कर्म किए बिना कोई रह कैसे सकता है।

April 2000

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(गीता के तृतीय अध्याय कर्मयोग के प्रारंभिक उपदेश)

विगत अंक तक श्रीमद्भागवत् गीता के प्रारंभिक दो अध्याय पूरे हो चुके। पिछले अंक में स्थितप्रज्ञ की समापनात्मक टिप्पणी में हमने जाना कि ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हो जाना ही स्थितप्रज्ञ बन जाता है। शिष्यत्व के जागरण की व्याख्या से आरंभ हुआ 72 श्लोकों का संख्यायोग नामक दूसरा अध्याय हर दृष्टि से प्रत्येक जीवनसाधक-लोकसेवी के लिए माननीय है, पठनीय है। बुद्धिवाद के कुचक्रों से घिरी मानवता को उबारता है श्रीमद्भागवत् गीता का यह दर्शन, जिसमें देहातीत आत्मा के भान से लेकर - देह से स्वधर्माचरण- युगधर्म का परिपालन करते हुए स्थितप्रज्ञ की पहचान व उस पद की प्राप्ति का नानाप्रकार के उदाहरणों से निरूपण किया गया। इस अंक से आरंभ होता है तीसरा अध्याय, शीर्षक है- कर्मयोग। अभी तक श्रीकृष्ण भगवान् ज्ञान की बातें युगधर्म के परिप्रेक्ष्य में कह रहे थे। साँख्य माने ज्ञान। अर्जुन जो चिंताजनित अवसाद में चला गया था, ब्राह्मी स्थिति तक पहुँचने- सिद्ध पुरुष बनने के लक्षण भी जान गया है। एक शिष्य का विकास दूसरे अध्याय की योगेश्वर की शिक्षणपद्धति द्वारा हुआ है। उसने जाना कि वासनाक्षय, आसक्ति से निवृत्ति ही आत्मविकास की मुख्य सीढ़ी है। अब यह क्षय कैसे करें ? क्षय से पूर्व उन्हें परिष्कृत कैसे करें ? परिष्कृत वासनाओं से जन्में श्रेष्ठ कर्मों के संस्कारों में बँधे या बचें, यही शिक्षण तृतीय अध्याय में है। कर्म कैसे किया जाएँ, ताकि हम ‘मैं’ की वासना से अहंता से बंधन में जकड़े न जाएँ, यही इस तृतीय अध्याय का शिक्षण है।

कर्मयोग एक प्रकार से एक वैज्ञानिक जीवनपद्धति की व्याख्या करता है। भगवान् इस अध्याय में अपने शिष्य को बताना चाह रहे है कि उसका जन्म एक रजोगुणी के रूप में - क्रियाप्रधान वासनाओं के साथ हुआ है। उनका क्षय राष्ट्र व संस्कृति की सेवा के निमित्त शौर्यप्रदर्शन, वीरतापूर्वक युद्ध करके, अनीति मिटाकर ही हो सकता है। उसे जमकर कमर कसकर कर्म करना चाहिए। अपने सम्मुख उपस्थित तात्कालीन समस्याओं से मोरचा लेना चाहिए। उनसे डरकर नहीं भागना चाहिए। चाहे ये समस्याएँ कितनी ही कष्टदायी क्यों न हों, ये जीवन समर में उसके लिए सहायक - एक पौष्टिक आहार ही साबित होंगी। उसे उनका सामना करना चाहिए, युगधर्म का परिपालन करना चाहिए।

इस अध्याय का शुभारंभ अर्जुन रूपी श्रेष्ठतम शिष्य के द्वारा पूछे गए एक बड़े ही उपयुक्त प्रश्न से होता है - “हे ......... ! यदि आप यह मानते हैं कि कर्मों की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है, तो हे केशव, आप मुझे इस (युद्धरूपी) घोरकर्म में क्यों धकेलना चाहते हैं।” “तम्किं कर्मणि घोरे माँ नियोजयसि केशव” (3-1) अभी तक अर्जुन ज्ञान की बातें सुन रहा था। वह कहता है कि यदि ज्ञान ही श्रेष्ठ है, तो फिर ऐसा क्यों कहते हो कि कर्म करो, वह भी युद्ध करने जैसा घोर-भयंकर कार्य। इसके अतिरिक्त वह यह भी कहता है दूसरे श्लोक में कि “आप मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे है। एक बात निश्चित होकर कहिए, जिससे कि मैं कल्याण को प्राप्त होऊँ - मेरे मन को शाँति मिले।”

