उथल-पुथल के इस दौर में आर्थिक नेतृत्व भी भारत की करेगा

February 1998

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आर्थिक जगत का वर्तमान युग संक्रमणकाल से गुजर रहा हैं विश्व अर्थ व्यवस्था में तीव्र परिवर्तन हो रहा हैं आर्थिक समानता का प्रबल-पोषक एवं पक्षधर साम्यवाद का प्रबल-पोषक एवं पक्षधर साम्यवाद बिखर चुका है। आकर्षक का दूसरा तंत्र पूँजीवाद भी आर्थिक एकाधिकारवाद में सिमट गया है। साम्राज्यवाद भी अन्तर्राष्ट्रीय स्वतंत्र व्यापार से आरम्भ होकर बलवान पूँजीवाद राष्ट्र के एकाधिकारवाद में परिवर्तित हो गया है। अब नव साम्राज्यवाद का प्रचार-प्रसार चल पड़ा है। उदारीकरण, भूमंडलीकरण आदि की नयी चकाचौंध पैदा की है, परन्तु इसके पुरोध देश स्वयं आर्थिक मन्दी एवं बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ग्रसित होते जा रहे हैं। मुद्रा का अवमूल्यन इसका उपहार है। ऐसे टूटते–दरकते समय में समस्त संसार की नजर भारतीय अर्थव्यवस्था पर टिकी हुई है। दुनिया भर के प्रख्यात अर्थशास्त्रियों ने भारत को इक्कीसवीं सदी की मान आर्थिक महाशक्ति के रूप में घोषित किया है। प्रायः सभी का यही मत है कि भारत ही समूचे विश्व को आधुनिक, स्थायी एवं सुदृढ़ अर्थतन्त्र प्रदान करेगा।

आर्थिक संक्रमण की शुरुआत उस समय हुई, जब द्वितीय महायुद्ध के समय विश्व को सर्वाधिक आर्थिक-संकट देखना पड़ा। इस महायुद्ध के पश्चात विश्व में पूँजीवाद और साम्यवाद की द्विध्रुवीय स्थिति पैदा हो गयी। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश पूँजीवाद के समर्थक थे, तो रूस,जर्मनी आदि देश साम्यवादी हो गए। मार्क्स के साम्यवाद का आर्थिक समानता का नारा निर्धन, गरीब एवं अभावग्रस्त वर्ग को बहुत आकर्षक लगा। इसी के साथ साम्यवाद ने प्रचण्ड तूफान बनकर तमाम देशों को अपनी चपेट में ले लिया, परन्तु साम्यवाद के साथ अधिनायकवाद ने लोमहर्षक दबाव की स्थिति उत्पन्न कर दी। साम्यवादी देशों को स्वल्प आर्थिक प्रगति के बदले गुलामी की असह्य मार झेलनी पड़ी। इसके परिणामस्वरूप रूस बिखर गया एवं बर्लिन की दीवार टूट गयी। साम्यवाद की इस असफलता को पूँजीवाद की विजय माना गया।

पूँजीवादी विकास का सिद्धांत है। श्रम के द्वारा अपार अर्थोपार्जन। पूँजीवाद इंग्लैण्ड में अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पैदा हुआ। इसके तहत उद्योगपतियों ने बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना की। इसी प्रक्रिया में पूँजीवाद ने ब्रिटेन से भारत में प्रवेश किया हालाँकि सन् 1994 के प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पूँजीवाद का आर्थिक-संकट का सामना करना पड़ा। परन्तु यह आस्ट्रिया, फ्राँस एवं जर्मनी में पनपता रहा। ब्रिटेन के समान अमेरिका ने भी क्षेत्र और जनसंख्या के आधार पर पूँजीवाद को अपनाया। अमेरिका में पूँजीवाद को अपनाया। अमेरिका में पूँजीवाद, जैक्सन, जैक्सा एवं लिंकन के प्रयास ने पनपा। इसके बाद भारत, चीन, मिश्र, दक्षिणी अमेरिका के देश, मलाया, जावा और अफ्रीका का विशाल महाद्वीप इसके घेरे में आ गए। ब्रिटेन के पूँजीवाद एकछत्र राज्य के बाद जर्मनी, जापान, फ्राँस और अमेरिका के आधिपत्य ने समूचे संसार को अपनी चपेट में ले लिया। पूँजीवाद एकछत्र राज्य के बाद जर्मनी, जापान, फ्राँस और अमेरिका के आधिपत्य ने समूचे संसार का अपनी चपेट में ले लिया। पूँजीवाद छल-बल-छद्म द्वारा अपना प्रसार करता गया। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने इसे इस तरह रेखांकित किया है, 50000 करोड़ श्रम घंटे, पूँजीवादी अर्थनीतियों के द्रव्योत्पादक 250 करोड़ श्रम घंटे के बराबर है।

