सामान्य जीवन में तंत्रविद्या की झलक

April 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विचार या संकल्पशक्ति का एक साधारण सा अनुभव भी जिन लोगों को हुआ है, उन्हें तंत्र का प्रारंभिक विज्ञान समझने में कठिनाई नहीं होगी। यहाँ दी जा रही घटनाएं बहुत साधारण हैं। प्रत्येक के जीवन में इनसे मिलते-जुलते अनुभव होते रहे होंगे। एक घटना सन् 1999 के अगस्त माह की है। मुँबई की एक मध्यवर्गीय कालोनी में उत्तरप्रदेश के एक कस्बे से गए पत्रकार अपने आपको स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। एक साँध्य दैनिक में काम मिला। सुबह सात बजे काम पर निकल जाते और रात दस-ग्यारह बजे लौटते। दफ्तर से तो दोपहर बाद तीन बजे ही छुट्टी हो जाती, बाकी समय वे अपना परिचय-संपर्क बढ़ाने में लगाते।

शहरी जिंदगी, कस्बे से आया व्यक्तित्व और महानगर का उन्मुक्त जीवन। यार-दोस्तों की संगति में उन्हें शराब का चस्का भी लग गया। एक दिन नशे में धुत्त चले आ रहे थे कि गाड़ी ने टक्कर मार दी। जब तक ब्रेक लगे तब तक बायाँ हाथ पहिये के नीचे आ गया। सिर भी बुरी तरह जख्मी हुआ। बेहोश हो गए। कुछ लोगों ने अस्पताल पहुँचाया और जेब में पड़े मिले परिचयपत्र के आधार से दफ्तर में खबर दी। उपचार शुरू हुआ। हालत गंभीर थी, लेकिन घर का पता नहीं था, किसे खबर दें। इस घटना के तीन दिन बाद इन पत्रकार की माँ आश्चर्यजनक रूप से अस्पताल में पहुँच गई।

आश्चर्य इसलिए कि उनकी माँ मुँबई से करीब डेढ़ हजार किलोमीटर दूर कस्बे में रहती थी। ठेठ ग्रामीण महिला। बेटा मुँबई में रहता है, कहाँ रहता है, कुछ नहीं मालूम। जिस दिन बेटा दुर्घटनाग्रस्त हुआ, उस दिन से विचित्र अनुभवों से गुजर रही थी। कहने लगी-शाम आठ-नौ बजे ऐसा लगा जैसे बाबू (बेटे का दुलार का नाम) जोर-जोर से बुला रहा है। उस पुकार में छह-सात वर्ष की अवस्था का ध्यान आता है, जब बाबू बाहर किसी से लड़-झगड़कर आता, तो माँ को उंगली पकड़कर ले जाता और प्रतिद्वंद्वी को अपना जोर दिखाता था।

शुरू में तो ध्यान नहीं दिया, लेकिन बार-बार इस तरह का ध्यान आया। तड़के तक मन जाने क्यों कहने लगा कि बाबू तकलीफ में है। मदद के लिए पुकार रहा है। सुबह होने तक प्रतीत होने लगा कि छह-सात वर्ष का बाबू उंगली पकड़कर कहीं ले जा रहा हैं माँ बाबू के पिता से कहकर, नहीं माने तो जिद कर चल दी। मुँबई जाने वाली ट्रेन में बैठ गए। वे बिना अता-पता जाने मुँबई के स्टेशन पर उतरे। माँ को स्टेशन पर उतरते ही लगा कि बाबू उंगली पकड़कर फिर आगे खींचता हुआ-सा चल रहा है। उसकी बताई दिशा और रास्ते पर चलते हुए पति-पत्नि दोनों अस्पताल पहुँच गए। वह पुत्र को इस हालत में देखकर स्तब्ध रह गए।

नई दिल्ली में दिसंबर 99 में हुए पराविद्या सम्मेलन में कई बुद्धिजीवी और तर्कवादियों ने यह घटना सुनी। वे पत्रकार भी उस सम्मेलन में थे। उन्होंने बताया कि नीम बेहोशी की हालत में वे भी अपने को पाँच-छह वर्ष का अनुभव कर रहे थे। माँ को उंगली पकड़कर खींचते हुए ला रहे थे। जब होश आया, तो माँ को सिरहाने खड़ा देखकर चकित रह गए।

