कुछ बात है कि हस्ती मिटी नहीं हमारी

April 2000

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अपनी परंपरा, संस्कृति और इतिहास की समीक्षा करते हुए प्रगतिशीलता का अहं सिर्फ, ‘विलाप’ और ‘ग्लानि’ से ही संतुष्ट होता है। समीक्षा की प्रगतिशील दृष्टि हजार बार अपने पुरखों को जब तक कोस नहीं लेती और लाख बार ऋषि-मुनियों के अनुदान को शून्य नहीं ठहरा लेती तब तक चैन नहीं लेती। उनके अनुसार, भारत में जो भी श्रेष्ठ है वह अंगरेजों के आने से आया अथवा उससे पहले मध्य एशिया से आए आक्रमणों और उनमें मिली पराजय के बाद आई दासता ने दिया। विदेशी शासकों के पास चाहे वे अरब-फारस के मुसलमान हों अथवा पुर्तगाल, फ्रेंच और अंगरेज हों, उनके पास उन्नत तकनीक थी, उच्चकोटि का कला-कौशल था। इस कारण वे विजयी हुए। उन्होंने अपने साम्राज्य स्थापित किए, तो उनके उच्छिष्ट से भारतीय समाज धन्य हुआ। सिद्धांत यह है कि शासक के गुण-दोष उनकी शासित जातियों में आते ही हैं। भारत कम से कम साढ़े आठ सौ वर्ष गुलाम रहा है, इसलिए शासकों के अनुदानों से उसे लाभान्वित होना ही था।

ग्लानि में आकंठ डूबा यह वर्ग निरूपित करता है कि हम श्रेष्ठ, उन्नत और बलवान थे, तो विदेशी आक्रमणों के आगे झुके ही क्यों ? कमजोर थे इसीलिए पराजित हुए। उनके अनुसार, भारत के पास व्यवस्थित तंत्र नहीं था, छोटे-मोटे कई राज्य थे और वे आपस में लड़ते रहते थे। एक-दूसरे से लड़ने-भिड़ने में ही उनकी शक्ति बरबाद होती रही थी। इस कारण वे बाहरी हमलों का सामना नहीं कर पाए। उनके अनुसार, भारत ने दासता के दिनों में कुछ खोया नहीं, बल्कि राज चलाने का कौशल अर्जित किया, युद्ध कौशल सीखा। एक-दूसरे को बराबर समझने वाली सामाजिक दृष्टि विकसित हुई, जाति-पाँति के बंधन शिथिल तो नहीं हुए, लेकिन उनके कारण होने वाली हानियों को अनुभव किया। उन भेदभावों को सर्वथा तिलाँजलि नहीं दी, तो भी उससे छुटकारा पाने का संकोच तो जगा।

निष्पक्ष भाव से समीक्षा करें, तो पाएंगे कि आक्रमण और उनमें हुई जय पराजय का चक्र भारत में ही नहीं चला, संसार के सभी देश समय-समय पर हमलों के शिकार हुए। भारत सिर्फ आठ सौ वर्ष तक विभिन्न आक्राँताओं से ग्रस्त रहा। इसके बावजूद वह पूरी जिजीविषा से उठ खड़ा हुआ। संसार के बहुत से देश तो दो-चार हमलों में ही इस तरह पस्त हो गए कि फिर कभी खड़े हो ही नहीं पाए। भारत के पास निश्चित ही कोई अक्षय ऊर्जा थी, जो उसे झंझावातों में भी टिकाए रही। यूनान, मिश्र, रोम, ईरान, रूस, कजाक यहाँ तक कि अमेरिका भी अपने अस्तित्व को मूल रूप में नहीं बचा पाए।

आठ सौ वर्ष की गुलामी ने भारत का इतना विनाश नहीं किया, जितना सौ-सवा सौ साल के आक्रमणों ने दूसरे देशों और सभ्यताओं का किया है। इन दिनों पढ़ाए जाने वाले इतिहास के अनुसार यूनान, रोम, मिश्र और चीन की सभ्यताएं प्राचीन भारतीय सभ्यता की समकालीन हैं। कालप्रवाह ने उनके साथ जो व्यवहार किया, उसे विश्व-इतिहास के विद्यार्थी भलीभाँति जानते हैं। एक समय यूनान लोकतंत्र, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र था। भूमध्यसागर के तट पर बाल्कन प्रायद्वीप में फैला यह देश दो हजार ईसा पूर्व सभ्य और सुसंस्कृत देशों में स्थान पा चुका था। माइसीनियन सभ्यता यहाँ फल-फूल चुकी थी। सुकरात, अरस्तू, ड्रैको आदि दार्शनिकों ने इस देश के आध्यात्मिक वैभव को समृद्ध किया, तो सिकंदर जैसे सम्राट ने विश्वविजय का स्वप्न देखा।

