इक्कीसवीं सदी की चिकित्सा-पद्धति होगी-आयुर्वेद

February 1998

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समस्त विश्व प्रबल परिवर्तन के गतिचक्र में तीव्रता से धूम रहा है। समाज, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले परिवर्तनों की झलक साफतौर पर देखी जा रही है। इस बदलाव से चिकित्सा जगत भी अछूता नहीं हैं विगत कुछ दशकों पूर्व चिकित्सा और चिकित्सकों का संसार एलोपैथी के आकर्षण में बुरी तरह फँस गया था, परन्तु आकर्षण का यह मोहजाल अब टूटता-बिखरता प्रतीत हो रहा हैं इसके दुष्प्रभावों से छटपटाते इनसान और समाज पुनः प्रकृति की ओर वास कदम बढ़ा रहे है। बदलाव की ओर बढ़ते इन कदमों परिणामस्वरूप सारे विश्व में सरल, सहज एवं समग्र चिकित्सा का यह बदलता हुआ प्रतिमान स्पष्ट संकेत करता है। कि आयुर्वेद प्रणाली ही भावी विश्व की चिकित्सा-पद्धति बनेगी?

हालांकि एलोपैथी का प्रारंभिक आकर्षण बड़ा ही तीव्र एवं प्रबल होता है। सम्भवतः इसीलिए यह काफी लोकप्रिय भी हुई। इस लोकप्रियता के साथ इस क्षेत्र में नए-नए शोध-अनुसंधान होने लगे। सन् 1928 में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग द्वारा पेनिसिलीन की खोज को एलोपैथी चिकित्साजगत में एक वरदान माना गया, परन्तु सन् 1940 तक अति-अति इसका वास्तविकता सामने आ गयी। यह प्रयोग तीव्र प्रतिक्रियात्मक होने की वजह से प्रायः असफल सिद्ध हुआ। एलोपैथी दवाएँ रोग को दबा देती है। परिणामस्वरूप दवा का असर समाप्त होते ही रोग के जीवाणु और तीव्रता से आक्रमण शुरू कर देते है। एण्टीबायोटिक दवा के विरुद्ध जीवाणु एन्जाइम बनाते हैं। यह विरुद्ध जीवाणु एन्जाइम बनाते हैं। यह एन्जाइम एंटीबायोटिक के प्रभाव को कम करने लगते है। इस इस तरह सभी जीवाणु मिलकर इस दवा के प्रयोग के अनुपात में इसकी प्रतिरोधी क्षमता में वृद्धि करते है। दवा के प्रयोग के अनुपात में इसकी प्रतिरोधी क्षमता भी बढ़ती जाती है। एक जीवाणु कई प्रकार की एण्टीबायोटिक दवा के खिलाफ प्रतिरोध हो जाता है। चिकित्सकों के पुरोध हो जाता है। चिकित्सकों के अनुसार, 15 प्रतिशत जीवाणुओं में यह क्षमता पैदा हो गयी है। कुछ जीवाणुओं ने तो इतनी उच्चश्रेणी की प्रतिरोधक क्षमता अर्जित कर ली है। कि उन पर किसी भी दवा का कोई असर नहीं होता। इस तरह असरहीन एण्टीबायोटिक दवाएँ शरीर में अपने दूसरे प्रकार के दुष्प्रभाव छोड़ने लगती है।

एलोपैथी का असर तो तत्काल दिखता है, परन्तु कुछ समय के पश्चात पुराने रोग के स्थान पर एक नया रोग पनपने लगता है। रोग और दवा नया रोग पनपने लगता हैं रोग और दवा का बढ़ता क्रम मानवीय प्रतिरक्षाप्रणाली को समाप्त करके ही रुकता है। आज सारे संवेदनशील चिकित्सक इसके घातक परिणामों के प्रति चिन्तित एवं परेशान दिखाई पड़ रहे है। अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार, एलोपैथी पुँसत्वहीनता को बढ़ाती है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्राँस जापान, रूस एवं जर्मन आदि देश अत्यधिक मात्रा में एलोपैथी के ट्रैक्वेलाइर्ज-एलोपैथी के टै्रक्वेलाइजर्स-एण्टीडिप्रेसेण्ट्स के अत्यधिक सेवन के कारण इस चपेट में आ गए है। प्रसिद्ध अमेरिका वैज्ञानिक एवं चिकित्सक डॉ. डब्ल्यू. हिक्स ने अपने शोध ग्रन्थ’ रिवोल्ट अगेन्स्ट डॉक्टर्स’ में एलोपैथी चिकित्सा को जनस्वास्थ्य के लिए घातक बताया है। डॉ. नार्मनवार्न एलोपैथी के दुष्प्रभाव को रेखांकित करते हुए कहते है। कि वर्तमान समय में एलोपैथी अपना प्रभाव खो चुकी है। इन दवाओं से अत्यधिक साइड इफेक्ट्स (दुष्प्रभाव) होने की सम्भावना होती हैं इसलिए हर व्यक्ति इनके सेवन से पूर्व आशंकित एवं सशंकित दिखता है।

