मृत्यु का भय खोलता है सत्य का द्वार

April 2000

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बीसवीं शताब्दी जागरण की शताब्दी थी। इस युग में जन्में सिद्धान्तों ने अपने तप और मौन अनुग्रह से विश्व-समाज को आध्यात्मिक संस्कार दिए। महर्षि रमण का नाम इस तरह का अनुग्रह करने वाले गिने-चुने संतों में लिया जाता है। उनके समकालीन संतों में स्वामी रामकृष्ण परमहंस और महायोगी अरविंद का ही उल्लेख किया जाता है। कोई और विभूति उनके सामने नहीं टिकती।

महर्षि रमण की विलक्षणता थी कि उन्होंने बोलकर अथवा लिखकर ज्यादा कुछ नहीं कहा। उनका सान्निध्य साधकों में स्वयं ही प्रकाश जगाता था। इसमें वे अपना मार्गदर्शक स्वयं बनने का प्रयास बताते थे। उनके सान्निध्य में आध्यात्मिक ही नहीं, लौकिक दृष्टि से भी लोगों को विलक्षण अनुभव हुए। इनमें साक्षात्कार भी शामिल है और शरीर, मन एवं परिवार संबंधी पीड़ाओं का निवारण भी।

सन् 1879 में तमिलनाडु के एक कस्बे विरुयु जुही कस्बे में जन्मे वेंकटरमण (बाद में महर्षि रमण के नाम से विख्यात) पूर्वजन्म में अर्जित पुण्य, साधना और अध्यात्म का वैभव साथ लेकर आए थे। उन्हें बचपन से ही समाधि लगने लगी थी। या तो वे गहन ध्यान में डूबे रहते अथवा सोए रहते। सत्रह वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़ दिया। तिरुवन्नामलाई में मीनाक्षी मंदिर में जाकर संन्यास ले लिया। संन्यास से पाँच वर्ष पहले ही उनके पिता का निधन हो गया था। अपने पिता के निधन ने उन्हें मृत्यु के संबंध में नया भावबोध जगाया। इस बोध के परिपक्व होते ही उन्हें संन्यास सिद्ध हो गया। फिर घर में रहने या नहीं रहने से कोई अंतर नहीं पड़ा।

अपने आपको शरीर तक ही सीमित नहीं मानने, उससे तादात्म्य पूरी तरह तोड़ लेने और कायाक्लेश से रत्तीभर प्रभावित न होने पर भी उन्होंने दूसरों का कष्ट दूर करने के लिए जोखिम उठाई। कर्मफल को ब्रह्म की तरह सत्य और अटल मानते हुए भी महर्षि रमण कहते थे कि दूसरों के कष्ट अपने ऊपर लिए जा सकते हैं। आशीर्वाद वरदान देने से ही काम नहीं चलता। जो आशीर्वाद दे रहा है, उसे अपने पुण्य का एक अंश भी पीड़ित व्यक्ति को देना होता है। न्यायालय ने किसी अपराध के लिए अर्थदंड दिया है, तो जुर्माना भरना ही पड़ेगा। दंडित व्यक्ति जुर्माना दे अथवा अनुरूप, सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी। कष्टमुक्ति के लिए पुण्य तो चुकाना ही पड़ेगा। इस नियम का निर्वाह करते हुए उन्होंने कितने ही भक्तों के कष्ट अपने ऊपर लिए और उन्हें पीड़ामुक्त किया।

लोगों को कष्टमुक्त करते रहने के कारण महर्षि रतण पर कल्मषों का बोझ इतना बढ़ गया कि उसका विग्रह करने के लिए प्रकृति ने उनकी बायीं भुजा में कैंसर रोप दिया। इससे पहले वे गठिया और शरीरक्षय जैसे रोगों-विकृतियों को आमंत्रित कर चुके थे। उनके जीवनीकार आर्थर आँसबोर्न ने लिखा है कि वे रोगी थे। बहुत दुर्बल दिखाई देते थे, लेकिन उन्हें इसकी चिंता नहीं थी। वे सत्तर साल के भी नहीं हुए थे, परंतु इस आयु से कहीं ज्यादा बूढ़े दिखाई देते थे। वे चिंता से जर्जरित नहीं थे, क्योंकि इसका कोई चिन्ह उनमें कभी दिखाई ही नहीं दिया। उन्होंने कभी चिंता की ही नहीं।