ईसा पूर्व पहली शताब्दी तक यूनान राजनीतिक दृष्टि से पूर्ण स्वतंत्र था। उसी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वह रोमन आक्रमणों का शिकार होने लगा। देखते ही देखते वाइजैंटाइन और ओटोमन राजवंशों ने यूनान पर अपना जो शासन स्थापित किया तो 1830 तक उनका साम्राज्य कायम ही रहा, करीब 1900 साल की गुलामी ने यूनान की प्राचीन सभ्यता-संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। 1830 में वह एक राजतंत्र के रूप में ही स्वाधीन हो सका। इस बीच यूनान में प्राचीन धर्म के स्थान पर ईसाइयत छा चुकी थी, उसने धर्म का ऐसा शिकंजा समाज पर कसा कि पुरोहितों की अनुमति -सहमति के बिना समाज के किसी भी क्षेत्र में कुछ नहीं किया जा सकता था।

मिश्र में इन दिनों इस्लाम और ईसाई धर्म छाया हुआ है। वहाँ की परंपराएं कुरान अथवा बाइबिल से प्रेरित हैं। इन ग्रंथों से सीधे अनुशासित न होकर लोग इनकी व्याख्या करने वाले मौलवी और पादरियों के संकेतों पर जीते हैं। सात हजार साल पहले मिश्र में एक उन्नत सभ्यता थी। लोगों का विचार की स्वतंत्रता थी। सम्राट अथवा राजा के सामने वे अपनी बात निस्संकोच रख सकते थे। समाधान नहीं होता तो शासक उत्तर भी देते थे।

पाश्चात्य इतिहासकार बताते हैं कि भारतीय सभ्यता उन दिनों मिश्र के सामने कुछ भी नहीं थी। आर्य तब ध्रुव प्रदेशों अथवा मध्य एशिया से भारत आना शुरू ही हुए थे। यहाँ अपने डेरे बसाने में लगे हुए थे और मकान आदि बनाना बिलकुल नहीं जानते थे, इसलिए झोंपड़ियाँ बनाकर रहते थे। भारत को शिशु और असंस्कृत बौना सिद्ध करने में ही अपनी विद्वता सार्थक समझने वाले विचारक मानते हैं कि आर्यों को अर्थात् भारतीयों को रहना नहीं आता था, इसीलिए आश्रम बनाते और पेड़ पत्रों की छाँव में निवास करते थे। गाय-भैंस चराते समय जो गीत गाए जाते वह बाद में लिपिबद्ध कर लिए गए। उन्हें संकलित कर वेदों का नाम दे दिया गया। इस तरह की बकवास करने वालों के लिए यूनान के बाद मिश्र, रोम आदि सभ्यताएं अत्यंत उन्नत थी। भारत के लिए वे गुरु की भूमिका में थी, क्योंकि तब मिश्र के लोग पत्थर की चिनाई करना जानते थे। यहाँ आश्चर्य की तरह देखे जाने वाले पिरामिड तब बनने लगे।

तब ढाई हजार ईसापूर्व मिश्र के लोग कैलेंडर बना लेते हैं। अचानक मिश्र पर यहूदी आक्रमण शुरू होते हैं। 1450 ईसापूर्व तक वे लोग बार-बार हमले करते हैं और कभी हारते कभी जीतते हैं। इस बीच में अपनी सभ्यता संस्कृति के अंश मिश्र में छोड़ते हैं। वहाँ यहूदी धर्म फैलने लगता है। इस गति से फैलता है कि मिर कमे राजा अमेनहोटप को हथियार उठाकर क्राँति की घोषणा करनी पड़ती है। वह यहूदी धर्म पर पाबंदी लगाकर नए धर्म की घोषणा करता है। स्थिति इससे सुधरती नहीं, बल्कि उलझ जाती है। तनातनी का ऐसा दौर चलता है कि ईसा से हजार साल पहले मिर अपने स्वरूप, स्वभाव और गुण-धर्म से हाथ धो बैठता है।