एण्टीबायोटिक दवाओं के बारे में चिकित्सकों की मान्यता है कि शायद ही ऐसी कोई एण्टीबायोटिक दवा हो, जिसका शरीर में कोई साइड इफेक्ट न होता हो। यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल न होता हो। यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज के प्रोफेसर डॉ. अशोक ग्रोवर ने अपने सर्वेक्षण के पश्चात कुछ वर्ग की दवाओं के दुष्प्रभावों की विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की थी इनके अनुसार, पोनिसिलीन वर्ग की दवाओं से मृत्युसंकट का सामना करना पड़ सकता हैं यह बुखार डायरिया तथा किडनी के रोगियों के लिए मिर्गी जैसी बीमारी पैदा कर सकती हैं स्ट्रेप्टोमाइसिन के प्रयोग से आँखों एवं कानों में विकार उत्पन्न होता है। टेट्रासाइक्लिन वर्ग की दवाओं से चमड़े में चकत्ते, स्किन एलर्जी, जी मिचलाना, उल्टी-दस्त आदि हो सकते है। सल्फा वर्ग की दवाई बुखार एवं पीलिया को आमंत्रण देती है। क्लोरोमाइसिटीन से एनीमिया, इरथ्रोमाइसिन से जीव मिचलाना, उल्टी आना तथा जिगर में सूजन आदि की संभावना रहती है।

इसी तरह अमाइलोग्लाइको वर्ग की दवाएँ मरीज के गुर्दे एवं श्रवणतंत्र पर अपना असर छोड़ती है। क्लोरोस्पोनिकाले हड्डियों के द्रव में गड़बड़ी पैदा करती है। इससे शरीर सूखने लगता है। एस्प्रिन पेट करती है। गर्भवती महिलाओं द्वारा इसका उपयोग करने पर नवजात शिशु का वजन कम हो जाता हैं यदा-कदा इसी वजह से बच्चों में ‘राईसिडल’ नामक खतरनाक बीमारी के लक्षण भी सामने आए हैं विकार पैदा करती है, जिससे अल्सर होते को देखते हुए अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई देशों ने इन दवाओं को प्रतिबन्धित कर दिया है सन् 1983 में ल्यूटा प्राक्सीवान, कार्ब्यूटाइल एवं फटिजैसिक औषधियों को इनकी शारीरिक-प्रतिक्रिया के कारण प्रतिबन्धित कर दिया गया था। इस दवाओं प्रतिबन्धित कर दिया गया था। इन दवाओं के प्रयोग से कैंसर, लकवा, विकलाँगता व नेत्रहीनता में वृद्धि होती हैं इन घातुओं दवाओं के कारण मृत्युदर में भी बढ़ोत्तरी हो रही हैं

कुछ साल पूर्व वेदनाहीन प्रसव के लिए थियोडेलॉमाइड्स ने विश्वव्यापी ख्याति प्राप्त कर ली थी, परन्तु इसके प्रभाव इसे प्रतिबन्धित किया गया। इसी तरह क्लोरोफेनिकल जैसी एण्टी एलर्जिक दवाओं ने भी काम नुकसान नहीं किया। इसी तरह प्रायः दस्त रोकने से लेकर जोड़ो का दर्द कम करने वाली सभी दवाएँ ऐसी हैं जो घातक एवं विषैला प्रभाव छोड़ती है। ये औषधियाँ मानवरक्त को प्रदूषित करती है।

इस कारण लकवा, कैंसर, विकलाँगता जैसे भयानक रोगों का जन्म होता है लगातार इनका प्रयोग शरीर की रोगप्रतिरोधी क्षमता को समाप्त कर देता है, साथ ही इनसे शारीरिक एवं मानसिक विकृतियों में भारी वृद्धि होती है। इन्हीं कारणों से विकसित देशों में इन दवाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।

