तपकर कुँदन बनने की प्रक्रिया - परमपूज्य गुरुजी की अमृतवाणी

April 2000

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ

ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥

देवियों ! भाइयों !

भगवान् बु से उनके शिष्यों ने पूछा - मनुष्य इतना सशक्त और समर्थ होते हुए भी आखिर गिर क्यों पड़ता है ? अधःपतित क्यों हो जाता है ? उन्होंने घटना यह दिखाई कि अपने कमंडलु को पानी में फेंक दिया। कमंडलु तैरने लगा। शिष्यों से पूछा- यह कमंडलु डूबेगा कि नहीं ? उन्होंने कहा - यह क्यों डूबेगा ? यह डूबता थोड़े ही है। कमंडल डूबने वाला नहीं है। यह तो तैरता रहेगा। भगवान् बुद्ध ने दुबारा उसको उठाकर उसमें एक सुराख कर दिया पैंदे में, फिर उसको पानी में फेंक। धीरे-धीरे पानी उस कमंडल में भीतर भरने लगा और वह डूब गया। शिष्यों से पूछा - भाई ! अभी तुम कह रहे थे कि कमंडल डूबता नहीं है, यह तो डूब गया। शिष्य कहने लगे- महाराज जी ! आपने सुराख कर दिया इसके भीतर। सुराख कर देंगे, तो डूबेगा ही। ठीक बात है- भगवान् बुद्ध ने जवाब देते हुए शिष्यों से कहा- इनसान के भीतर सुराख हो जाए, उसमें पानी भरने लगेगा और वह डूब जाएगा और सुराख न हो, तब ? तब न पानी भरेगा और न वह डूबेगा। एक ये उदाहरण भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को दिया। एक और भी दिया उन्होंने। उन्होंने कहा- अगर तुम्हारे पास गाय हो और गाय बहुत दूध देनी वाली हो, बहुत दूध देने वाली गाय का दूध आप दुहें, लेकिन जिस बरतन में आप दुहें, उसमें सुराख हों और छेद हो तब ? तब फिर क्या होगा बताओ ? शिष्यों ने कहा - महाराज जी ? फिर वह दूध चलनी में रुकेगा थोड़े ही। चलनी में जो सुराख है, उससे तो नीचे जमीन पर टपक जाएगा, कपड़े भी मैले हो जाएँगे और ग्वाले के हाथ कुछ भी नहीं लगेगा, सिवाय थकान के। उँगलियों को बेचारा दबोचता रहा, थनों को दबाता रहा, गाय भी परेशान ! लेकिन दूध पीने का वक्त जब आया, तब यह मालूम पड़ा इसमें कुछ भी नहीं है। नीचे से बरतन का दूध टपक गया।

यह उदाहरण बताता है कि आदमी के जीवन में अगर बहुत सारे सुराख हों, तो उसकी संपदाएँ, उसकी विभूतियाँ और उसकी विशेषताएँ- सब खत्म हो जाएँगी। फिर कुछ बचेगा ही नहीं, इसलिए उन्नति की बात करना तो ठीक है, आदमी को वैभव उपार्जित करना तो ठीक है, लेकिन उसके साथ-साथ में ये भुला मत दीजिए। क्या न भुलाएँ ? यह मत भूलिए कि आपको सुराखों को बंद करना है, अपने छिद्रों की रोकथाम करनी है, अपनी मलीनताओं और अपनी असंयमितताओं के ऊपर हावी होना है, तो क्या करें ? मैंने बताया न आपको ! चार बात करनी पड़ेगी आपको। तक, जिसका कल जिक्र किया गया था, चार प्रकार के होते हैं। एक तप इंद्रिय तप कहलाता था, दूसरा जो है, ब्रह्मचर्य को भी तप कहते हैं। तीसरा समय के