पूँजीवाद अपने लाभ के लिए जब दूसरे देश में पुहँता है, तो साम्राज्यवाद बन जाता है। व्यापार ही इसका मुख्य आधार है। यह अपने व्यापार के विस्तार के लिए पिछड़े देशों के कच्चे माल पर एकाधिकार रखने का प्रयास करता है। एकाधिकार रखने का प्रयास करता है। ब्रिटेन ने भारत को इसी व्यापार नीति के तहत सदियों तक गुलाम बनाए रखा। ब्रिटेन सदियों तक गुलाम बनाए रखा। पूँजीपतियों को ही समर्थ और सक्षम बनाते है। पिछले एक दशक में विश्व आर्थिक परिवेश में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। रूस के साम्यवादी पतन के साथ ही यूरोप और अमेरिका के आर्थिक सुधार को एकमात्र विकल्प माना गया। इससे विश्व में एकध्रुवीय स्थिति बन गयी। परिणामस्वरूप अमेरिका में नव साम्राज्यवादी अर्थ-व्यवस्था ने जन्म लिया। इसने विश्व के आर्थिक ने जन्म लिया। इसने विश्व के आर्थिक एकीकरण का सपना सँजोया। खुली अर्थव्यवस्था, मुक्त बाजार व्यवस्था, उदारीकरण, भूमण्डलीकरण आदि इसी की देन है। इस अर्थनीति ने जहाँ अर्थ-व्यवस्था, मुक्त बाजार व्यवस्था, उदारीकरण, भूमण्डलीकरण आदि इसी की देन है। इस अर्थनीति ने जहाँ अर्थ-व्यवस्था को मजबूत किया है, वहीं आर्थिक मंदी, शेयर बाजार में प्रचण्ड भूचाल, मुद्राओं के अवमूल्यन ने इस प्रकार प्रश्नचिह्न लगा दिया है। पोलैंड, हंगरी, वल्गारिया, स्लोवाक गणराज्य, मंगोलिया, रुमानिया आदि में पूर्व कम्यूनिस्ट सरकारों के वापस अपने को खुली अर्थव्यवस्था के प्रबल विरोध के रूप में माना जा रहा है। पूर्व सोवियतसंघ के यूक्रेन, कजाकिस्तान, पायलोरुस भी इस अर्थनीति को अस्वीकार कर चुके है। उदारीकरण एवं खुले बाजार वाले आर्थिक सुधार का डंका पीटने वाले विकसित देश स्वयं ही अपने बुने जाल में फँस रहे हैं।