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोहमानुयाम्॥

अर्जुन के जितने भी प्रश्न है, किसी भावुक बुद्धिहीन व्यक्ति के नहीं है। किसी भी जिज्ञासु साधक के स्तर के प्रश्न ये हो सकते हैं। कभी-कभी हम परमपूज्य गुरुदेव की बातें समझ नहीं पाते, हम समझते हैं कि कभी वे कुछ कहते हैं - कभी कुछ। वे कभी कहते हैं कि ज्ञानयज्ञ करो, घर-घर गायत्री व यज्ञ का संदेश फैलाओ। कभी आज्ञाचक्र पर ध्यान लगाने की बात कहते है, तो कभी हमें प्रचार अभियान में लगा देते हैं। कभी शक्तिपीठ निर्माण में लगा देते हैं, तो कभी क्षेत्रीय आयोजन में शक्ति झोंक देने को कहते हैं। कभी वे साधना की गहराइयों में, ज्ञान के महासागर में डूबकियाँ लगवाते हैं, तो कभी कहते हैं कि सेवाधर्म ही श्रेष्ठतम है। लगता है कि यह सब लौकिक प्रपंच क्यों ? कर्म किसलिए, जब ज्ञान के समान पवित्र कुछ भी नहीं, इससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं तो नहीं कर्म करने की आवश्यकता क्यों है ?

यदि इस बात को सही ढंग से समझने का प्रयास किया जाए, तो आज की जो परिस्थितियाँ हैं वे वैसी ही है, जो कभी कृष्ण व अर्जुन के समय में थी। महाभारतकाल जैसी ही हैं। हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम देखें कि कहीं अर्जुन के रूप में हम तो नहीं हैं। हमें जब श्रीकृष्ण की बात सुनाई पड़े, तो यह मानना चाहिए कि यह हमारे पूज्यवर गुरुदेव की ही आवाज है। इतने भर से इस युगगीता में कई समाधान निकाल आएँगे। यदि इतना भर अहसास हो जाए, तो यह समझ में आ जाएगा कि स्थितप्रज्ञ-परमहंस के स्तर की सत्ता से हमें क्या माँगना चाहिए।

जिस कर्म की बात परमपूज्य गुरुदेव कहा करते थे, इसमें वे किसी से लेखनी चलवाते थे, किसी से प्रवचन कराते थे, किसी से झाडू लगवाते थे, तो किसी से बिल्डिंग निर्माण की बात कहते थे। क्षेत्रस्तर के हमारे कार्यकर्ताओं से यज्ञ संस्कार कराते थे व कहते थे कि अखण्ड ज्योति के पाठक बढ़ाना ही सबसे बड़ा पुण्य है। साथ में उसी ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका में ज्ञान-ध्यान की बातें भी बताते थे। एक लेख कर्म पर होता था, तो दूसरा समाधि पर। कहीं वैराग्य की बात है, तो कहीं सेवासाधना में ही - कर्म में ही भगवत्पूजा की। ऐसे में मन में व्यामोह पैदा होना, असमंजस होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में हमें पुनः भगवत्स्वरूप गुरुवर योगेश्वर की शरण में जाकर उनसे उनकी ही कही उस उलटबाँसी की व्याख्या हेतु निवेदन करना चाहिए।

जो असमंजस हम शिष्यों के मन में कभी उठता रहा है, कभी अर्जुन के मन में उठा था, सहज स्वाभाविक है। वस्तुतः श्रीकृष्ण की कोई भी बात परस्पर विरोधाभासी नहीं है। कभी सत्य का एक पहलू उजागर होता है, कभी दूसरा। श्री अरविंद ने ‘उपनिषद्’ ग्रंथ में लिखा है कि “ हम परमात्मा की, समग्र की अवधारणा कर नहीं सकते, क्योंकि उसमें शुभ-अशुभ दोनों है। लगता है यह विरोधाभास प्रकृति में कैसे ? पर वह जरूरी है। एक ही मकान में पूजाघर भी होता है, जो पवित्रतम स्थान है एवं उसी मकान में पूजाघर भी होता, जो पवित्रतम स्थान है एवं उसी में शौचालय जैसी अपवित्र जगह भी है। दोनों के बिना हमारा काम नहीं चल सकता।”