राजधानी के ही साहित्यकार हैं विजयकाँत। उनकी पत्नी को किसी ज्योतिषी ने कह दिया कि पति को अकेले कहीं मत जाने देना। दिल्ली से बाहर तो कतई नहीं। कभी कहीं जाना भी पड़े, तो दूसरों के हाथ का बना भोजन नहीं करें, इस तरह की सावधानी बरतना। वरना तुम्हारा पति विपदा में पड़ जाएगा। वह इस संसार से जा भी सकता है। जिस किसी ने भी यह सीख दी, उसने कोई युक्तिसंगत कारण नहीं बताया। पत्नी कमलेश्वरी ने भी इस सीख पर सोच-विचार नहीं किया। उसकी गाँठ बाँध ली। औसत स्तर की पढ़ी-लिखी घरेलू किस्म की महिला थी। कुलीन और संस्कारी होने के साथ घर-परिवार पति-परमेश्वर तक ही अपना संसार मानती थी। सीख सुनने के बाद अगले मंगलवार को पति के साथ कनाट प्लेस स्थित हनुमान मंदिर गई। पति हनुमान को इष्ट मानते हैं, बिना कोई भूमिका बाँधे पहले वचन लिया और फिर संकल्प करा दिया कि दिल्ली से बाहर वे कहीं भी अकेले नहीं जाएंगे। यहां रहते हुए किसी के हाथ का बना भोजन नहीं करेंगे, होटल और भोज-स्वागत-समारोह आदि अवसरों पर भी नहीं।

संकल्प लिए हुए करीब बारह वर्ष हो गए। साहित्यिक पत्रकारिता कहीं आए-जाए और भोजन चाय-पानी के बिना गति नहीं पकड़ती। लेकिन विजयकाँत भी पूरी तरह पत्नीभक्त ठहरे। वचन दे दिया, तो दे दिया। दिल्ली से बाहर आज तक अकेले नहीं गए। दिल्ली में भी किसी के यहां खाना नहीं खाया। 1992 में कमलेश्वरी गर्भवती हुई। तीसरा बच्चा था। उसे जन्म देने के बाद दो सप्ताह तक अस्पताल में रहना पड़ा। पत्नी की स्थिति बिस्तर से उठने लायक नहीं थी। वचन दिया था इसलिए विजयकाँत ने दो सप्ताह तक भोजन नहीं किया। फल आदि से ही काम चलाया।

1987 में संकल्प लिया था। निभता रहा या कहें कि निभाना पड़ा। दो-चार बार चोरी से कुछ खाने की कोशिश की, लेकिन घर आकर देखा, तो पत्नी बीमार पड़ी मिली। एक बार विजयकाँत खाते ही खुद बीमार पड़ गए। अस्वस्थ दशा में घर पहुँचे, तो पत्नी ने फटकारा, हनुमान जी के सामने कहा था कि कुछ मत खाना। देख लिया उसका परिणाम। पिछले साल अप्रैल में कमलेश्वरी बीमार पड़ी और बहुत इलाज कराने के बावजूद बच न सकी। मरते-मरते कह गई, मैं तुम्हें वचनमुक्त करती हूँ। कहीं भी जा सकते हो, खा सकते हो। मैं तुम्हारी पहरेदारी करती रहूँगी। चिंता मत करना।

इन घटनाओं का तंत्र के गुह्य विज्ञान से सीधा कोई संबंध नहीं है। इनसे सिर्फ शरीर के साथ मन और संकल्प की, भाव की सामर्थ्य को एक झलक के रूप में समझाता कसता है। पहली घटना माँ और पुत्र के संबंधों की प्रगाढ़ता के साथ उनके अंतर्संबंधों की परिचायक है, तो दूसरी घटना समर्पण, चिंता और निष्ठा की। तंत्रविद्या के जानकार कहते हैं कि साधना के क्षेत्र में सफल होने के लिए इन्हीं चीजों की आवश्यकता है। संकल्प, प्रगाढ़ संकल्प मन की सोई हुई शक्तियों को जगा देता है। मन आकाश में संव्याप्त ऊर्जा को सोखता और घनीभूत करता है। घनीभूत ऊर्जा प्रकृति के हज न्रपरह करे गति देती है और दीर्घकाल में मिलने वाले परिणाम कुछ ही समय में दिखाई देने लगते हैं।

