संवत्सर अर्थात् नियति से सामंजस्य

April 2000

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पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रजापति ब्रह्म ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सृष्टि का आरंभ किया। तथ्य को यों भी कहा जा सकता है कि जिस दिन सृष्टि का उद्भव हुआ उस दिन को चैत्र का शुक्ल प्रतिपदा मान लिया गया। वह दिन वर्ष का पहला दिन था। ईस्वी सन् ईसा के जन्म के साथ शुरू होता है। मुहम्मद साहब ने जिस दिन मक्का से मदीना की ओर प्रस्थान किया, उस दिन से हिजरी सन् की शुरुआत होती है। शक, भारत, सप्तर्षि, बुद्ध, महावीर, फसली आदि संवत्सरों का आरंभ किसी न किसी ऐतिहासिक घटना की वर्षगाँठ से होता है। भारतीय अथवा वैदिक संवत्सर का आरंभ किसी ऐतिहासिक घटना की स्मृति नहीं कराता वरन् वह सृष्टि के आरंभ का स्मरण कराता है। उसमें नीति है कि जिसका आरंभ होता है, उसका अंत भी सुनिश्चित है। “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं........” के अनुसार मनुष्य को भी अपने जन्म, जीवन और उसके समापन को स्मरण रखना चाहिए।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होने वाली मान्यता में वर्ष में सृष्टि के उद्भव, संचालन और समाहार के महत्वपूर्ण सूत्र बिखरे हैं। कहा जा चुका है कि पहले से काई पंचाँग तैयार नहीं था, जिये देखकर ब्रह्मा ने सृजन आरंभ किया। तथ्य और तत्व की दृष्टि से सृष्टि का सर्जन, नियामक नियंता अनादि अनंत है। इसलिए उसकी सूचना का भी आरंभ और अंत नहीं है, लेकिन देश और काल की सीमाओं में बँधे मनुष्य को अनादि, असीम सहज ही समझ नहीं आता। इसलिए आरंभ की कल्पना करनी पड़ती है। यह व्यवहार की सुविधा के लिए है। काल्पनिक ही सही, एक प्रस्थान बिंदु निश्चित हो जाने पर अस्तित्व में प्रवेश सुगम हो जाता है। वर्षमान अथवा संवत्सर की मान्यता भी एक प्रस्थान बिंदु नियत करने के लिए हैं।

आशय यह भी नहीं है कि अस्तित्व में प्रवेश के लिए संवत्सर की कल्पना की गई। चूँकि कल्पना है इसलिए उसका कोई अर्थ ही नहीं है। अपने शुद्धतम रूप में सरल रेखा का कोई अस्तित्व नहीं है। जो भी खींची जाएगी, वह रेखा टेढ़ी होगी उसमें मोटाई भी होगी, इसलिए वह आयताकार भी होगी। सरल रेखा चह है, जिसकी लंबाई तो हो, लेकिन मोटाई न हो। कठिनाई वह है कि मोटाई नहीं होगी, तो दिखाई कैसे देगी। इसलिए स्वीकार किए बिना चारा नहीं है कि रेखा में न्यूनतम मोटाई भी कितनी ही सरल हो, खिंची तो पृथ्वी पर ही जाएगी। पृथ्वी गोल है, इसलिए किसी भी दूरी पर उसका समतल सपाट होना संभव ही नहीं है और परमात्मा के सृजन को समझने के लिए असीम अनादि सृष्टि के संवत्सर की धारणा भी सरल रेखा की तरह व्यावहारिक आवश्यकता है।

वर्ष प्रतिपदा अर्थात् वह दिन जब सृष्टि का आरंभ हुआ आदि में जुड़े संदर्भों के साथ कुछ पौराणिक ऐतिहासिक मान्यताएँ भी है। इन मान्यताओं का अर्थ है। संवत्सर के रूप में मान्य संदर्भों के विक्रम, माव और शक आदि संवतों के लिए अलग दिन नियत हैं। इस वर्ष 7 अप्रैल 2000 को आरंभ हो रहे नए विक्रमी संवत् के साथ राष्ट्रीय गौरव की एक स्मृति जुड़ी हुई है। इस दिन सम्राट् विक्रमादित्य ने सिंधु नदी के पार से आ रहे शक और हूण आक्रमणकारियों को आत्यंतिक रूप से सीमा पार खदेड़ा था। उस विजय की स्मृति में ही विक्रमीय संवत्सर का प्रवर्तन किया गया।