संयम को तप कहा जाता है। चौथा धन के संयम को तप कहा जाता है और विचारों के संयम को तप कहा जाता है। विचारों का संयम - एक। पैसों का संयम - दो। समय का संयम - तीन और इंद्रियों का संयम - चार। तपश्चर्या की चार धाराएँ है। आपको इन चार धाराओं में से सबसे पहली धारा का यहाँ बुला करके अभ्यास कराया गया और जिह्वा को तपस्वी बनाया जा रहा है। स्वाद के लिए भटकने वाली जिह्वा, इसने आपके स्वास्थ्य को खराब कर दिया, आपके मन को खराब कर दिया। आप काबू में रख सके और लगाम को लगा सकें...... अगर आप घोड़े को लगाम नहीं लगाएँ तब ? ऊँट को नकेल नहीं लगाएँ तब ? आप बैल के नाक में रस्सी नहीं डाले तब ? हाथी के ऊपर अंकुश नहीं लगाएँ तब ? तब फिर आप समझ लेना, ये जानवर आपके लिये बड़े खौफनाक साबित होगे और आपको तहस-नहस करेंगे। इसलिए आपको नियंत्रण में करने के लिये सब जरूरी है। इंद्रियां हमारी है तो बहुत अच्छी, इनसे ही सब काम चलता है, लेकिन इनको उच्छृंखल बनने दे, रोकथाम ना करें, तपस्वी ना बनाये, संयमी न बनाएँ तो इंद्रियां आपके लिये मुसीबत खड़ी कर देगा। जैसे आप खानपान के बारे में असंयम बरतते रहे है, उसका परिणाम ये हुआ है कि पेट खराब हो गया। पेट खराब होने के परिणाम यह हुआ कि स्वास्थ्य खराब हो गया स्वास्थ्य खराब होने का दोष किसी को मत दीजिये। इस सृष्टि में जितने जानवर है इनमें से कोई बीमार नहीं पड़ता। मरते तो सब है, पर बीमार कहाँ पड़ते हैं ? कबूतर बीमार पड़ते हैं ? लोमड़ी खरगोश जो जंगल में उछलते है, कभी बीमार पड़ते देखे है आपने ? कोई नहीं पड़ता है। एक ही बेवकूफ जानवर है, जिसका नाम है - मनुष्य। यह ही बीमार पड़ता है ? क्यों पड़ता है ? सिर्फ एक वजह है उसके बीमार पड़ने की, वह अपनी जीभ को इतना छुटल बना देता है कि वह अभक्ष्य खाती रहती है, जरूरत से ज्यादा खाती रहती है, जो चीजें नहीं खानी चाहिये वह खाती रहती है। पेट काम नहीं करता, पेट हजम नहीं करता, मशीन खराब हो जाती है और शरीर कमजोर और बीमार पड़ जाता है। अगर आप जीभ पर काबू कर लें तब ! तो आप विश्वास रखिये, आपको खोया हुआ स्वास्थ्य मिल जायेगा। अगर आप जीभ पर काबू कर लें, तो आप दिन-दिन कमजोर होते गये, या होते जायेंगे, उस से आप निजात पा सकते हैं।

इसी प्रकार से ये जो अपना मन है, मन भी इसी का है। अन्य से विकसित होते हुए, अन्य से माँस बनता है, रक्त बनता है, हड्डियाँ बनती है, पर अंततः अन्य से मन बनता है। अंतिम चरण जो अन्य का है, वह मन है “जैसा खाएँ अन्य, वैसा बने मन” - ये सौ फीसदी सही है। आप अभक्ष्य खाते रहिये, तमोगुणी चीजें खाते रहिए, माँस खाते रहिए, दूसरी घिनौनी चीजें खाते रहिए, फिर आप देखिये आपको मन कैसा चंचल हो जाता है ? आप नशेबाज होइए, फिर आप देखिये आपका मन कैसा चंचल हो जाता है ? आपको मन स्थिर