ज्यादातर ऐलोपैथी दवाएँ मारक अस्त्र नहीं है जो विषाणुओं को तो मारे, परन्तु स्वस्थ कोशिकाओं को संरक्षण दे सके। इन दवाओं का प्रभाव अभी तक हानिकारक ही सिद्ध हुआ हैं इससे रोगी की प्रतिरोधक क्षमता घट जाने से रोगी पर दवा का असर ही नहीं होता इसीलिए इवान इलिच ने ठीक ही कहा है एलोपैथी रोग एवं रोगी दोनों को समाप्त कर देती है। अपोलो अस्पताल चेन्नई के वरिष्ठ डॉक्टर के. हरनाथ के अनुसार, इन दवाओं से श्वसन सम्बन्धी संक्रामकता बढ़ रही है। विस्कोसिन हॉस्पिटल एण्ड क्लीनिक अमेरिका के डायरेक्टर डॉ. ली. वर्मेल्यून ने कहा है। कि एलोपैथी दवाएँ संरक्षात्मक होने की बजाय विघटनकारी होती जा रही हैं इसीलिए ये दवाएँ आधुनिक मानव-समाज पर प्रायः दवाएँ आधुनिक मानव-समाज पर प्रायः प्रभावहीन होती जा रही है। एलोपैथी की इन असरहीन दवाओं के कारण आज टी.बी.के जीवाणु फिर से सक्रिय हो उठे हैं। प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका साइंस के अनुसार आज के जीवाणु इन दवाओं से कीं अधिक चालक एवं चतुर हो गए है। अमेरिका जैसे विकसित देशों में टी.बी.की धीमी वृद्धि हर साल रिकार्ड की जा रही है। क्लोरोक्वीन द्वारा मलेरिया की समाप्ति का सपना समाप्त हो गया है। मलेरिया की नयी दवाएँ भी प्रभावहीन हो रही है। इक्वेडोर में कालरा का प्रकोप बहुत अधिक व विविध रूपों में बढ़ गया हैं अफ्रीका तथा दक्षिण व मध्य अमेरिकी देशों में भी ऐसा तमाम बीमारियाँ है जिन पर अत्याधुनिक दवाएँ भी कारगर नहीं हो पा रही है।

पुरानी बीमारियाँ एक बार फिर से सक्रिय हो रही है। ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीट्यूट के वी. रामलिंगम स्वामी के अनुसार, एलोपैथी और विषाणुओं के संघर्ष में विषाणु और विषाणुओं के संघर्ष में विषाणु बहुत भारी पड़ रहे है। श्री रामचन्द्र मेडिकल कॉलेज एण्ड रिसर्च इन्स्टीट्यूट की प्रोफेसर डॉ. विजय लक्ष्मी धानाशंकरन कहती है। कि एलोपैथी अविश्वसनीय होती जा रही साया बनकर आती है चेन्नई के वरिष्ठ सर्जन डॉ. एस. रामकृष्णन ने भी एलोपैथी दवाओं पर गम्भीर चिन्ता प्रकट की है। विश्वस्वास्थ्य संगठन के सर्वेक्षण से पता चलता है कि एशिया और अफ्रीका देशों में एलोपैथी दवाओं का सर्वाधिक दुष्प्रभाव हो रहा है। इन देशों में ऐसी बीमारियां फैलने लगी है। जिनका समाधान इन दवाओं द्वारा सम्भव नहीं है। यह मुद्दा समस्त चिकित्सा जगत के सामने चुनौती बनकर खड़ा हो गया है।

आधुनिक चिकित्सा-पद्धति की असफलता एवं असमर्थता से त्रस्त दुनिया ने चिकित्सा के प्रचलित मानदंडों को बदल डालने के लिए कमर कस ली है। उसके कदम प्राकृतिक जीवन की ओर मुड़ने लगे है। अजा समूचे विश्व में आयुर्वेद की प्राचीन परम्परा के प्रति आस्था और विश्वास बढ़ रहा है। अब सभी यह जानने लगें है कि आयुर्वेद एक ऐसी प्रणाली है, जो सहजता से समग्र उपचार कर देती है। यह मानवीय काया की विकृति को समूल नष्ट करके सुखी एवं समुन्नत जीवन जीने का उपाय भी सुझाती है। इससे किसी प्रकार की कोई निषेधात्मक प्रतिक्रिया नहीं उत्पन्न होती। इन्हीं सब अमूल्य विशेषताओं के कारणों से विश्व में इसका प्रचलन एवं लोकप्रियता बढ़ रही है। अब श्रीलंका, माँरीशस, नेपाल आदि देशों में आयुर्वेद को राजकीय मान्यता प्राप्त है।