पूर्व राष्ट्र थिरोडोर रुजवेल्ट ने अमेरिकी अर्थसाम्राज्य का समस्त विश्व पर अधिकार करने का सपना देखा था। अमेरिका के नक्शे कदम पर बढ़ते हुए जापान, जर्मनी, ब्रिटेन एवं फ्राँस जैसे विकसित देश इसे और भी पुष्ट कर रहे है! अमेरिकी अर्थव्यवस्था, अमेरिका कॉर्पोरेट सेक्टर की समस्याओं से घिरी हुई है। अमेरिका अर्थव्यवस्था, अमेरिका कॉर्पोरेट सेक्टर की समस्याओं से घिरी हुई है। अमेरिका में अभी भी 12 फीसदी अराजेगरी उसकी समृद्ध अर्थव्यवस्था पर कराय व्यंग्य है। अतिविकसित कहलाने वाला जापान भी आर्थिक मंदी एवं बेरोजगारी के किसी भी तरह अपना बचाव नहीं कर पाया है। इकोनॉमिक आपरेशन एण्ड डेवलपमेंट नामक एक संगठन के अनुसार, आयरलैण्ड में 24 प्रतिशत, स्पेन में 23 प्रतिशत,जर्मनी में 16 प्रतिशत इंग्लैण्ड में 15 प्रतिशत तथा फ्रांस में 12 प्रतिशत बेरोजगारी बढ़ी है। कनाडा, आस्ट्रेलिया, जर्मनी एवं न्यूजीलैण्ड भी इस समस्या से ग्रस्त हैं। इस संगठन के अनुसार खुली अर्थव्यवस्था का ही परिणाम है कि अर्जेण्टीना, ब्राजील, कनाडा, इटली, फ्राँस एवं स्पेन का मुद्राबाजार चरमरा गया है। मैक्सिको ने खुली अर्थव्यवस्था को अपनाकर विश्वव्यापार के शिखर को स्पर्श किया था, परन्तु उसी व्यवस्था ने इसे एक सप्ताह के अन्तराल में अपने पूँजी बाजार में 60 करोड़ डॉलर की शिकस्त दी। वहाँ की मुद्रा में 16 प्रतिशत की रिकार्ड गिरावट आयी।

पूँजीवादी देशों में आर्थिक मंदी मुख्य समस्या है। इससे मुक्ति पाने के लिए विश्व उपभोक्ता बाजार पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास किया गया समाजवाद की अतिकेन्द्रित अर्थव्यवस्था से उत्पन्न निराशा ने पूर्वी यूरोप एवं एशिया को मुक्त बाजार की ओर प्रयाण करने की प्रेरणा बाजार की ओर प्रयाण करने की प्रेरणा भरी। पोलैण्ड में साम्यवादी तानाशाही से लोकतांत्रिक व्यवस्था में संक्रमण तो हुआ परन्तु यह परिवर्तन आर्थिक क्षेत्र में सम्भव नहीं हो सका। पोलैण्ड की राह पर रूस भी अग्रसर हुआ, परन्तु उसे भी निराशा हाथ लगी। रूस में बाजार अस्थिर आसमान छूने लगी। रूस में बाजार अस्थिर है तथा विदेशी मुद्रा भण्डार में लगातार कमी होती जा रही है। विगत वर्ष तक विदेशी निवेशकों की दृष्टि में वर्चस्व रखने वाले एशियाई देशों की अर्थ व्यवस्था भी एकाएक कमजोर हो गयी।