करना कैसा कठिन पड़ जायेगा। मन अपने आपे में नहीं है। इंधन नीचे डालते हैं तब भगौने के पानी में उबाल आता है। मन तो ऊपर भगौने में पानी जैसा है। नीचे आप जैसे लकड़ी डालेंगे वैसा ही तो उबाल आयेगा। अगर आपने बराबर अभक्ष्य खाने का क्रम जारी रखा है, तो आपका मन बराबर चंचल बना रहेगा। आपको कभी ऐसा मौका नहीं देगा कि आप मन कि स्थिरता को रख पाये। इसलिये जीभ पर काबू पाइये, स्वादेंद्रियां पर काबू पाइये। स्वाद पर आपने काबू पा लिया, तो मन को संभालने और शरीर कि बीमारियों से मुकाबला करने में आप सफल हो जायेंगे। जीभ कि बात चल पड़ी, तो जीभ को एक और हिस्सा है। जीभ को दो इंद्रियों में बाँटा गया है - एक इसको स्वादेंद्रिय भी कहते हैं और एक इसको वाक्इंद्रिय भी कहते हैं। वाणी पर संयम, वाणी पर अगर आपका संयम नहीं है, चाहे जिससे, चाहे जैसे शब्द बोलते हैं, कडुए बोलते है- इसका परिणाम क्या हुआ ? इसका परिणाम कभी अच्छा नहीं हो सकता “ वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।” कौआ अपने कड़वे वचन से सबको ना खुश करता रहता है और कोयल अपने मीठे वचनों से सबकी प्यारी बनती रहती है। जीभ से हमको दूसरों को सम्मान देना चाहिये, दूसरों कि इज्जत और अपनी नम्रता का ध्यान रखना चाहिये। क्रोध और आवेश में कई आदमी ऐसे शब्द बोलते रहते हैं जो मुनासिब नहीं होते। उसका परिणाम यह होता है, कितने आदमी बैरी हो विद्रोही हो जाते हैं। आपको मालूम है न द्रौपदी ने व्यंग और उपहास में ऐसे शब्द कह दिये थे कि कौरवों को बहुत बुरा लगा। उसका अंतिम परिणाम महाभारत के रूप में आया जीभ कटारी के तरीके से है। जीभ में बिच्छू का डंक बताया गया है। जीभ में साँप का जहर बताया गया है। जब कड़वा बोलते हैं तब ! नहीं बोलते हैं तब ! मीठा बोलते हैं तब ! यह जीभ न जाने आपके लिये कितने काम कि हो सकती है। इससे मोहब्बत कीजिये, दूसरों कि इज्जत कीजिये, अच्छे परामर्श दीजिये, लोगों का उत्साह बढ़ाइये। लोगों की हिम्मत को तोडिये मत। लोगों कि हिम्मत बढ़ाने वाली बात कहिये। अगर आप ऐसा कर लेते हैं फिर मैं आपको तपस्वी कहूंगा।

ये वाणी का तप हुआ, जिह्वा का तप हुआ। अब चलिए, इसमें एक और आती है। इंद्रियों में एक और बात आ जाती है। इंद्रियों के तप में ब्रह्मचर्य का तप भी आता है। वैसे तो इंद्रियां दस है, पर आप झंझट में मत पड़िये दो को ही मान लीजिये। एक जीभ मुख्य है और दूसरी वाली कामेंद्रिय मुख्य है। कामेंद्रिय का मतलब केवल यौन कर्म ही नहीं होता, यौन कर्म के अलावा है। ये इंद्रियां सब मस्तिष्क से संबंध रखती है। काम वासना के बारे में आपको विचार आते रहते हैं। उनको देख कर आपके दिमाग खराब होते रहते हैं। अमुक अंग को और अमुक अंग कि खूबसूरती और बदसूरती को ढूंढ़ते रहते हैं। इसका परिणाम क्या होता है यह