भगवान् बुद्ध बीमार थे। उन दिनों वे किसी से मिल भी नहीं रहे थे। इसी समय श्रेष्ठी सुभद्र वहाँ आए और शिष्य आनंद से उन्होंने आग्रह किया-”तथागत का यह अंतिम समय है, मुझे भावी परिस्थितियों पर चर्चा करनी है। कृपया भेंट अवश्य करा दें।” आनंद ने अपनी विवशता बता दी। अंदर तथागत तक आवाज पहुंची। उन्होंने स्वयं आवाज देकर सुभद्र को बुलाया आर आनंद से कहा- “ अस्वस्थता की इस स्थिति में भी यदि में लोकमंगल के प्रयोजन से आने वाले इस नरश्रेष्ठ को मार्गदर्शन न कर पाया तो मेरा ‘बुद्ध बनना ही निरर्थक है।” बुद्ध से हुई इस अंतिम भेंट ने, जो सद्भाव से प्रेरित थी, सुभद्र को इतना प्रभावित किया कि वे अपना सब कुछ अर्पण कर भिक्षु हो गए और बौद्धधर्म के विस्तार में अभूतपूर्व योगदान दे सकने में समर्थ हुए।