समग्र स्वास्थ्य का वरदान-आयुर्वेद का विज्ञान

April 2000

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आधुनिक समझी जाने वाली बेतुकी जीवनशैली ने इन दिनों जिन स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है, उनसे शायद ही कोई व्यक्ति बचने में समर्थ रह पाया हो। आधुनिक चिकित्सापद्धति भी इन समस्याओं के पूर्ण निदान की बजाय सिर्फ दबाने में ही सफल हो पाती है। ऐसी स्थिति में समस्याएं बाद में और भी विकराल रूप में उभर उठती है। संभवतः यही कारण है कि अब लोग फिर से प्राचीन चिकित्सापद्धति आयुर्वेद की ओर मुड़ रहे है।

आयुर्वेद के इतिहास पर नजर डालें, तो पता चलता है कि भारत में प्राचीनकाल से ही आयुर्वेद अत्यंत विकसित अवस्था में था। वेदों की अनेक शाखाओं के अध्ययन में आयुर्वेद संबंधी विचार पाए जाते हैं। नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाने वाले पाँच अनिवार्य विषयों में आयुर्वेद भी एक था। सुदूर हिंद एशिया, चीन, मध्य एशिया, मंगोलिया आदि देशों के छात्र जब नालंदा से लौटते तब भारतीय आयुर्वेद का ज्ञान भी अपने साथ ले जाते थे। यूरोपीय देशों में भी आयुर्वेद कम प्रतिष्ठित नहीं था। हाँ इतना अवश्य है कि भारतीय और यूरोपी देशों के चिकित्सा लेखकों की शैली में एक स्पष्ट अंतर रहा। जहाँ भारतीय लेखकों ने आयुर्वेद का इतिहास लिखते समय इसकी परंपरा, इसके आचार्य, प्रवर्तक तथा ग्रंथों की चर्चा विशेष रूप से की है, वहीं यूरोपीय विद्वानों ने आयुर्वेद के आचार्य व ग्रंथों की चर्चा संक्षेप में करके आयुर्वेद विषय का ही प्रतिपादन करने का प्रयास किया है। डॉ. सिम्मर की हिंदू मेडिसिन तथा डॉ. जौली की इंडियन मेडिसिन इसके उदाहरण है।

आयुर्वेद का इतिहास बताता है कि प्राचीनकाल में भारत के पड़ोसी देशों में परस्पर चिकित्साज्ञान का विनिमय भी होता था। जैसे तिब्बती भाषा में आयुर्वेद के ग्रंथ की रचना की गई थी। आठवीं सदी में भी बहुत-सी आयुर्वेदिक पुस्तकें तिब्बती भाषा में अनूदित की गई थी। बाद में इन्हीं पुस्तकों का अनुवाद मंगोलियन भाषा में भी हुआ था। आज भी तिब्बती चिकित्सा का मूल आधार आयुर्वेद है। श्रीलंका में तो आयुर्वेद को राष्ट्रीय चिकित्सा का दरजा प्राप्त है। वहाँ आयुर्वेद के विकास और नवीनतम अनुसंधान को प्राथमिकता दी जाती है। श्रीलंका में बौद्धधर्म के प्रवेश के साथ ही भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद ने भी प्रवेश किया था।

ईरान व अरब में भी आयुर्वेद के प्रचार के प्रमाण मिलते हैं। ईरान की चिकित्सा में उपयोगी वस्तु ‘पारसीक यवानी’ का सिद्धयोग में वर्णन आता है। हींग एवं नारंगी के गुणों का चरक व सुश्रुत में उल्लेख है। भारतीय चिकित्सा की पुस्तकें अवेसियन के समय ईरानी भाषा में अनूदित की गई, फिर इनका अरबी में अनुवाद हुआ। आबू-संसूर की पुस्तक में औषधि निर्माण के संबंध में भारतीय सामग्री आज भी सुरक्षित है। यह अरबी लेखक स्वयं भारत आया था। इसी प्रकार भारतीय द्रव्यगुण संबंधी निघंटु के नाम ग्रीस में बहुत पहले चले गए थे। ज्वर (बुखार) की आमावस्था, पच्यमानावस्था एवं पक्वावस्था का वर्णन भारतीय चिकित्सा की ही भाँति ग्रीक चिकित्सा में भी है। अंगरेजी चिकित्सा के जनक हिपोकेटस द्वारा बनाई गई प्रज्ञा, जो चिकित्सकों को कराई जाती है, वह पूर्णतः चरक संहिता में वर्णित वचनों की ही नकल है।

वर्तमान परिस्थितियों में निश्चित रूप से आयुर्वेद की प्रासंगिकता बढ़ी है। भारत के साथ-साथ एशिया के सभी देशों में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतियाँ लोकप्रिय हो रही है। पश्चिमी दुनिया के अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी आदि देशों में भी आयुर्वेदिक चिकित्साविधियों को अपनाया जा रहा है। एलोपैथिक चिकित्सक भी मानने लगे हैं कि आयुर्वेद में वात, पित्त, कफ के रूप में प्रकृति का वर्गीकरण वैज्ञानिक है। वात प्रकृति का संबंध संचरण से है। यह संचरण रक्त, श्वसन, विचार आदि का हो सकता है। पित्त का संबंध मेटाबोलिज्म यानि हारमोन, रक्त, जैव रसायनों और ऐंजाइमों से है। कफ प्रकृति का संबंध संरचनात्मक अर्थात् हड्डियों, ऊतकों की बनावट से है।