संवत् के रूप में शुरू हुए नए प्रचलन से पहले भी तिथियों और महीनों की गणना प्रचलित थी। विक्रमादित्य ने उसमें कोई फेरबदल नहीं किया। आवश्यक राजसूय और अश्वमेध का आयोजन कर प्रचलन को शास्त्रीय पारंपरिक मान्यता दिलवा दी। जिन विक्रमादित्य के नाम से यह संवत् प्रसिद्ध है, उनकी ऐतिहासिकता पक कई विद्वान प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इतिहासकारों की दृष्टि में उन विक्रमादित्य का अस्तित्व हो या न हो, लोकस्मृति में वे जीवित हैं। आज भी विक्रम के न्याय और पराक्रम की कहानियां सिंहासन बत्तीसी और वेताल पच्चीसी की गाथाओं के रूप में कही-सुनी जाती हैं। कहने सुनने वालों के लिए उनके सही गलत में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, वे जो कहानियाँ कहते हैं, उनकी प्रेरणा और आश्वासन ही उनके लिए पर्याप्त हैं।

तर्क और प्रमाणों के आधार पर कुछ लोगों के द्वारा विक्रमादित्य के अस्तित्व को नाकारा जा सकता है, लेकिन उनके समकालीन कालिदास, भवभूति, वराहमिहिर आदि साहित्यकारों और विज्ञानियों को कहाँ ले जाएँगे। इन विभूतियों के अवदान को कैसे विस्मृत किया जा सकता है। कालिदास के काव्य, भवभूति के नाटक और वराहमिहिर के गणित, नक्षत्रविधा, ज्योतिष के क्षेत्र में किए शोध को नहीं नकारपाने के कारण ही पश्चिमी इतिहासकारों को विक्रमादित्य का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ा। उन्होंने ऐसे विक्रमादित्य का अस्तित्व सन् 370 से 413 के बीच माना और कहा कि इस राजा के पहले से प्रचलित संवत् को अपना नाम चस्पा कर दिया।

जो भी हो, पराक्रम, शौर्य और विधा-वैभव के रूप में विक्रम अथवा मालव संवत् अपने समय की स्वर्णिम स्थितियों का जीता-जगता प्रमाण है। विक्रम संवत् के 137 वर्ष बाद शालिवाहन ने एक और संवत् आरंभ किया। सम्राट कनिष्क का नाम भी इससे जुड़ा हुआ है। संध्यावंदन, यज्ञ-अनुष्ठान, पूजा-पाठ और अन्य धर्मकृत्यों में संकल्प पढ़ते हुए दोनों का स्मरण किया जाता है। एक संवत् का प्रचलन अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि वह गौरव का बोध उतना नहीं जगाता जितना विक्रमी। फिर भी हमारे राष्ट्रीय स्तर पर शक-संवत्सर की मान्यता है।

ऐसा नहीं है कि संवत्सर का आरंभ कोई भी सम्राट् विद्वान या राजप्रमुख यूँ ही कर देता हो। ‘काल विस्तर’ ग्रंथ में इसके लिए आवश्यक कसौटियां दी गई हैं। उनके अनुसार सिर्फ वहीं शासक संवत् का आरंभ कर सकता है, जिसके राज्य में कम से कम दो तिहाई लोग पवित्र स्वभाव और श्री संपन्न हों, कोई किसी का धन नहीं छीनता हो, किसी के यश-वैभव को ललचाई दृष्टि से नहीं देखता हो और राज्य में भीतरी या बाहरी दुरभिसंधियाँ नहीं रची जाती हों। ‘वायुपुराण’ ‘नक्षत्र आभरण’ और ‘संवत् अधिशासन’ ग्रंथों में एक सरल सी कसौटी दी गई है कि सिर्फ वही शासक वर्ष प्रतिपादन कर सकता है, जिसके राज्य में कोई ऋणी न हो। आशय स्पष्ट है कि जिस शासन में प्रजा दैहिक, दैविक और भौतिक पाप तापों से सर्वथा मुक्त है, वही संवत् चला सकता है।