इटली के नाम से अभिहित रोम किसी जमाने में एक बड़े साम्राज्य का केंद्र था। आल्पस पर्वत से शुरू होकर भूमध्य सागर के भीतर तक फैला हुआ यह देश आज भी विश्वसभ्यता के लिए एक चुनौती है। संसार की एक-तिहाई आबादी यहाँ स्थित केंद्र वेटिकन से प्रेरणा लेती ओर उसके आगे नतमस्तक होती है। वेटिकन को यद्यपि एक स्वतंत्र राज्य का दरजा मिला हुआ है, लेकिन उसकी मान-प्रतिष्ठा और गौरव को अक्षुण्ण रखने का दायित्व तमाम ईसाई देशों पर है। अमेरिका जैसे महाबली देश में भी शासन अध्यक्ष का चुनाव पोप के संदेश से प्रभावित होता है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति को यदि किसी केंद्र से साँस्कृतिक दृष्टि से धर्मांतरण रूपी गंभीर खतरा हो सकता है, तो वह इटली और उसके हृदयप्रदेश में स्थित वेटिकन ही है।

असहिष्णुता का इतना आग्रह रोमन साम्राज्य में ही देखा जा सकता है कि गैलीलियो को सिर्फ अपनी मान्यता नहीं बदलने के लिए मृत्युदंड स्तर की प्रताड़ना का भागी बनना पड़ा। गैलीलियो का कहना था कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा लगाती है, सूर्य पृथ्वी के आसपास नहीं घूमता। क्योंकि यह बात धर्मग्रंथों में लिखे विवरणों से मेल नहीं खाती, इसलिए धर्मगुरुओं ने गैलीलियो से अपना मत बदलने और क्षम माँगने के लिए कहा। गैलीलियो ने न तो अपना मत बदला और न ही माफी माँगी। इस अपराध के लिए न केवल अपनी गलती सबके समक्ष स्वीकारने को कहा गया, प्रचंड प्रताड़ना भी दी गई। इतनी क्रूर और आक्रामक रोमन सभ्यता का अंत होना ही था। उस सभ्यता के गर्भ से निकली ईसायत का नैतिक पक्ष बहुत उज्ज्वल नहीं है। यद्यपि ईसामसीह ने आध्यात्मिकता का संदेश दिया। लोगों को ईश्वरीय प्रेरणा के अनुसार जीने दुखी-दरिद्रों की सेवा करने और पतितों को उबारने की उनकी शिक्षा ने करोड़ों लोगों के जीवन में सुख-शाँति का प्रकाश उत्पन्न किया। इस तथ्य के साथ यह भी सही है कि ईसायत की ओट में साम्राज्य फैलाने के जितने भी प्रयत्न हुए, उनके मूल में बर्बरता और अत्याचार ही है। इन अत्याचारों के चलते हजारों लोगों को जिंदा जला दिया गया। लाखों लोगों को अपनी परंपरा से विच्छिन्न कर दिया गया।

मिश्र, रोम और यूनान में किसी समय ज्ञान-विज्ञान की ऊँचाइयाँ मापी गई हो और राजतंत्र-लोकतंत्र का विकास हुआ हो, लेकिन भारत की साँस्कृतिक धरोहर की तुलना में वे सभ्यताएं बौनी ही सिद्ध होती है। यूरोपीय सभ्यता तो उसके आगे कुछ भी नहीं है। जिन्हें लोग चरवाहों का संगीत कहते रहे, वैदिक ज्ञान में से जर्मन, फ्राँस और इटली के वैज्ञानिकों ने विलक्षण गणितीय फार्मूले ढूंढ़ निकाले हैं। यूरोपीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला वैदिक गणित हिसाब लगाने में कम्प्यूटर को भी पीछे छोड़ देता है। गणितज्ञ लेले ने लिखा है कि विज्ञान की दृष्टि से वेदों का अध्ययन किया जाए, तो निश्चित ही संभव है कि बिना किसी उपकरण के हम इलेक्ट्रॉनिकी को पीढ़ियों पीछे छोड़ दें।

राजनीतिक दृष्टि से भारत कभी एक संगठित राज्य नहीं रहा। चंद्रगुप्त मौर्य,, विक्रमादित्य, अशोक, हर्ष और सम्राट अकबर को छोड़कर किसी भी युग में उसका अधिकाँश भाग एक शासनसूत्र में नहीं बंध सका। इसे संगठन की कमी मानें, तो अलग बात है, अन्यथा संघीय ढाँचे का ही प्रभाव कहना चाहिए कि न तो सिकंदर और न ही मोहम्मद गौरी या चंगेजखाँ, तैमूरलंग, नादिरशाह आदि बादशाह हिमालय से समुद्र तक फैले देश को पैरों तले रौंद ही सके। सिकंदर को पूर्वी सीमा पर दाँत खट्टे कर देने वाले प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। उसे यह मालूम हुआ कि आगे पुरु से भी ज्यादा जुझारू योद्धा हैं, तो उसे पीछे लौट जाना पड़ा। कहते हैं कि सीमा पर मिली चोट ने उसे इतना तोड़ दिया था कि बेबीलोन में एक मामूली से बुखार के कारण उसकी मृत्यु हो गई।

मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली में गुलामवंश की नींव रखी, तो सिर्फ संघीय ढाँचे के कारण ही भरत उसकी मुट्ठी में नहीं जा सका। यदि पूरा देश उस समय एक केंद्रीय शासन के अधीन होता तो पृथ्वीराज की पराजय समूचे भारत को दासता की जंजीरों में जकड़ सकती थी। बाद में तुगलक, अकबर, औरंगजेब ओर यहाँ तक कि अंगरेजों के समय में भी एकछत्र शासन स्थापित नहीं हो सका। सिर्फ इसलिए कि दूसरे क्षेत्रों में समर्थ चुनौतियाँ मिलती रही थी। अकबर और औरंगजेब जैसे चक्रवर्ती सम्राटों को अपना पूरा समय विद्रोहों को दबाने में लगाना पड़ता था।

आठ सौ वर्ष की गुलामी साधारण नहीं है। विभिन्न देशों और संस्कृतियों ने दो-चार आक्रमणों और सौ-पच्चास सालों में ही दम तोड़ दिया, तो फिर भारत किस आधार पर जीवित रह सकता, रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि यहाँ की आध्यात्मिकता ने उसे जीवित रखा। राजनीतिक दृष्टि से समझें, तो शायद निराश होना पड़े। लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से देखें, तो उसी ने अमित जिजीविषा प्रदान की। अध्यात्म प्रधान होने के कारण ही भारत ने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। यहाँ से धर्म का संदेश लेकर असंख्य भिक्षु-संन्यासी दिग्दिगंत में गए। उनके पीछे-पीछे राजसत्ता तलवार लेकर कभी नहीं गई।

भारत ने धर्मप्रचारक भेजे और समूचे एशिया को अध्यात्म से आप्लावित कर दिया। प्रचारक नौकाओं में ग्रंथ लेकर गए, समुद्री थपेड़ों को सहा, उनके कारण डूबे-उतराए लेकिन उन्होंने कभी उपनिवेश नहीं बनाए, क्योंकि यहाँ नेतृत्व धर्मचेतना के हाथों में रहता था। इस तथ्य को निरूपित करते हुए डेविड फ्राले ने लिखा है, “कोई भी राष्ट्र अपने भीतर विद्यमान उन प्रवृत्तियों को बाहर प्रकट करने के लिए अनिवार्य रूप से प्रवृत्त होता है, जो उसके स्वभाव से मेल खाती हैं, उसके प्रमुख विचार को व्यक्त करती हैं। भारत के मूर्द्धन्य स्थान पर महान् संत और धार्मिक व्यक्ति दिखाई देते हैं, जो महानता की सबसे अधिक आश्चर्यजनक और अविरल गौरवान्वित पंक्ति की रचना करते हैं। उनके कारण भारत जीवित दिखाई देता है। ठीक वैसे ही जैसे रोम अपने योद्धाओं राजनेताओं और शासकों में जीवति दिखाई देता है।” प्राचीन भारत के ऋषि सबसे आगे थे और शूरवीर उनके पीछे-पीछे चलते थे। बाद के मध्ययुग में सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाली पंक्ति में रामानुज, नानक, चैतन्य, रामदास, कबीर, तुकाराम आदि को जानते हैं।

धार्मिक-आध्यात्मिक प्रति के अग्रिम पंक्ति में होने का अर्थ यह नहीं है कि भारत राजनीति अथवा समाज के अन्य क्षेत्रों में पिछड़ा था। यहाँ भी साम्राज्य बने हैं और लोकप्रिय शासन की मिसालें कायम हुई है। ज्ञात इतिहास के प्रारंभ युग में ही शासन जनता के द्वारा नियंत्रित और संचालित होता दिखाई देता है। जनता से संचालित होने का अर्थ यह नहीं है कि वास्तविक शासन जनसाधारण के हाथों में है। असल बात यह है कि जब जनता को यह भरोसा है कि उसके स्वीकार अथवा अस्वीकार का प्रभाव पड़ेगा, तो वह निर्द्वंद्व भाव से अपनी सम्मति देती है।

यह उदात्त भावना आध्यात्मिक विरासत और ऋषि मुनियों के दिए गए संस्कारों के कारण ही आ सकती है। जिन्हें भारत की अमरता का रहस्य जानना हो वे यहाँ के अध्यात्म में ढूंढ़े।


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