मानसिक दुराचार है। किसी भी औरत के बारे आपके मन में कोई संस्कार या विचार आते हैं तो इसका मतलब है कि प्रकाराँतर से पवित्रता का नुकसान हो गया है। आंखों से ही ब्रह्मचर्य का क्षय होता है। आप कुदृष्टि से देखते रहिये, स्त्रियों को देखते रहिये, बहिन बेटी और माँ कि इज्जत मत कीजिये, अपनी धर्मपत्नी को भी रमणी और कामिनी की दृष्टि से देखिए, तो देखिए प्रत्येक औरत आपके लिए डाकिन और नागिन का काम करती है या नहीं और इन्हीं को आप बेटी मान पाएँ तब ? बहिन मान पाएँ तब ? माता मान पाएँ तब ? सहधर्मिणी मान पाएँ तब ? तब ! यही महिलाएँ आपके लिए देवी की तरह से सहायक होंगी। आप चाहें स्त्रियों को देवी बना लीजिए, चाहे डाकिन बना लीजिए- आपकी मरजी की बात है। स्त्रियाँ भी आपके तरीके से साधारण मनुष्य है। आप अपना दृष्टिकोण अगर पवित्र नहीं रखेंगे, तो कुदृष्टि का परिणाम यह हुआ कि स्त्रियाँ आपके लिए कितनी हानिकारक हो गई है और आपके ब्रह्मचर्य को खंडित करती है और आपके पतनोन्मुख बनाती है और आपकी मनःस्थिति को नष्ट-भ्रष्ट करती है। अगर आप ये अपने मन के ऊपर देख पाएँ, फिर आप कैसे अच्छे-अच्छे हो सकते हैं। आपने गाँधारी का नाम सुना है न ! आँख पर पट्टी बाँध ली थी और इंद्रियों का संयम करना शुरू कर दिया था और अपने बेटे को लोहे का बना दिया था। आपने दमयंती का नाम सुना है ? राजा नल की पत्नी का नाम दमयंती था। जंगल में अकेली रह रही थी और बहेलिया उससे छेड़खानी करने लगा। बस, छेड़खानी के समय दमयंती ने आँख उठाकर देखा, तो बहेलिया जलने लगा और खत्म हो गया। आपको गाँधी जी बात मालूम है ? बत्तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने ब्रह्मचर्य लिया था और अपनी पत्नी को माता कहने लगे थे। ये ब्रह्मचर्य का प्रताप था कि दुबले पतले और कमजोर होते हुए भी मनःशक्ति के हिसाब से ऐसे थे, जैसे कि कोई बड़ा पहलवान भी नहीं हो सकता था। आपको भीष्म पितामाह की बात मालूम है ? भीष्म पीतामाह शैया पर पड़े रहे, छह महीने बाद तक पड़े रहे और कहा मुझे फुरसत नहीं है। कितने तीरों से घायल थे ! ये कैसे हो पाया ? वे ब्रह्मचारी थे। ये इंद्रियनिग्रह की बात है। स्वामी दयानंद के विषय में सुना है आपने ? एक बार दो साँड लड़ रहे थे। स्वामी जी ने उन खूनी सांडों के दोनों के सींग पकड़कर इस तरीके से दबोचा और फेंका कि एक इधर गिरा और एक उधर गिरा। ये सामर्थ्य किसकी होती है ? ब्रह्मचर्य की। हनुमान को आप नहीं जानते ? हनुमान जी का ब्रह्मचर्य था, जिससे कि सामान्य बंदर से हनुमान बन सके। शंकराचार्य के बारे में यही कहा जाता है। शंकराचार्य ब्रह्मचारी न होते तब ? शादी-विवाह करके बहुत सारे बच्चे पैदा करते तब ? काम-वासनाओं में अपने आपको उलझाए रहते तब ? भगवान् शंकर का अवतार बनने का मौका नहीं मिलता तब ? लक्ष्मण जी ने मेघनाद को मारा था। मेघनाद को यह वरदान मिला था कि उसे वही आदमी मार सकता है, जिसने चौदह वर्ष का ब्रह्मचर्य पालन किया हो। लक्ष्मण जी ने चौदह वर्ष का ब्रह्मचर्य पालन किया था। अपनी पत्नी से भी दूर रहे और सीता जी को माता के समान मानते रहे। उनके आभूषण जमीन पर पड़े हुए मिले। रामचंद्रजी ने पूछा कि इन जेवरों में से सीताजी का कौन सा है ? उन्होंने बिछुए को तो पहचान लिया, ये सीताजी का बिछुआ है, लेकिन गले के हार को नहीं पहचान सके, कानों के कुंडलों को नहीं पहचान सके। उन्होंने कहा कि हमने कान तो कभी देखे नहीं हैं उनके, यद्यपि घूँघट नहीं मारती थीं। ये लक्ष्मण जी के ब्रह्मचारी होने का सबूत है, जिसकी वजह से वे इतना बड़ा काम करने में समर्थ हो सके। ये संयम है, कौन सा वाला ? ये इंद्रिय संयम की बात मैं कह रहा था।

अभी मुझे आपसे और कहना है। समय का संयम समय आपकी संपत्ति है। जीवन जो बँधा है, ये समय से गुँथा हुआ है। समय का अर्थ होता है - जीवन। जीवन का अर्थ होता है - समय। आप समय के एक एक लमहे को, एक एक मिनट को इस तरह से खर्च कीजिए, जिसमें आपका एक भी लम्हा व्यर्थ और बेकार खर्च न होने पाए। ये कैसे संभव है ? ये इसी तरह संभव है। कैसे ? जैसे कि संसार के प्रत्येक महापुरुष ने अपने अपने समय का ठीक से नियमन किया है। विनोबा 23 भाषाओं के विद्वान थे, कैसे ? कैसे उन्होंने भूटान की यात्राएँ कर ली -कन्याकुमारी से लेकर रामेश्वरम् तक। ये कैसे हुआ ? वे बराबर समय का विभाजन करते रहे, अन्य भाषाओं को सीखते-पढ़ते रहे। अब्राहम लिंकन जब सड़क से निकलते थे, तब लोग अपनी घड़ियों का सही करते थे। उनके उठने और टहलने का जो समय था, उसे उनकी लंबी टांगों की आवाज से लोग समझ लेते थे कि लिंकन जा रहे है। बिलकुल समय पर जाते थे, क्या मजाल समय का एक लमहा भी खराब करते। ये क्या है ? श्रम की शक्ति को, समय की शक्ति को आप समझते हो, मूल्य समझते हों, तो न जाने आप क्या से क्या कर सकते हैं ? मनोयोग वगैरह आप लगाएँ तब ? मनोयोग लगाएँ, तो आपने देखा है न ! मन लगाकर परिश्रम करें तब ? मन लगाकर परिश्रम करने और बिना मन के परिश्रम करने वाले का हर काम खराब, हर काम बेकार, हर काम घटिया और मन लगाकर काम करने वाले का काम कैसा होता है, आप देख सकते हैं।

बया पक्षी होता है, एक-एक तिनके को ढूंढ़कर लाता है, उसकी लंबाई-चौड़ाई नापकर के लाता है, हिसाब से लाता है, मोटाई को देखकर के लाता है और जहाँ लगाता है घोंसले में, बड़ी सावधानी से और मनोयोग से लगाता है। दूसरी ओर घोंसला बनाने वाला है - कबूतर। उल्टी-पुलटी, टेढ़ी-तिरछी लकड़ी ले आता है, जहाँ-तहाँ रख लेता है और अपना घोंसला बना लेता है। हवा चलते ही आमतौर से घोंसले उसके, किसके ? कबूतर के, जमीन पर गिरते हैं और बच्चे सब तबाह