तंत्रशास्त्र की मान्यता है कि दिक् और काल महाशक्ति के ही विलास हैं। मूल रूप में उनका अपना अस्तित्व नहीं है। दिक् अर्थात् दिशाएं, विस्तार, स्थान। काल का अर्थ है समय। कोई भी विकास, परिणति अथवा फलश्रुति इन दो तत्वों पर ही आश्रित होती है। तंत्रविद्या इन दोनों को ही साधने का काम करती है। साधने का एक निश्चित विधान है। उसे संपन्न करते हुए कोई भी व्यक्ति अभीष्ट फल प्राप्त कर सकता है, परा अथवा अपरा प्रकृति के नियम किस तरह काम करते हैं ? यह जानने की भी उन्हें जरूरत नहीं होती। तंत्रविद्या से जिन्हें लाभ उठाना है। उनके लिए तकनीक भर जानना काफी है। गुह्य ज्ञान-विज्ञान तो तंत्रविद्या के आचार्य अथवा सिद्ध ताँत्रिक ही जानते हैं।

विद्या के रहस्य नहीं समझ पाने के कारण ही कई बार उसकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। तंत्र से संबंधित घटनाओं और सिद्धियों को लोग अंधविश्वास का नाम दे देते हैं। तंत्र के नाम पर ठगी और धोखाधड़ी चलती भी खूब है। लेकिन इसका कारण विद्या का खोखलापन नहीं, उसके संबंध में फैला हुआ अज्ञान है।

वस्तुतः तंत्र को अंधविश्वास का फतवा देने की उतावली इसलिए भी हो जाती है कि लोग इसे चमत्कार और जादू-टोने की विद्या मान लेते हैं। निश्चित ही तंत्रक्षेत्र में चमत्कार किए जा सकते हैं, लेकिन वह विलक्षण और सर्वोच्च स्तर पर पहुँचे लोगों द्वारा विधेयात्मक स्तर पर ही संभव हैं। सामान्य जानकारों को छोटे-मोटे प्रयोगों तक ही सीमित रहना पड़ता है। उनके लिए चमत्कार और विलक्षण दावों को लेकर प्रतिबंध है।

संदेह और अविश्वास का एक कारण इस विद्या से शोध-अनुसंधान का लोप हो जाना भी है। आचार्य गोविंद शास्त्री ने इस विद्या के चमत्कार नहीं दिखाई देने का कारण बताते हुए कहा है - सिर्फ उपेक्षा ही है, जिसके चलते तंत्र जैसी शक्ति मनुष्यजाति का भला नहीं कर पा रही है। लोग इसे अविश्वास की दृष्टि से देख रहे हैं, लोग समग्र तंत्रविद्या को अविश्वसनीय करार देकर क्षणभर में छुटकारा पा लेते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि परमाणु ऊर्जा के निर्माण, विकास एवं उस तंत्र को सुचारु चलाने में कितने लोग का कर रहे है। वैज्ञानिक जगत् की उन पर कितनी आस्था है, पूरी व्यवस्था को चलाने के लिए कितना पैसा खर्च किया जा रहा है, इसके अतिरिक्त वान के क्षेत्र में उन्नति के लिए जितना धन खर्च किया जा रहा है, जितने लोग लगे हुए हैं, तीनों साधन झोंके जाते हैं, उसका सौवाँ हिस्सा भी इस विद्या में लगाया जाए तो तंत्र आज भी अपनी प्रामाणिकता सिद्ध कर सकता है। मनुष्य के शो-संताप हर सकता है और उसे सुख-सुविधाओं से संपन्न कर सकता है। आवश्यकता इस विद्या से जुड़े लोगों के सक्रिय होने की-विज्ञानसम्मत आधार पर उसके प्रस्तुतीकरण की होगी। निश्चित ही ऐसा होगा एवं इस आध्यात्मिक ऊर्जा का नियोजन समाज के रचनात्मक उत्कर्ष हेतु होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118