लोकसेवी का आचरण और व्यवहार कैसा हो

April 2000

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संपर्क में आते ही मनुष्य के जिस कृत्य का सर्वप्रथम प्रभाव पड़ता है वह व्यवहार ही है। किसी व्यक्ति की वेशभूषा, आकृति और उसके बोलने का ढंग ही प्रथम संपर्क में आते हैं। खानपान की आदतें, रहन-सहन, प्रकृति स्वभाव और आचार-विचार तो बाद में मालूम पड़ते हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व का पहला परिचय व्यवहार से ही मिलता है। इसलिए कहा गया है कि व्यवहार मनुष्य की आँतरिक स्थिति का विज्ञापन है। कई लोग दीखने में बड़े सौम्य दिखाई देते हैं, आकृति बड़ी शाँत और सरल होती है, लेकिन जैसे ही कोई उनसे संपर्क करता है, तो उनकी वाणी से वे सभी बातें व्यक्त हो जाती है, जो उनके स्वभाव में दुर्गुणों के रूप में शामिल है।

असंस्कृत मन अशिष्ट, भद्दे और फूहड़ व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। कुसंस्कारी चित उसी प्रकार व्यवहार के माध्यम से अपना परिचय दे देता है और पहले संपर्क की प्रतिक्रिया अंत तक अपना प्रभाव कायम रखती है, यहाँ तक कि वह बाद के सभी अच्छे प्रभावों को भी धूमिल कर देता है। इसलिए लोकसेवी को अपने व्यक्तित्व का गठन करते समय आचरण, रहन-सहन और स्वभाव को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने के साथ-साथ व्यवहार के द्वारा भी अपनी आदर्शवादिता का प्रभाव छोड़ना चाहिए।

शिष्टता और शालीनता सद्व्यवहार के प्राण हैं। व्यवहार में इन गुणों का समावेश होने पर ही पता चलता है कि व्यक्ति कितना संस्कारी है। प्रायः लोग आत्मीयता जताने या अपने को दूसरों से बड़ा सिद्ध करने के लिए अन्य व्यक्तियों से आदेशात्मक शैली तू-मेरे का संबोधन करते देखे जाते हैं। इसका यह अर्थ होता है कि व्यक्ति में सेवाभाव होते हुए भी अच्छे संस्कारों की कमी है अथवा केवल वह अपने अहंकार का पोषण करने के लिए इस क्षेत्र में आया है। हर किसी से आप या तुम का संबोधन तथा बातचीत करने में निर्देशात्मक शैली के स्थान पर सुझाव शैली का उपयोग सिद्ध करता है कि लोकसेवी कोई संदेश लेकर पहुँच रहा है, न कि अपने बड़प्पन या विद्वता की छाप छोड़ने के लिए। शिष्टता का अर्थ है- प्रत्येक के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार और शालीनता अर्थात् प्रत्येक के प्रति स्नेह और आत्मीयता की उच्चस्तरीय अभिव्यक्ति।

स्नेह और आत्मीयता तो सर्वत्र व्यक्त की जाती है। असंस्कृत वर्ग के दो मित्र मिलते हैं, तो वे भी स्नेहप्रदर्शन और प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। लेकिन उनकी परिभाषा में जो फूहड़पन होता है वह अभिव्यक्ति के स्तर में गिरावट ला देता है। लोकसेवी को तो अपने आचरण और व्यवहार द्वारा भी लोकशिक्षण करना है, साथ ही अपने व्यक्तित्व का स्तर भी ऊँचा उठाना है। अतः यह आवश्यक है कि व्यवहार में स्नेह-प्रेम का समावेश करने के साथ-साथ शिष्टता और शालीनता भी समाविष्ट की जाए।

शिष्टता के साथ शाँतिपूर्वक बोलने और आवेशग्रस्त न होने की आदत भी लोकसेवी के स्वभाव का अंग होनी चाहिए। वैसे बहुत से लोग स्वाभाविक रूप से ही कठोर और कटुभाषी होते हैं। जोर से बोलना या कटूक्तियाँ कहना उनके स्वभाव में ही होता है, लेकिन यह भी संभव है कि वे अपने सिद्धाँतों पर दृढ़ रहने की दृष्टि से कठोर व्यवहार कर रहे हों, किंतु स्वभावगत कटुता तो लोकसेवी के स्वभाव में होनी ही नहीं चाहिए। सिद्धाँतों के प्रश्न पर भी लोकसेवी के स्वभाव में होनी ही नहीं चाहिए। सिद्धाँतों के प्रश्न पर भी लोकसेवी का व्यवहार कटु-कर्कश न हो। दृढ़ता बात अलग है और कटुता बात अलग है।