फिर भी क्या कारण है कि जो व्यक्ति इतना स्वस्थ और स्फूर्तिमान् था, जिसने कभी रोग, शोक और चिंता की परवाह की ही नहीं, पर अपनी आयु से भी अधिक वृद्ध दिखाई दे। इसका कारण सिर्फ यही है कि उन्होंने अपने भक्तों, श्रद्धालुओं और याचकों के पाप-तापों को अपने ऊपर ले लिया। विनती करने वालों के कर्मबंधन शिथिल कर दिए। धर्म-अध्यात्म के इतिहास में इस तरह के अनेक उदाहरण मिलते हैं। भगवान बुद्ध की मृत्यु विषूचिका रोग के कारण हुई, भगवान शंकराचार्य अंत तक भगंदर रोग से पीड़ित रहे। इसी युग में स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु भी इसी वजह से कैंसर रोग के कारण हुई।

महर्षि रमण ने अपनी पहली आध्यात्मिक अनुभूति के बारे में कहा है कि वह मृत्यु के भय के रूप में थी। इस भय पर विजय पा लेने के बाद कोई कारण नहीं बचा, जिसने उन्हें विचलित किया हो। उन्होंने स्वयं इस अनुभूति का वर्णन किया है। उन्हीं के शब्दों में, “मदुराई से सदा के लिए रवाना होने से लगभग छह सप्ताह पूर्व यह परिवर्तन पाया था। परिवर्तन आकस्मिक था। अपने चाचा के मकान की पहली मंजिल पर मैं अकेला कमरे में बैठा हुआ था। मुझे कभी कोई बीमारी नहीं हुई थी और उस दिन मेरा स्वास्थ्य भी बिलकुल ठीक था। यकायक मृत्यु के भीषण भय ने मुझे आ घेरा। मैंने इस भय का कारण पता लगाने की कोई चेष्टा नहीं की। केवल ऐसा अनुभव होने लगा कि मुझे मरना है। मैंने यह सोचना शुरू किया कि अब क्या किया जाए ?”

“इस आघात के कारण मैं अंतर्मुखी हुआ और मेरे मन में अनायास ही ये विचार आने लगे-अब मृत्यु आ गई है ? इसका क्या अभिप्राय है ? मृत्यु किसकी होनी है ? आदि विचार आने लगे। फिर मैंने अपनी मृत्यु का अनुभव किया। शरीर से प्राण निकले, अरथी बनाई गई, शवयात्रा हुई, शरीर जलकर खाक हो गया। यह सब होते हुए भी मैं अपने व्यक्तित्व की संपूर्ण शक्ति को अनुभव कर रहा हूँ। अपने भीतर उठने वाली आत्मसत्ता की आवाज भी सुन रहा हूँ। शरीर की मृत्यु हो जाती है, परंतु आत्मा को मृत्यु स्पर्श तक नहीं कर सकती। यह सब शुष्क विचार प्रक्रिया नहीं थी। जीवित सत्य की भाँति चह अनुभूति अत्यंत स्पष्ट रूप से मन में बिजली की तरह कौंध गई। बिना किसी विचार प्रक्रिया के मुझे सत्य का प्रत्यक्ष हो गया।”

मृत्यु की अनुभूति, उसके भय से मुक्ति और आत्मचेतना के प्रत्यक्ष बोध ने वेंकटरमण को महर्षि रमण बना दिया। इस अनुभूति के कुछ ही वर्ष बाद वे संन्यासी हो गए और अरुणाचल की तलहटी में कुटिया बनाकर रहने लगे। अरुणाचल में वे ऐहिक यात्रा के कई पड़ावों से गुजरे, लेकिन वे संसार छोड़कर वैरागी हुए संन्यासी नहीं थे। अरुणाचल में कुटिया बना लेने के कुछ वर्ष बाद उनकी माँ भी आ गई। माँ ने उन्हें पुराने जीवन में लौट चलने के लिए कहा। संन्यस्थ जीवन में प्रवेश तो संभव है, अपवाद छोड़कर कभी वापसी संभव नहीं है। श्री रमण ने वापस जाने से मना कर दिया। कुछ महीनों बाद माता ही आश्रम में रहने लगी। महर्षि रमण के अनुसार, साक्षात्कार के लिए संसार छोड़ना आवश्यक नहीं है। संन्यास लेने के लिए आतुर एक भक्त से उन्होंने कहा था-