हो जाते हैं। इसलिए अक्सर देख गया है, कबूतर किसी पुराने मकान में या खंडहर में या कुएं में घोंसला बनाते हैं,ताकि हवा का झोंका उनके घोंसले को बरबाद न कर सके, लेकिन बया को ये परेशानी नहीं है। बया बच्चे अपने घोंसले में बैठे रहते हैं और बड़ा मजा उड़ाते रहते हैं। क्या मजाल कि एक बूँद पानी भी चला जाए। क्यों ? उसने मन लगा करके घोंसला बनाया हैं। यही बात आप हर किसी के बारे में देख सकते हैं। मन लगाकर काम करना- ये आदमी के सम्मान का प्रश्न होना चाहिए। ये प्रतिष्ठा का प्रश्न है। आदमी के बारे उसे कोई कामचोर कहे, हरामखोर कहे, तो समझाए ये बहुत बड़ी बेइज्जती है। वह विश्राम भले ही करे, इसमें हर्ज नहीं है, लेकिन विश्राम टाइम पर होना चाहिए। आलसियों के तरीके से काम को इधर छोड़ दिया, अधूरा छोड़ दिया, आधा छोड़ दिया, अधूरा छोड़ दिया- आप ऐसा मत कीजिए। समय का संयम पालिए।

तीसरा हमारा संयम है - धन को संयम। पैसा भगवान् ने आपको दिया है। इसलिए आपको नहीं दिया है कि आप बेसिलसिले से खर्च करें। आप कमाएँ तो चाहे जितना, कमाने के ऊपर रोक नहीं है लेकिन ईमानदारी से कमाएँ और शराफत के तरीके से खर्च करें। बेसिलसिले का खर्च मत कीजिए। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धाँत आपने सुना है न ! जो सादा जीवन जिएगा, उच्च विचार उसी के हिस्से में आएँगे। उसका विलासी जीवन, खर्चीला जीवन, ठाठ-बाट का जीवन दिखावे का जीवन जितना ज्यादा होगा, उसका खर्च, पैसे का खर्च और समय के खरचे इतने ज्यादा हो जाएँगे कि उससे ही बेचारे के पास न कुछ समय बच सकता है, न पैसा बच सकता है। खर्चीली जिंदगी, विलासी जिंदगी, ऐश की जिंदगी, अकर्मण्यता से भरी हुई जिंदगी, ठाठ-बाट से भरी जिंदगी, ना ये नहीं। आप अपने पैसे को इसमें मत खर्च कीजिए। समय को भी खर्च मत कीजिए। आप किफायतशारी का जीवन जिएँ। संत जीवन वह है, जिसमें औसत भारतीय स्तर को अंगीकार किया है। औसत भारतीयों का जो स्तर है, आप अपने खरचे का स्तर उसी हिसाब से रखिए। आप भी इस मुल्क के निवासी हैं न ! जो बाकी तीन चौथाई आदमी जिस ढंग से गुजारा करते हैं, आप क्यों नहीं कर सकते ? ईश्वरचंद्र विद्यासागर यही करते थे। उनकी पाँच सौ रुपये की आमदनी थी। पचास रुपये में अपना गुजारा चलाते थे और साढ़े चार सौ रुपये बच्चों के लिए, विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति और दूसरे कामों के लिए खर्च कर देते थे। आप क्यों नहीं कर सकेंगे। किफायत से रहिए, कम खर्च में रहिए। ये मत कहिए, जो आदमी खर्चीली जिंदगी जीते हैं, वह शक्तिशाली हो जाते हैं, बुद्धिमान हो जाते हैं, मजबूत हो जाते हैं। आप बेकार की बात मत कहिए। सही बात ये है, जो आदमी जितना खर्चीला होता है, उतना ही दुर्व्यसनों में उसका धन खर्च होता है। दुर्व्यसनों की