दृढ़ता का अर्थ है- अपने सिद्धाँतों और मर्यादाओं पर अडिग रहने की निष्ठा। कई अवसर आते हैं, जब सिद्धाँतों से विचलित होने का भय उपस्थित हो जाता है। लोग अपने स्नेह और श्रद्धावश उस तरह का आग्रह भी करते हैं। लोगों की श्रद्धा व्यक्ति के प्रति केंद्रीभूत होकर उसे सम्मानित करने, अभिनंदित करने के लिए भी उमड़ सकती है और व्यक्ति पूजा का क्रम चल पड़ता है। ऐसी स्थिति में अपने आदर्श पर दृढ़ रहने , मर्यादाओं का पालन करने के लिए दृढ़ रहना तो आवश्यक है, पर कटु होने की कही भी आवश्यकता नहीं है।

अपने सिद्धाँतों पर दृढ़ होते हुए भी लोगों के आग्रह से, जिनके कि मर्यादा टूटने का डर रहता है, विनम्रतापूर्वक बचा जा सकता है। महात्मा गाँधी के जीवन में ऐसे कई प्रसंग आए, जबकि उन्हें अपने सिद्धाँतों की रक्षा के लिए दृढ़ता बरतने की आवश्यकता हुई। परंतु गाँधी जी बिना किसी प्रकार की कटुता व्यक्त किए, अपने सिद्धाँतों पर दृढ़ बने रहे। उनके विदेशी मित्रों ने एक बार प्रीतिभोज का आयोजन किया। उस समय गाँधी जी विदेश में पढ़ रहे थे। प्रीतिभोज का आयोजन करने वाले मित्र उनके सहपाठी ही थे। भोज में माँस भी पकाया गया और परोसा जाने लगा, तो उन्होंने मना करते हुए कहा कि मैं इसका इस्तेमाल नहीं करता। मित्रों ने समझाया कि इसमें क्या नुकसान है। डॉक्टर लोग तो इसे स्वास्थ्यवर्द्धक बताते हैं।

गाँधी जी ने कहा- “परंतु यह मेरा व्रत है कि मैं कभी माँसाहार न करूंगा।” मित्र वाद-विवाद पर उतर आए और तर्क देने लगे। बहुत संभव था कि गाँधी भी वाद-विवाद करने लगते। मित्रों ने यह कहकर तर्क युद्ध छोड़ने का प्रयास किया कि उस व्रत की क्या उपयोगिता जिससे लाभदायक कार्यों को न किया जा सके। तो गाँधी जी ने यह कहकर विवाद को एक ही वाक्य में समाप्त किया- “इस समय मैं व्रत की आवश्यकता, उपयोगिता, का बखान नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मेरे लिए अपनी माँ का दिया गया वह वचन ही काफी है, जिसमें मैंने माँस न खाने और शराब न छूने का संकल्प लिया था।”

गाँधी के मित्र वहीं चुप रह गए। वहाँ सिद्धाँत रक्षा भी हो गई और कटुता भी उत्पन्न न हुई। लोकसेवी को अपनी बात नम्रता और शालीनतापूर्वक कहनी चाहिए। यह नम्रता और शालीनता अंतःस्तल से व्यक्त होनी चाहिए, अन्यथा व्यवहार में बनावटीपन भी हो सकता है। कई लोग आँतरिक क्षेत्र में द्वेश-दुर्भाव रहते हुए भी मीठा बोलने और अपने को हितैषी जाहिर करने का अच्छा अभ्यास कर लेते हैं। ठग और जालसाज अपने मन में दूसरे व्यक्ति को ठगने, उसका धन छीनने की भावना रखते हुए भी बाहर से ऐसा व्यक्त करते हैं कि चतुर से चतुर व्यक्ति भी उनसे धोखा खा जाते हैं। लेकिन इस बनावटीपन का प्रभाव कुछ देर तक ही रहता है। उस क्षणिक प्रभाव में ही ठग, जालसाज अपना मतलब हल कर चलते बनते हैं।