“भगवान सदा आपके साथ है, आप में हैं। आपकी आत्मा भगवान है। आपको इसी का साक्षात्कार करना है। इसके लिए संसार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। परित्याग का अर्थ वस्त्रपरिवर्तन या गृहत्याग भी नहीं है। वास्तविक परित्याग तो इच्छाओं, वासनाओं और आसक्तियों का परित्याग है। जो संसार का त्याग करता है, वह आसक्ति से मुक्त होना चाहता है, वह वस्तुतः संसार में निमग्न हो जाता है और अपने प्रेम की परिधि इतनी विस्तृत कर लेता है कि उसमें समस्त विश्व समा जाता है। गेरुए वस्त्र धारण करने और घर छोड़ देने की अपेक्षा सार्वलौकिक प्रेम के रूप में भक्त की वृत्ति को निरूपित करना अधिक उपयुक्त होगा।”

अधिकाँश लोगों की धारणा है कि अध्यात्म जीवन के आरंभ में सिद्धियाँ देता है। साधक उस शक्ति के आधार पर प्रकृति का अतिक्रमण कर जाता है। यह संभव है। लेकिन साधक को सिद्धियों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। आश्रम में आए एक दर्शनार्थी को रमण महर्षि ने सिद्धियों के बारे में पूछने पर झिड़का भी था।

जिस ज्ञान या सिद्धाँत को व्यवहार में नहीं उतारा जाता, वह अज्ञान से भी ज्यादा घातक है, क्योंकि इस तरह का ज्ञान दंभ और मिथ्या अभिमान में उलझाता है। बहुधा होता यह है कि तर्क, तथ्य, प्रमाण और सिद्धाँत की घंटों तक चर्चा करने वाले बुद्धिजीवी मामूली कारणों से क्षुब्ध हो जाते हैं। क्लेश कलह में फंस जाते हैं, जबकि एक साधारण व्यक्ति भगवत्कृपा से लाभ उठा लेता है। महर्षि रमण कहा करते थे, “जिस चीज की आवश्यकता है, वह वस्तुतः हार्दिक भाव है, न कि कोरा सैद्धाँतिक ज्ञान।”

“सैद्धाँतिक ज्ञान सहायक हो सकता है, लेकिन वह बहुत बड़ी बाधा भी बन सकता है। उन व्यक्तियों के ज्ञान का क्या लाभ, जो अपने आप से यह प्रश्न भी नहीं कर सकते कि मैं कौन हूँ ? अपने संबंध में प्रश्न और साक्षात्कार के लिए प्रयत्न न करते हुए वे अपने आपको ग्रामोफोन बना लेते हैं, जो पहले से रिकॉर्ड की गई ध्वनी को ही बजा-सुना देता है। ज्ञान के बावजूद जिनका अहंभाव नहीं गया, उनके लिए साक्षात्कार संभव नहीं है। उनसे जल्दी तो वे लोग सत्य तक पहुँच जाएंगे जो सरल है, और शुद्ध भाव से प्रयत्न कर रहे है।”

महर्षि रमण संसार छोड़कर संन्यासी हुए थे, लेकिन उनका संन्यास पलायन नहीं था। वह अधिक संघर्ष और उत्तरदायित्व का वरण था। रमण आश्रम में कई विदेशी भक्त भी आते थे। महर्षि के कुछ जीवनीकारों ने तो यह भी लिखा है कि रमण आश्रम हमेशा विदेशी भक्तों से ही भरा रहता था। उनमें भी अंगरेजों की संख्या ज्यादा थी। प्रायः सभी प्रथम श्रेणी के अधिकारी। भारत में ब्रिटिश राज के कर्णधार लेकिन उन्होंने कभी किसी भक्त को शान का प्रतिनिधि होने के नाते नहीं अपनाया। साधक मुमुक्षुभाव से आया हो, तभी वे स्वीकार करते थे।