कीमत पर क्या-क्या खरीदा जाता है ? ईर्ष्या खरीदी जाती है, बीमारियाँ खरीदी जाती है, बेअकली खरीदी जाती है, आक्रोश खरीदा जाता है, सब चीजें तो खरीदी जाती हैं। आपके पास पैसा फालतू है ? खर्च करेंगे, तो नशे जैसी चीजों पर खर्च करेंगे ? नशे जैसी चीजों पर खर्च करेंगे, तब सेहत गँवा देंगे, तब अपनी अक्ल गँवा देंगे, तब अपनी औलाद गँवा देंगे, तब अपनी इज्जत गँवा देंगे, तब आप सब कुछ गँवा देंगे। ये कैसे हो सकता है ? ये फिजूलखर्ची की बात है। पैसा फिजूल में खर्च होगा, तो सब आफत क्यों न आएँगी, जाइए। इसलिए पैसे के बारे में आप हमेशा किफायत से कसत लीजिए। आदमी होशियार है समझदार है कि बेअक्ल है- इसकी पहचान सिर्फ एक है कि वह खर्च कैसे करता है ? कमाने को तो आप कुछ भी कमा लेते हैं, सट्टा मिल जाए तब, लाटरी खुल जाए तब, जमीन में गड़ा हुआ धन मिल जाए तब, कोई बाप बहुत ज्यादा धन देकर मर जाए तब, तो बेवकूफ आदमी भी धनवान बन सकता है, लेकिन समझदारी की परख एक है उसने खर्च कैसे किया ? खर्च करना बहुत समझदारी का काम है। आप फिजूलखर्ची करेंगे, तो अपने घर और औलाद के लिए परंपरा छोड़ जाएँगे, जिससे कि वह तबाह हो जाए। इसलिए आप खर्चीली जिंदगी न जिएँ। ईमानदार आदमी मितव्ययी हो सकता है। जो फिजूलखर्च हो, उसको बेईमानी करनी पड़ेगी, फालतू पैसा लायेगा कहाँ से ? रिश्वत लेनी पड़ेगी, चोरी करनी पड़ेगी, अमुक काम करना पड़ेगा, लेकिन जो आदमी किफायतशार है, वह आसानी से ईमानदारी की जिंदगी जी पाएगा। ये तीसरा वाला तप था।

चौथा वाला एक और भी तप है, उसको अगर आप करने लगें, तो आपका हमारे यहाँ साधनासत्र में आ करके उपासना करना सार्थक हो जाएगा। यह तप विचार-संयम है। विचारों को भटकने मत दें। विचारों की शक्ति आप समझते नहीं हैं। पैसे की शक्ति समझते हैं, विचारों को क्यों नहीं समझते ? विचार असल में सबसे बड़ी शक्ति हैं। विचारों का अपव्यय मत होने दीजिए। विचारों को आवारा कुत्ते के तरीके से मत होने दीजिए। विचारों को एक दिशा में लगाइए। विचारों को ऐसे लगाइए, जैसे बंदूक की नली में कारतूस लगा करके एक दिशा में छोड़ते हैं, तो किसी निशाने पर लगता है। बारूद को फैला दें तब ? तब कैसा अस्त−व्यस्त हो जाएगा। अर्जुन के बारे में आपने सुना नहीं ? अर्जुन एक तरीके से मछली का कोई हिस्सा देखता था, इसलिए उसका निशान लगाना संभव हो सका। जो दूसरे राजकुमार थे, जो मछली का संपूर्ण सिर-पैर देखते थे, उनका कोई निशान नहीं लगा। आपको अपने विचारों को अर्जुन के तरीके से एकाग्र रखना चाहिए। एकाग्रता का मतलब केवल यह नहीं है कि आप इनको रोक लें। एकाग्रता का मतलब केवल यह नहीं है कि आप इनको रोक लें। एकाग्रता का मतलब यह है कि एक दिशा में, अच्छी दिशा में, वैज्ञानिक के तरीके से इन्हें नियोजित कर देना। वैज्ञानिक विचार