शास्त्रीय कसौटी अथवा प्रामाणिकता के आधार पर विक्रम से पहले एक ही संवत् प्रचलित हुआ। उसे ‘कंलिसंवत्’ कहते हैं। इसका प्रवर्तन राजा परीक्षित ने किया। लेकिन यह भाद्रपद मास में कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को आरंभ हुआ। शास्त्रीय उल्लेख है कि उस दिन कलि ने परीक्षित के राज्य में प्रवेश किया था। परीक्षित ने उसे पृथ्वी छोड़कर कहीं और जाने का आदेश दिया। कलि ने कातर होकर शरण माँगी, तो उसे मदिरा, छूत, वेश्यालय और वधिकगृह में रहने की छूट दी। चार स्थान कम पड़े। कलि ने एक स्थान और चाहा, तो सुवर्ण को भी वास बनाने दिया। भागवत् के व्याख्याकार बताते हैं कि इन प्रतीकों के अनुसार काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद कलि के वासस्थान हो गए। इन विकारों से जो ग्रस्त होगा, उसे कलि सताएगा। संयम और मनोविकारों पर नियंत्रण रखने वालों पर कलि का कोई प्रभाव नहीं होगा। यह व्यवस्था बनाने के कारण ऋषि-मुनियों ने परीक्षित को कलि संवत् के प्रवर्तन की अनुमति दी। इन दिनों 5100 वाँ कलिसंवत् चल रही है, जिसे ‘युगाब्द’ नाम से भी कहा जाता है।

संवत्सर और चन्द्रमा की गति के अनुसार महीनों का विभाजन बार बार संशोधन के बाद निर्धारित नहीं हुआ। आर्षग्रंथों में आए वर्णनों को बारीकी से देखें, तो पाएँगे कि इस निर्धारण के पीछे प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जीवन बिताने की भावना हैं। ज्योतिर्विधा का समूचा आधार ही आकाश में स्थित ग्रह-नक्षत्रों और उनकी गतियों से तालमेल बिठाने का विज्ञान हैं। चंद्रमा मन का द्योतक है। पृथ्वी के समीप अथवा दूर उसकी स्थिति और सूर्य का प्रकाश लेकर चमकने की उसकी नियति मनुष्य ही नहीं, उन प्राणियों को भी प्रभावित करती है, जो भाव संवेदनाओं से जीते हैं।

सत्ताईस नक्षत्रों में से चंद्रमा जब जिसके साथ एक विशेष दूरी और कोण पर होता है, उसी के अनुसार महीने का नाम निश्चित किया जाता है। कारण यह है कि चंद्रमा सिर्फ सूर्य से ही प्रभावित नहीं होता, नक्षत्रों से भी ऊर्जा ग्रहण करता और उन्हें ऊर्जा देता भी रहता है। नक्षत्रों की संख्या सत्ताईस है। जब जिस नक्षत्र से वह विशिष्ठ संबंध (दूरी और कोण) बनाता है, तो ज्योतिष की भाषा में उसे चंद्रमा का नक्षत्र कहते हैं। उदाहरण के लिए, इस वर्ष प्रतिपदा को अश्विनी नक्षत्र का उदय हो रहा है, तो ज्योतिष की भाषा में कहेंगे कि चंद्रमा अश्विनी का हैं। महीनों का निर्धारण करते हुए ऋषियों ने सही तथ्य ध्यान में रखा। पूर्णिमा चंद्रमा की सबसे सशक्त तिथि है। उस दिन वह अपनी सभी कलाएँ बिखेरता है। उस दिन जिस नक्षत्र का उदय होता है, संबंधित माह उसी नाम से संबोधित किया जाता है। स्पष्ट है कि चैत्र पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र ही उदित रहता है। अगली पूर्णिमा को विशाखा इसीलिए वह माह वैशाख। ज्येष्ठा, आषाढ़, भद्रा, अश्विनी, कृतिका आदि नक्षत्रों की उदय स्थिति के अनुसार ही ज्येष्ठ, आषाढ़ आदि नाम निश्चित किए गए।

संवत्सर का मान, महीनों और तिथियों की गणना भारत में जिस बारीकी से की गई, उसे देखकर यूरोपीय विज्ञानवेत्ता भी दाँतों तले उँगली दबाते हैं। ग्रेगोरियन कैलेंडर में चार सौ साल पहले तक संशोधन किए जाते रहे, फिर भी वह सर्वांगपूर्ण नहीं है। भारतीय संवत्सर न केवल सर्वांगपूर्ण हैं बल्कि वैज्ञानिक और जीवन को सामंजस्य से भर देने वाली विधा भी है। यह उचित ही है कि सरकारी कामकाज को छोड़कर जीवन के महत्वपूर्ण निर्धारण जैसे पर्व-त्योहार, संस्कार-मुहूर्त आदि इसी के आधार पर निश्चित किए जाते हैं।


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