श्री रामकृष्ण उपदेश के दौरान स्वामी विवेकानंद से कहते हैं - “वेदोपनिषद् के वाक्य यदि हमें समझ में नहीं आएँ, तो हमें यह नहीं मानना चाहिए कि ये गलत हैं। हमारी बुद्धि की क्षुद्रता है। ये परमात्मा के वचन हैं। हमें अनुभवी व्यक्ति से पूछाते रहना चाहिए एवं परस्पर विरोधाभासी वाक्यों पर अपना संशय स्पष्ट कर लेना चाहिए।” इसीलिए दूसरे श्लोक के अर्जुन कहता है- “तदेकं वद निश्चित्य” एक बात निश्चित करके एक व्यक्ति के रूप में - मेरे कल्याण के लिए कहिए। सच्चे जिज्ञासु की उत्कंठा है अर्जुन में, इसीलिए वह व्याकुल होकर प्रश्न सामने रख रहा है। एक बात और अर्जुन कहता है - “येन श्रेयो हमाप्नुयाम्” इसमें ‘ श्रेय ‘ शब्द आया है। श्रेय अर्थात् सर्वांगपूर्ण कल्याणकारी समृद्धि। कई बार श्रेय शब्द का गलत अर्थ मात्र समृद्धि के पर्याय के रूप में कर दिया जाता है। यहाँ अर्जुन का प्रश्न है कि उसे किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, जिससे कि उनकी अपनी पीढ़ी की सर्वांग वृद्धि हो - राष्ट्रीय उन्नति हो और वह उसमें से अपने हिस्से का भी उपभोग कर सके। भगवान् उत्तर में कहते हैं-

लोके स्मिनिद्धविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साड्रख्यानाँ कर्मयोगेन योगिनाम्॥

अर्थात् “ हे निष्पाप अर्जुन ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई हैं। उनमें साँख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है।”

वेदाँत मानवता का कल्याण चाहता है। यह पूर्णता की प्राप्ति का विज्ञान है। ऐसे में भगवान् गीता के माध्यम से दो प्रकार के मार्गों की चर्चा करते हैं। पहला मार्ग सक्रियता का - कर्मठता का है। तो दूसरा बुद्धिप्रधान है, विचारतंत्र से जुड़ा है, ज्ञानतंतुओं को झकझोरता है। पहला कर्मयोग का मार्ग है, दूसरा ज्ञानयोग का मार्ग है।

यहाँ भगवान् ने अर्जुन के लिए निष्पाप शब्द प्रयुक्त किया है। कितना मधुर संबोधन है। अर्जुन के कई नाम है, परंतु यहाँ उसके भाव की विशुद्धता व निर्मल अंतःकरण पर मानो वे मोहर लगाते हुए संबोधन कर रहे हैं। दो प्रकार की निष्ठा बताते हुए वे कहते हैं कि ज्ञानयोग को आलस्य परायणता का मार्ग है। शास्त्रों में जिस नैष्कर्म्यभाव की बात कही गई है, वह उस तरह की नहीं है जिसे पलायन करके कंदराओं में या संपन्न मठों की ऊँची दीवारों में भोगा जाता है। वासना कामनारहित अवस्था में जन्मी विचारशीलता की स्थिति सही मायने में ज्ञानयोग की निष्ठा है। नैष्कर्म्य अवस्था शुद्ध चैतन्य अनंत सत् यही है। यहाँ अर्जुन नैष्कर्म्य की आड लेकर युद्ध से भागने का प्रयास न करे, इसलिए वे बड़े स्पष्ट ढंग से अगले श्लोक में समझाते हैं कि -”मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी साँख्य निष्ठा को प्राप्त होता है।”

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषो श्नुते। न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥

संपूर्ण क्रियाओं में कर्त्तापन के अभिमान से रहित सर्वव्यापी परमात्मा के ही चिंतन में निरत रहने को ही ज्ञानयोग-साँख्ययोग या संन्यासयोग कहा जाता है। केवल भगवत् सत्ता के निमित्त समत्वभाव से, बिना किसी फल का कामना के - आसक्ति को त्यागकर जो कर्म किया जाता है वही गीता का कर्मयोग है। इसी को तदर्थकर्म, मदर्थकर्म, मर्त्कम, समत्वयोग नाम से स्थान स्थान पर भगवान् ने उच्चरित किया है।

वे बड़ा स्पष्ट कहते हैं कि योगियों की निष्ठा कर्मयोग में है, संन्यासियों की- ज्ञानियों की निष्ठा ज्ञानयोग में है, पर यदि कर्म किए बिना कोई भी नैष्कर्म्य की सिद्धि को नहीं पहुँच सकता एवं कर्मों को छोड़ देने मात्र से ही वह ज्ञानी नहीं बन जाता - साँख्य निष्ठा को नहीं प्राप्त होता। इस तरह कोई कर्म छोड़कर अकर्मण्य बनकर कुछ भी हासिल नहीं कर सकता। आज हमें समाज में जितना फ्रस्ट्रेषन-डिप्रेशन-मनोशारीरिक रोगों का बाहुल्य दिखाई पड़ता है, उसका मूल कारण है या तो आदमी की कर्म में अत्यधिक आसक्ति, बहुत ज्यादा की कामना मन में रखकर कर्म करते चले जाना अथवा निठल्लापन आलसीपन। कर्म हो किंतु बिना किसी फल की कामना के। यदि निष्कर्मता (जिस अवस्था में प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल उत्पन्न नहीं करते) ही हमारी पूर्णता की चरमावस्था की एक ऐसी स्थिति है, जो हम सबके लिए अभीष्ट है, तो फिर कर्मों का संपादन किया ही क्यों जाए, यह बात मन में आने लगती है। तब भगवान् कहते हैं कि कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। क्योंकि सभी को अपने प्रकृतिजनित गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है।