करते रहते हैं, पर एक दिशा में विचार करते हैं,फालतू विचार ही नहीं है। साहित्यिक है, ज्ञानी हैं, तपस्वी है और विचारशील लोग हैं - सब एक दिशा में अपने विचारों को लगाए रखते हैं और एक दिशा में विचार रखने का परिणाम ये होता है कि इसके कई अच्छे नतीजे निकलते हैं। सूरज की किरणें चारों ओर फैलती रहती है। आतिशी शीशे के ऊपर इकट्ठा करके उनको एक जगह पर केंद्रित कर दें, तब आप देखते हैं न। आग जल जाती है। इसी तरीके से आदमी के फैले हुए विचार, आवारागर्दी के विचार, अनावश्यक विचार, बेसिलसिले के विचार आदमी की मनःशक्ति कितनी मूल्यवान है, सबको बरबाद कर देते हैं। आप ऐसा मत होने दीजिए। विचारों को जहाँ-तहाँ मत घूमने दीजिए। आप अभ्यास डालिए। आप सिद्धाँतों पर विचार करें। सृजनात्मक विचार करें। आप ऐसे विचार करें, जिससे कि आपका भविष्य बनता हो अथवा कोई योजना बनती हो। आप ऐसे क्रमबद्ध विचारों का अभ्यास डालिए। बिना क्रम के विचारों को, जो भी आएँ, उनको हटा दीजिए। विचारों से विचारों की लड़ाई कराइए। कुविचार जब आपके मन में आते हों, तो सदाचार के विचारों की सेना बनाकर रखिए और उन्हें गुत्थमगुत्था करा दीजिए। दुराचार के विचार जब आएँ, तो आप सदाचार और संयम के विचारो को आगे बढ़ा दीजिए, गुत्थमगुत्था करा दीजिए, तो विचार भाग जाएँगे। विचारों से विचारों को काटिए, विचारो को विचारों से सँभालिए। विचारों को संपत्ति समझिए। विचारों का संयम कीजिए। विचारों को ऊपर उठने दीजिए। विचारों को उथल-पुथल में गिरने से रोक दीजिए। अगर आप ऐसा करेंगे, तो मैं समझूँगा कि आप विचारों के क्षेत्र में तपस्वी हैं।

आपको चारों तप करने चाहिए। इंद्रियनिग्रह का तप - एक, समय-संयम का तप- दो, धन का संयम और धन का बजट बनाकर खर्च करने का तप - तीन अपने विचारों को एक विषय विशेष में रोके रहने का उपक्रम करना चाहिए - यह चौथा तप है। इसका नाम विचारसंयम है, विचार तप है। आप तपस्वी जीवन जिएँ। जरूरी नहीं है कि आप धूप में खड़े हों, खाना खाना बंद कर दें और अमुक काम करे। ये जरूरी है कि अपने जीवन के जो सुराख है, जो आपकी गलतियां और कमजोरियाँ हैं, उनको रोकें और जो अच्छाइयाँ आपके भीतर नहीं हैं, उनको बढ़ाने की कोशिश करें। अगर आप ऐसे काम में लगातार लगे रहेंगे, तब मैं आपको तपस्वी कहूँगा। यहाँ साधना शिविरों में बुलाने का उद्देश्य था, आपको तपस्वी बनाना। आप यहाँ से जाएँ, तो तपस्वी होकर जाएँ। यहाँ हैं, तो तपस्वी होने का अभ्यास करे। तपश्चर्या में कितनी शक्ति भरी पड़ी है ? इसका वर्णन मैंने अभी आपसे किया। आप चाहें, तो इसका अनुभव करके स्वयं भी देख सकते हैं कि तपस्वी कितने समर्थ होते हैं, कितने शानदार होते हैं ? आपको वैसा ही बनना चाहिए। आज की बात समाप्त।


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