1997 के दिसम्बर माह में दक्षिण कोरिया अभूतपूर्व आर्थिक संकट में फँस गया था। वहाँ की मुद्रा में डॉलर के मुकाबले 50 प्रतिशत की भारी कमी आयी। दक्षिण कोरिया को 10 अरब डॉलर देकर उसको दिवालिया होने से बचाया जा सका, जबकि दक्षिण कोरिया ने 1985 से 1994 तक 8 प्रतिशत आर्थिक दर की की वृद्धि की। यहाँ की औसत आय 27 से 40 प्रतिशत तक पहुँच गयी, जो अमेरिका के बराबर है। 27 नवम्बर, 1997 को अपने देश को भी रुपये के अधिकतम अवमूल्यन का सामना करना पड़ा। चीन में भी कमोबेश समस्याएँ है। पाकिस्तान धीमी निर्यात वृद्धि तथा कर्ज के भार से दबता चला जा रहा है। अभी विश्व के 53 देश उदारीकरण को अपनाकर संकटग्रस्त है। 27 जनवरी, 1997 के न्यूजवीक अंक में शेल इण्टरनेशनल के मुख्य अर्थशास्त्री विनसेण्ट केबल ने स्पष्ट किया है। कि विश्व की वर्तमान अर्थव्यवस्था आन्तरिक भ्रष्टाचार एवं महँगाई के कुचक्र में बुरी तरह से फँस चुकी है।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है-शेयर बाजार में लगातार होती अभूतपूर्व मन्दी। दस वर्ष के अन्तराल के बाद एक और काले सोमवार को न्यूयार्क शेयर बाजार में 7.2 प्रतिशत को ऐतिहासिक गिरावट देखी गयी। देश की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए अमेरिका राष्ट्रपति बिल क्लिन्टन को जनता को आश्वस्त करना पड़ा। हाँगकाँग शेयर बाजार की इस गिरावट ने न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन, फ्रैंकफर्ट मनीला, सिंगापुर के शेयर बाजारों में अरबों डॉलर का नुकसान किया। अमेरिका की बिजनेस पत्रिका’ फोरबेस’ के अनुसार अमेरिका के पाँच धनाढ्यों को चार अरब डॉलर का नुकसान हुआ। भारत का शेयर बाजार भी इससे प्रभावित हुआ। पूरे विश्व में 700 अरब डॉलर की क्षति हुई।

एक ओर जहाँ विश्व को भारी आर्थिक उथल-पुथल से गुजरता पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर विश्व-आर्थिक एकीकरण का प्रयास भी अपना प्रभाव छोड़ रहा है। सारे विश्व को आर्थिक व्यवस्था के एक सूत्र में पिरोने के लिए विश्व-व्यापार संगठन की स्थापना हुई है- टाइम नामक विख्यात पत्रिका के आठ दिसम्बर, 1997 के अंक में इण्टरनेशनल मॉनीटरी फण्ड की स्थापना को एक अभूतपूर्व प्रयास कहा गया है। अमेरिका, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन फ्राँस तथा सऊदी अरब के सहयोग से स्थापित आई.एम. एफ. विश्व में आर्थिक रूप से संकटग्रस्त देशों को सहायता प्रदान करता है। इसी की सहायता प्रदान करता है। इसी की सहायता से मैक्सिको को आर्थिक मन्दी से उबारा जा सका। रूस, फिलीपीन्स, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया तथा थाइलैंड को भी इससे भारी सहायता मिली है। यूरोप के 15 देशों ने अपनी संकीर्ण सीमाओं को लांघकर आर्थिक एकीकरण की नयी मिसाल पेश की है। जनवरी, 2002 से पूरे यूरोप में ‘यूरो’ नाम से मुद्रा यूरोप में ‘यूरो’ नाम से मुद्रा का प्रचलन हो जाएगा। इसी के साथ 1 जनवरी, 1999 से यूरोपीय देशों के राष्ट्रीय बैंकों का विलय कर एकीकृत यूरोपीय सेन्ट्रल बैंक काम करने लगेगा। यह समूचे विश्व के आर्थिक एकीकरण की ओर एक सराहनीय कदम है।

अमेरिका, लैटिन अमेरिका, यूरोप के आर्थिक संगठनों के बाद एशिया में भी आफ्ता तथा नवनिर्मित बिस्टेक आदि संगठन विश्व-एकीकरण के प्रयास में संलग्न हैं। दक्षेस सम्मेलन में दक्षिण एशिया को सन् 2001 तक मुक्त-व्यापार क्षेत्र बनाने का संकल्प लिया गया।1997 में विश्व के 70 देशों में वित्तीय क्षेत्र खोलने पर ऐतिहासिक समझौता हुआ है। भारत का सम्बन्ध जापान, जर्मनी, ईराक से और भी सुदृढ़ हुआ है तथा यूरोप एवं अमेरिका के साथ सम्बन्धों में सुधार हुआ हैं भारत में नववर्ष की शुभागमन आर्थिक दृष्टिकोण से लाभप्रद रहा है। काले धन की बाहर निकालने के प्रयास में 31 दिसम्बर, 19 तक 31 हजार करोड़ रुपये की अघोषित सम्पत्ति जमा हुई, जिससे साढ़े दस हजार करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ।