वात प्रकृति वायु व आकाश तत्व के योग का परिणाम है। ऐसे लोग दुर्बलता एवं गैस की बीमारी से पीड़ित होते हैं, साथ ही उन्हें नींद की शिकायत होती है व दिल की धड़कन भी अनियमित होती है। शरीर का तापमान कम रहता है एवं त्वचा शुष्क रहती है। पित्त दोष अग्नि व जलतत्वों के योग से पैदा होता है। इस दोष से ग्रस्त व्यक्ति गरमी से आक्राँत रहते हैं। पसीना अधिक आता है एवं एसीडिटी के शिकार होते हैं। कफ प्रकृति पृथ्वी एवं जल का संगम है। कफ का प्रकोप होने से शरीर में भारीपन रहता है। सरदी-जुकाम बार-बार होना, गले में कफ आना, खाँसी, शरीर में जकड़न एवं स्वाद के प्रति अरुचि इसके अन्य लक्षण हैं। आयुर्वेद के अनुसार, ये तीनों ही स्थूल व सूक्ष्म रूप में शरीर को चलाने वाले हैं। इन तीनों के स्वाभाविक रूप से रहने पर शारीरिक क्रियाएं ठीक तरह से चलती रहती हैं, लेकिन जब ये बिगड़ जाते हैं, तो रोग का कारण बन जाते हैं।

मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़े तीनों दोषों के अनुसार शरीर की प्रकृति पहचानकर, खान-पान का चयन करके रोगों से बचा जा सकता है। खाद्य वस्तुओं के स्वाद का इन तीनों ही दोषों पर असर पड़ता है। मीठी चीजों से वात व पित्त कम होगा, कफ बढ़ेगा। खट्टी चीजों से वात कम होगा पित्त बढ़ेगा। नमकीन चीजों का असर भी खट्टी चीजों जैसा ही होता है, कसैली चीजों के सेवन से वात दोष बढ़ता है, परंतु पित्त व कफ घटता है। तीखी वस्तुओं से वात, पित्त बढ़ते हैं, कफ कम होता है। इसी प्रकार पाचनक्रिया सुबह सूर्य निकलने के दो-तीन घंटे बाद से लेकर मध्याह्न तक तीव्र होती है। इसीलिए इस अवधि में गरिष्ठ प्रोटीन युक्त वस्तुएं खाई जा सकती है। मध्याह्न के बाद पाचनक्रिया शिथिल पड़ने लगती है। यही कारण है कि आयुर्वेद में शाम को हलके भोजन की आवश्यकता बताई गई है। रात को अधिक प्रोटीन खाने से नींद संबंधी विकार होने की संभावना बढ़ जाती है।

आज हम जिस शल्य चिकित्सा के गुण गाते नहीं थकते, उसके मूल में भी आयुर्वेद ही है। सुश्रुत को शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में, विभिन्न शल्यक्रियाओं के जनक के रूप में विदेशी वैज्ञानिकों द्वारा भी स्वीकार किया जाता है। प्रसव क्रिया में विलोम की स्थिति पर गर्भस्थ शिशु को शल्य क्रिया से निकालने की जो प्रक्रिया सुश्रुत संहिता में बताई गई है, उसी को आधार मानकर ही आजकल ऑपरेशन किए जाते हैं। परिवार-नियोजन, हार्निया, मोतियाबिंद जैसे रोगों की चिकित्सा या शल्य क्रिया की जानकारी एवं प्रयोगविधि का स्पष्ट वर्णन सुश्रुत संहिता में मिलता है।

जहाँ अन्य चिकित्सापद्धतियाँ सिर्फ मनुष्य के चिकित्सा पद्धति में स्वस्थ शरीर के लिए मानव के मानसिक व आध्यात्मिक अस्तित्व को भी मान्यता प्रदान की गई है। आयुर्वेद के अनुसार मन पर जब ईर्ष्या, द्वेश, भय, संदेह की भावनाएं अपना अधिकार जमाने लगती हैं, तब मन अशाँत व विचलित हो उठता है, जिसका नतीजा मधुमेह, हृदय रोग या मस्तिष्क की नसें फट जाने आदि रूपों में होता है। मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है- दूसरों के प्रति द्वेश विहीनता। दूसरों के चरित्र एवं व्यवहार पर अपने निजी मूल्याँकन से बचना। हर व्यक्ति में अच्छाई ढूंढ़ने का प्रयास करना। आध्यात्मिक स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण नियम है- अहं केंद्रित इच्छाओं का त्याग। ऐसी स्थिति में मन में न तो कोई विकार पैदा हो पाता है और शरीर को कोई व्याधि घेर पाती है। निश्चित रूप से आयुर्वेद भारतीय महर्षियों के द्वारा मानव को दिया गया समग्र स्वास्थ्य वरदान है। इसमें भारत की आध्यात्मिक संस्कृति की विशिष्ट प्राणऊर्जा संजोई है। देवसंस्कृति के प्रचार-विस्तार के लिए संकल्पित-समर्पित शाँतिकुँज ने आयुर्वेद के शोध एवं पुनरुद्धार में अपने कदम बढ़ाए हैं, ताकि देशकाल की सीमाओं से परे संपूर्ण मानवजाति इस ऋषिप्रणीत स्वास्थ्यपद्धति से लाभान्वित हो सके।


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