न हि कष्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्मवषः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

वास्तव में कबना कर्म के मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। जो कर्म किए बिना जीता है, वह अपने अस्तित्व को खो बैठता है। जो कर्म की अवमानना करता है वह मानो जीवनदेवता का अपमान करता है। व्यक्ति के कर्म उसके भीतर की वासनाओं के ठीक अनुरूप ही होते हैं। वासनाओं को मुख्यतः जीन भागों में बाँटा जा सकता है - सात्विक, राजसिक, तामसिक। सत, रज, तम इन तीनों प्रकार के गुणों की उत्पत्ति हमारे भीतर की प्रकृति से ही होती है। “प्रकृति जैर्गुणै “ शब्द जो ऊपर आया है, वही हमारे कर्मों का मूल क्षेत्र है। हम किसी स्थिति में कर्म न भी करना चाहें तो भी हमारी अंतर्निहित वासनाएँ हमें कर्म करने के लिए विवश कर देंगी। हम कभी निष्क्रिय रह नहीं सकते। जीवन सदैव सक्रियता से भरा व सकारात्मक स्वरूप लिए होता है। कर्मों के रूप में जीवन वस्तुतः गतिशीलता को ही अभिव्यक्ति है। जीवित रहते हुए मनुष्य एक क्षण के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। (श्लोक की प्रथम पंक्ति) अर्थात् जब सब कर्म समाप्त हो जाते हैं, मनुष्य मर जाता है या यों कहें जो अकर्मण्य होता है, वह जीवित मृतक के समान है। कर्म से भागने का अर्थ है - जीवन से भागना और मृत्यु के मुख में स्वयं को जा धकेलना। यह तो एक प्रकार की आत्महत्या ही हुई।

गीता का संदेश बड़ा स्पष्ट है। कभी भी कर्म किए बिना न रहो। समाजसेवा करो, राष्ट्र का गौरव बढ़ाओ, मानवमात्र के कष्टों की निवृत्ति हेतु तपो। यही वस्तुतः जीवन है। जीते हुए धरना देना, धीमे काम करना, हड़ताल करना, भाग खड़े होना, कर्तव्य त्याग देना - अनुपस्थित रहना यह सब उपाय जीवन को धीमी मृत्यु की ओर ले जाते हैं, सौंदर्य छीन लेते हैं व जीवन का क्षरण कर डालते है। समाज व्यवस्था के प्रति विद्रोह नाम कोई भी भले ही अपने कर्मों के स्वरूप को दे दे, पर वस्तुतः उन्होंने जीवन देवता को नीचा दिखाया है, अपनी गरिमा के प्रतिकूल जीवन जिया है। जीवन समर में सभी प्रकार की उथल पुथल का सामना करते हुए जीना, सक्रिय हो उधमी बने रहना ही मनुष्य को शोभा देता है। कर्म करो, सक्रिय होकर जियो एवं निर्भय होकर रहो। परिश्रम से मत डरो। निराशाओं का सामना करने से हिचकिचाओ मत। जब तक जीवित हो, वास्तव में जीवन का एक एक पल जियो। कर्मों द्वारा ऊँचे उठो, कर्मों द्वारा ही उन्नति करो, कर्मों से ही अपना विस्तार करो। गीतकार का जीवन को कलाकार की तरह जीने का, हँसती-हँसाती, खिलती-खिलखिलाती मस्ती भरी जिंदगी जीने का संदेश स्वयं में एक प्रमाण है कि गीता संन्यास की पाठ्यपुस्तक नहीं है। गीता जीवन जीने की कला सिखाती है व “कुर्वन्नैवेह कर्माणि जिजिवेश्च्छताँ समाः” की उपनिषद्कार की उक्ति अनुसार कर्म करते हुए ही सौ वर्षों तक जीते रहने की इच्छा प्रबल बनाए रखने की बात करती है।

कर्मयोग के इस प्रारंभिक प्रसंग में इतना ही। इसके बाद का प्रसंग है - मिथ्याचारी न बनकर मन पर भी पूरा अंकुश स्थापित कर जो कर्म करता है, वही श्रेष्ठतम योगी है। यह अगले अंक में।


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