आर्थिक संक्रमण के इस दौर में अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विश्लेषकों को कुछ ऐसे संकेत मिल रहे है, जिसके अनुसार इक्कीसवीं सदी आर्थिक रूप से अमेरिका एवं यूरोप की नहीं वरन् एशिया की होगी। एशिया में तमाम विसंगतियों के बावजूद सम्बन्धित देशों की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई एवं इसका नागरिकों के जीवन -स्तर में सुधार हुआ है। सभी अर्थशास्त्री इस पर एकमत है। सारी दुनिया एक नूतन अर्थव्यवस्था की माँग कर रही है। राम मनोहर लोहिया के अनुसार पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ढाँचे के अंतर्गत घटने वाली घटनाओं के कारण पूँजीवाद समाप्त हो जाएगा। जरनर प्लेण्डर ने अपनी बहुचर्चित कृति’ ए स्टेक इन द फ्यूचर’ में पूँजीवाद को समाप्तप्राय बताया है। इनके अनुसार विश्व एक नयी अर्थ-व्यवस्था की तलाश में है। प्रख्यात अर्थशास्त्री लेस्टर थूरों ने अपनी ख्यातिनामा पुस्तक ‘द फ्यूचर ऑफ कैपिटेलिज्म’ में उल्लेख किया है कि पूंजीवाद के ही प्रति आसक्ति टूटती जा रही है। आंतरिक संजय के व्यतिक्रम के कारण साम्यवाद समाप्तप्राय है। फोरानीक, रोमन मेडीवल एवं मेण्डोस्यिन अर्थतन्त्र भी कोई प्रभावी नहीं हो पा रहा है ऐसे में विश्व को स्थायी, मजबूत एवं सुदृढ़ अर्थव्यवस्था की आवश्यकता है।

स्पान पत्रिका के मई, 1994 अंक में पीटर एफ. डूकर ने इस नूतन अर्थ व्यवस्था के लिए भारत की ओर संकेत किया है। डूकर ने स्पष्ट किया है कि भारत के पास अथाह और अनन्त सम्पदा है। इसे सुनियोजित करने की आवश्यकता हैं। वाशिंगटन स्थित संस्था एक्सेक्युटिव इंटेलीजेन्स रिष्यु ने अपनी दो रिपोर्टों- ‘द यूरेसियन लैण्ड ब्रिज’ तथा’ दि न्यू रोड’ में विश्व में गहरे आर्थिक संकट की ओर संकेत करते हुए कहा है कि चीन और विशेष रूप से भारत ही इस संकट को दूर करने में सक्षम हो सकते हैं।