लोकसेवा का उद्देश्य तो स्थायी प्रभाव छोड़ना और व्यक्ति की जीवन दिशा मोड़ना है। इसलिए उसका व्यवहार आँतरिक भावनाओं से संयुक्त होना चाहिए। सोचा जा सकता है कि हमारे अंतःकरण में जब सद्भावनाएं विनयभाव, स्नेह और प्रेम, सौजन्य उत्पन्न होगा, तब लोगों से अच्छा व्यवहार करेंगे। यह भी एक आत्मप्रवंचना है। लोकसेवी को अपने व्यवहार में आंतरिक गहराई तो लानी चाहिए, पर उसके लिए अंतःकरण में सद्भावनाओं के उदय तक अपने व्यवहार का स्तर गिरा ही नहीं रहने देना चाहिए, क्योंकि व्यवहार का उद्देश्य प्रभाव उत्पन्न करने के साथ-साथ शिक्षण करना भी तो है। व्यवहारकुशलता प्राप्त करने के साथ साथ आँतरिक निष्ठा के समावेश की साधना भी नियमित रूप से चलती रहे।

यदि आँतरिक एकात्मता उत्पन्न करने के प्रयास न किए गए, तो व्यवहार में बनावटीपन बना ही रहेगा और एक न एक दिन वास्तविकता सामने आने से न रुकेगी। बनावटीपन के लिए मिथ्याचरण के लिए कितना ही अभ्यास किया जाए, पर व्यक्ति का अपने मस्तिष्क पर जैसे ही नियंत्रण थोड़ा कम होता है, वैसे ही वास्तविकता प्रकट हो जाती है। एक छोटी सी घटना है, उत्तरप्रदेश के प्रमुख राजनेता, जो पर्वतीय क्षेत्र में पैदा हुए थे, एक बार गंभीर रूप से बीमार पड़े। उन्होंने आरंभ से ही हिंदी और अँगरेजी बोलने का अभ्यास कर रखा था। प्रायः वे अपने मित्रों और बोलने वालों से हिंदी तथा अँगरेजी में बाते किया करते थे। बीमार पड़ने पर काफी समय तक तो वे डॉक्टरों से अँगरेजी में बाते किया करते रहे, लेकिन थोड़ी देर में हिंदी बोलने लगे। स्वास्थ्य जैसे जैसे बिगड़ता गया वैसे वैसे मस्तिष्क पर उनका नियंत्रण कम होने लगा और स्थिति तो ऐसी आ गई कि वे अपने क्षेत्र की प्रचलित भाषा पर्वतीय भाषा में बोलने लगे। सुनने वाले लोग उनके मुँह से वह भाषा सुनकर आश्चर्यचकित हुए, क्योंकि उन लोगों ने, जो काफी समय से उनके साथ काम करते रहते थे, कभी वह भाषा उनके मुँह से नहीं सुनी थी।

कहने का अर्थ यह है कि बाहरी अभ्यास मस्तिष्क पर नियंत्रण रहने तक ही साथ देते हैं। मस्तिष्क पर से जैसे ही नियंत्रण हटा या कम हुआ, व्यक्ति के आँतरिक भाव दुर्गुण उभरकर सामने आ जाते हैं। यह जो मनोवैज्ञानिक का पक्ष है, इसे भली भाँति समझते हुए समाजसेवा के क्षेत्र में उतरने वाले हर व्यक्ति को अपने जीवन की व्यावहारिक पृष्ठभूमि पहले चिंतनक्षेत्र में आरोपित करने का अभ्यास कर लेना चाहिए। जैसे जैसे आँतरिक अभ्यास परिपक्व होने लगता है, मनःसंस्थान उन्हीं संस्कारों में ढल जाता है, जैसा कि बहिरंग के व्यवहार में उन्हें झलकना चाहिए। ‘स्वे स्वे आचरेण शिक्षयेत्’ का सिद्धाँत हमारे ऋषिगण हमें पढ़ा गए हैं। उसे हमें अच्छी तरह आत्मसात् कर अपनी जीवन-शैली में ढालने का प्रयास करते रहना चाहिए।


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