उन दिनों भारत में स्वतंत्रता आँदोलन चल रहा था। कई नेता और क्राँतिकारी भी आया करते थे। कभी-कभार वे अपने प्रयासों के बारे में पूछते। महर्षि उनके आँदोलन को ध्यान-साधना और धर्मधारणा के समतुल्य ही बताते। उसमें निष्ठापूर्वक लगे रहने के लिए प्रेरित करते। यहाँ तक कि वे सेवा को भी योग का सरल उपाय बताते थे। उनके अनुसार समाज और लोक की सेवा करते हुए भी व्यक्ति अध्यात्म के उच्चलक्ष्य पर पहुँच सकता है। जरूरी नहीं कि उच्चकोटि की तप−साधना और अनुष्ठान आदि किए जाएं, सेवाकार्य या सामाजिक उद्देश्यों में लीन रहते हुए भी व्यक्ति उसी स्तर पर पहुँच सकता है, जिन पर गहन साधनाएं पहुँचाती है। आवश्यकता इतनी ही है कि समाज साधना निष्काम भाव से चलती रहे। एक बार जमनालाल बजाज उनके आश्रम में आए। आश्रम उन दिनों अध्यात्मिक गतिविधियों के लिए विख्यात था। उन्होंने पूछा- क्या स्वराज के लिए काम करना और इच्छा रखना उचित है ? उसके लिए प्रयत्न करने पर आत्मविकास में बाधा आती है ? महर्षि ने कहा, इच्छा रखना उचित है। आत्मिक स्तर पर कामना-वासना के बंधन जितने हुए हैं, उतनी ही बुरी सामाजिक-राजनीतिक गुलामी भी है। उससे छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करना चाहिएं निरंतर प्रयत्न करना चाहिए। निरंतर प्रयत्न करने से व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक बनता चला जाता है। समाज की साधना करने वाला अपने आपको लक्ष्य के साथ लय कर देता है। इस तरह का तप विराट् आत्मचेतना में लीन कर देने के समान ही है।

जमनालाल जी को प्रसन्नता हुई। इस प्रकार उन्होंने महर्षि रमण से अपने राजनीतिक ध्येय के लिए स्वीकृति प्राप्त कर ली। उन्होंने फिर पूछा, निरंतर संघर्ष और उत्सर्ग के बाद यदि स्वराज मिलता है, तो उससे हमें क्या गर्व और गौरव नहीं होगा ? वह अभिमान क्या हमारा पतन नहीं करा देगा ?

महर्षि ने कहा “नहीं ! संघर्ष के दौरान अपने आपको उच्चसत्ता के प्रति समर्पित कर देना चाहिए। उसकी शक्ति को सदा अपने सम्मुख रखना चाहिए। अपने कार्य के परिणामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। तब वह निष्काम कर्म कर सकेगा। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम किस प्रकार का कर्म करते हो, अपने कार्य को शुद्ध और निस्वार्थ भाव से करते रहो। यही तुम्हें साक्षात्कार तक पहुँचा देगा।”

साधना किसी भी प्रकार की हो लौकिक अथवा आध्यात्मिक, पथप्रदर्शक की आवश्यकता दोनों ही दिशा में रहती है। अध्यात्म मार्ग में तो वह और भी जरूरी है। महर्षि कहा करते थे कि लौकिक सफलता का मार्ग जमीन पर बनी हुई सड़क की तरह है। एक बार समझ लिया जाए, तो आराम से चलते रह सकते हैं। अध्यात्म का क्षेत्र खुले आकाश की तरह है। वहाँ कोई पथ या पगडंडी बनी हुई नहीं है। सभी को अपने डैनों के बल पर उड़ना है। उस स्थिति में मार्गदर्शक का सहारा लोकसाधना की पूर्ति करते हैं। उन्होंने एक श्रद्धालु से गुय का अर्थ बताते हुए कहा था-

“गुरु शब्द का उपयोग तीन अर्थों में किया जाता है। एक अर्थ ऐसे व्यक्ति से हो सकता है, जिसने अध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त नहीं की तथापि वह दीक्षा और उपदेश दे सकता है। वह प्रायः उत्तराधिकारी से गुरु होता है। शिक्षक हो सकता है। चिकित्सक की तरह वह स्वस्थ रहने में मदद भी कर सकता है। दूसरे अर्थ में गुरु को कुछ आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त होती है। जिस स्थिति में वह पहुँचा होता है, वहाँ से अपने उपदेश और सान्निध्य द्वारा शिष्यों का मार्गदर्शन कर सकता है। शब्द के सर्वोच्च और सच्चे अर्थ में गुरु वह है जिसने विश्वात्मा के साथ एकरूपता अनुभव कर ली हो।” निश्चित ही रमण महर्षि का मार्गदर्शन युगानुकूल था, सार्वजनीन था। आज भी वह वैसा ही उनके चिंतन नवनीत के रूप में उपलब्ध है।


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