अमेरिकी राष्ट्रबिल क्लिंटन के अनुसार भारत विश्व की दस महाशक्तियों में से एक श्रेष्ठतम महाशक्ति है। विश्व बैंक ने भी भारत को संसार की दस सम्भावित बड़ी आर्थिक शक्तियों में सबसे श्रेष्ठ माना है। अमेरिका के वाणिज्य मंत्री विलियम एम. डेली की मान्यता है कि भारत इक्कीसवीं सदी की महान अर्थशक्ति बनेगा। उन्होंने कहा कि भारत की वर्तमान अव्यवस्ि उसकी राह का रोड़ा नहीं बनेगी। निवर्तमान अमेरिकी राजदूत फ्रैंकवाइजनर ने स्पष्ट किया है कि भारत अगली शताब्दी में आर्थिक महाशक्ति के रूप में पदार्पण करेगा। यह आने वाले वर्षों में अग्रणी राष्ट्रों के समूह का नेतृत्व करेगा।भारत अगली शताब्दी में आर्थिक महाशक्ति के रूप में पदार्पण करेगा। यह आने वाले वर्षों में अग्रणी राष्ट्रों के समूह का नेतृत्व करेगा। भीतर में वर्तमान अमेरिकी राजदूत रिचर्ड एफ. सेलेस्टों ने भी भारत को विश्व की आर्थिक शक्ति के रूप में घोषित किया है। न्यूजर्सी से अमेरिकी सीनेट के उम्मीदवार एवं डेमोक्रेटिक पार्टी के रॉबर्ट जो टारिचेली जैसे भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की भविष्यवाणी की है। जर्मनी के विदेशमंत्री क्नास निकल ने भारत को एशिया एवं विश्व के अग्रणी राष्ट्र के रूप में उल्लेख किया है। उनके अनुसार इसकी भूमिका निर्णायक होगी। जर्मनी के प्रमुख राष्ट्रीय अखबार फ्रैकेफर्ट एलोमनी जीतंग, डयूशलैण्ड रेडियो बर्लिन और सेन्टर फॉर एप्लाइड पॉल्टिकल रिसर्च के संयुक्त सम्मेलन में वहाँ के रक्षामंत्री रुदे ने भारत को आर्थिक महाशक्ति बनने के अपने वक्तव्य को बार-बार दुहराया।

विख्यात पत्रिका ‘टाइम’ के 25 मार्च, 1997 के अंक में भी भारतीय अर्थ व्यवस्था को विकासशील घोषित किया है। प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज के अनुसार,भारत का भविष्य आर्थिक रूप से उज्ज्वल है। उद्योग संगठन फिक्की के महासचिव तथा देश के प्रमुख अर्थशास्त्री डॉ. अमित मित्रा ने उल्लेख किया है। कि भारत सन् 2020 तक विश्व का आर्थिक नेतृत्व करने में सफल हो जाएगा। महात्मा गाँधी के अनुसार भारत की भावी अर्थव्यवस्था ग्राम-स्वराज्य के रूप में होगी। उन्होंने आर्थिक पुनर्गठन के लिए सरलता, श्रमपूजा, सुखद कार्य संपन्नता तथा मानवमूल्यों, सुखद कार्य संपन्नता तथा मानवमूल्यों के सृजन एवं संचयन पर बल दिया है। एडमस्मिथ, जे.एस. मिल. रिकार्डो तथा माल्थहम आदि अर्थशास्त्री भी इस सत्य को स्वीकार करते है। गाँधीजी ने पूँजीवादी विरोधी नरपंथी एवं कार्लमार्क्स दोनों से आगे बढ़ते हुए ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था तथा कुटीर उद्योगों पर जोर दिया है। योजना आयोग के पूर्व सदस्य जे. डी. सेठना, सुरेश देसाई, मार्क लूट्ज तथा ए. एम. हक जैसे अर्थशास्त्र विशेषज्ञों का मानना है कि गाँधी की मूल आर्थिक मान्यताओं को संशोधित कर आधुनिक अर्थतन्त्र को व्यावहारिक बनाया जा सकता है। आधुनिक भारतीय अर्थ-व्यवस्था पुस्तक के सम्पादक डॉ.एस.सी.गुप्ता के अनुसार, भारतीय प्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण इसकी जड़ें काफी गहरी है। इसी कारण भविष्य में इसकी समृद्धि संभावित ही नहीं, वरन् सुनिश्चित है। यद्यपि आज भारत की स्थिति द्वितीय विश्वयुद्ध से जर्जर जापान के समान एवं अमेरिका के समान विश्व की सार्वभौम महाशक्ति बन जाएगा। महायोगी श्री अरविन्द के शब्दों में “भविष्य का भारत अध्यात्म एवं धर्म के क्षेत्र में ही नहीं वरन् आर्थिक क्षेत्र में भी महाशक्ति अवश्य बनेगा।”


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