। उसमें किसी प्रकार की हानि या विग्रह की आशंका नहीं है।

नवरात्रि उपासना के तत्वज्ञान में सन्निहित व्रतों में प्रमुख है- उपासना। इन नौ दिनों में सर्वाधिक कठिनाई भोजन के संबंध में ही रहती है। अतः जहाँ तक हो सके स्वयं पकाया हुआ सात्विक आहार ही इन दिनों लेना चाहिए। स्वयं पकाने की बात अनभ्यस्तजनों के लिए कठिन पड़ सकती है। इस दृष्टि से बिना पकाई हुई वस्तुओं पर ीहने, फलाहार उपवास आदि को महत्व मिला है, किंतु सरलता की दृष्टि से इतनी छूट भी रखी गई है कि एक लगावन के अतिरिक्त और ठोस आहार उपयोग में न लाना भी उपवास के अंतर्गत मान लिया गया है। शाक, चावल या दाल रोटी जैसी वस्तुओं पर नवरात्रि काट ली जाए, तो उतने मात्र से भी प्रतिबंध की आवश्यकता पूरी होती रह सकती है।

उपवास का तत्वज्ञान आहारशुद्धी से संबंधित है। साधक सात्विक आहार करें और चटोरेपन के कारण अधिक खाने की लिप्सा से बचे। पेट हलका और आहार सात्विक रहेगा, तो साधना मार्ग को अवरुद्ध किए रहने वाले व्यवधान से भी छुटकारा मिल जायगा। यह शरीरगत उपवास हुआ। मनोगत उपवास यह है कि आहार को प्रसाद एवं औषधि की तरह श्रद्धा भावना से ग्रहण किया जाए। आध्यात्मिक दृष्टि से सात्विक आहार वह है, जो ईमानदारी और मेहनत के साथ कमाया गया है। उपवास का अपना तत्वज्ञान है। उसमें सात्विक खाद्यों को कम मात्रा में लेना ही नहीं, न्यायोपार्जित होने की बात भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं, इस संदर्भ में एक बात और भी आती है कि इस प्रकार आत्मसंयम बरतने से जो बचत होती है, उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में हो। यही कारण है कि नवरात्रि अनुष्ठानों में उपवास करके जो बचाया जाता है, उसे पूर्णाहुति के अंतिम दिन ब्रह्मभोज में खर्च कर दिया जाता है।

नवरात्रि अनुष्ठानों में दूसरा व्रत है- ब्रह्मचर्यपालन। इसमें ओजस् को रतिकर्म में अपव्यय से बचाने की संयमशीलता तो है ही, उससे भी अधिक अश्लील चिंतन से मन मस्तिष्क को बचाने का अत्यधिक महत्व है क्योंकि नर नारी के बीच मिलन तो यदा कदा ही होता है इसमें परिस्थितियाँ और मर्यादाएँ बहुधा अवरोध बनती हैं। इतने पर भी इस प्रसंग में चिंतन और विचार की निकृष्टता से अधिक हानि पहुँचती है। इसलिए ब्रह्मचर्य में केवल नर नारी का संयोग संयम ही नहीं, चिंतन संयम भी सम्मिलित है। ब्रह्मचर्य के इस तत्वज्ञान को अपनाने वाले केवल आध्यात्मिक प्रगति की दिशा में द्रुतगति से अग्रसर होते हैं, वरन् शारीरिक और मानसिक, पारिवारिक और आर्थिक क्षेत्रों की भौतिक सुख-शांति का भी प्रत्यक्ष लाभ लेते हैं।

तीसरा प्रमुख अनुशासन है- भूमिशयन। भूमिशयन से तात्पर्य कोमलता के स्थान पर कठोरता अपनाना है।

इस तपश्चर्या से कष्ट सहन करने में प्रसन्नता अनुभव करने की मनःस्थिति का निर्माण होता है। इसके अतिरिक्त अपने शरीर की सेवा आप करने, स्वयं हजामत बनाने, स्वयं कपड़े धोने जैसे काम तो सहजता से पूरे किए जा सकते हैं। इसी प्रकार चमड़े की वस्तुएँ न प्रयोग कर, नौ दिन रबड़ की प्लास्टिक की चप्पल पहनकर काम चलाया जा सकता है। यह कोई कठिन बात नहीं है, किंतु इसके पीछे तो तथ्य छिपा हुआ है, वह यह है कि चमड़े के उपयोग से न केवल नवरात्रि में वरन् अन्य समय में भी कमी करने या बचने की आवश्यकता है। क्योंकि इसके पीछे अहिंसा वृति के विकास का तत्वज्ञान एवं प्राणिमात्र के प्रति करुणा बरतने - ‘ आत्मवत् सर्वभूतेषु’ का सिद्धाँत व्यवहार में उतारने की प्रेरणा छिपी हुई है।

इस प्रकार के अनुशासनों को नियमितता और निष्ठापूर्वक पालन करने से अनुष्ठान का उद्देश्य पूरा होता है। उक्त तत्वदर्शन को जीवनक्रम में समाविष्ट कर जो साधक साधना करते हैं, उनके लिए नवरात्रि साधना की चमत्कारी परिणति का लाभ ले सकना तनिक भी कठिन नहीं है।


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