इसके अतिरिक्त अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्राँस, जर्मनी, जापान, आस्ट्रिया आदि देशों में भी आयुर्वेद के कई संचालित हो रहे है। सन् 1990 में मानीशस में अंतर्राष्ट्रीय आयुर्वेद सम्मेलन हुआ था। इसका परिणाम उत्साहवर्द्धक रहा हैं इसके ठीक एक वर्ष पश्चात नेपाल में सितम्बर, 1999 में भी अन्तर्राष्ट्रीय आयुर्वेद सम्मेलन का आयोजन हुआ। इसमें चीन, डेनमार्क, मारीशस तथा अन्य कई देशों के 400 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में आयुर्वेद चिकित्सा की विभिन्न विधाओं, विकासात्मक प्रवृत्तियों तथा आयुर्वेद को विश्वव्यापी बनाने के लिए विस्तारपूर्वक चर्चा की गयी। मारीशस एवं नेपाल की भाँति इंडोनेशिया में 1992 में तीसरा अन्तर्राष्ट्रीय आयुर्वेद सम्मेलन आयोजित हुआ था।

यों प्राचीन समय से ही आयुर्वेद विदेशों में प्रचलित रहा है इसके प्रमाण वर्षों पूर्व प्रकाशित डॉ. जौलजी की इंडियन मेडिसन नामक आयुर्वेद ग्रन्थों में खोजे जा सकते है। इन ग्रन्थों में आयुर्वेद की विषयवस्तु तथा इसके सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन किया गया है। अब तो चिकित्सापद्धति के इस महापरिवर्तन काल में इसकी लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं एक सर्वेक्षण से पता चला है। कि 20 राष्ट्रों के 180 से भी अधिक डॉक्टर आयुर्वेद चिकित्सा का प्रयोग करने लगे है। एशिया के प्रायः सभी देश इस परम्परा को अपनाए हुए है। अमेरिका, फ्राँस, जर्मनी, इटली, आदि देशों में आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार में विगत एक दशक में काफी तेजी आयी है। श्रीलंका में आयुर्वेद के विकास और नवीनतम अनुसंधान को काफी प्राथमिकता दी जाने लगी हैं

आज की तिब्बती चिकित्सा का मूल आधार आयुर्वेद ही है। तिब्बती चिकित्सा में शरीर के नौ छिद्र तथा नौ सौ नसों व त्रिदोष की कल्पना आयुर्वेद की ही देन है। इसमें भी आधुनिकता का समावेश करके इसका अधिकाधिक प्रचलन किया जा रहा है। ईरान और अरब में भी इस चिकित्सा को अपनाने के संकेत मिल रहे हैं। चीन में भी आयुर्वेद का काफी विकास हुआ है॥ जर्मनी में आयुर्वेद चिकित्सा विधियों को बड़ी मात्रा में अपनाया जा रहा है। स्विट्जरलैण्ड के वाल्फेनौमिन में एक आयुर्वेद क्लीनिक का खूब प्रचार हो रहा है। यूनाइटेडिकगड में आयुर्वेद पत्रिकाएँ खूब पढ़ी जाती हैं एवं उसके नुस्खों को बड़े सम्मान से अपनाया जाता है।

इधर पिछले एक दशक में अमेरिका में आयुर्वेद का प्रचलन तीव्रता से बढ़ा है। आयुर्वेद की इस बढ़ती लोकप्रियता के बारे में अमेरिका के ही चिकित्साविशेषज्ञ गरनी विलियम्स थर्ड ने प्रसिद्ध स्वास्थ्य पत्रिका लंगाविटी में विस्तार से वर्णन किया हैं उनके अनुसार, आयुर्वेद का उपचार सरल व समग्र होता है। टफ्ट्स एवं बोस्टन विश्वविद्यालय दीपक चोपड़ा ने तो अमेरिका में आयुर्वेद एण्ड स्ट्रेस मैनेजमेण्ट’ बहुत लोकप्रिय हुई है। हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर एवं डेमीमूर और प्रख्यात अभिनेता डेविड लिचे भी आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की ओर आकर्षित हुए है। इन दिनों अमेरिका में तेरह आयुर्वेदिक संस्थाएँ बहुप्रचलित है। जिनमें चोपड़ा सेन्टर फॉर वेलबिइंग’ जो लहोला सान डियागो में है, काफी प्रसिद्ध हुई है। अमेरिका के ही आयुर्वेदिक इंस्टीट्यूट एण्ड वेलनेस सेन्टर के प्रशासक चार्ल्स राडमैन ने स्पष्ट किया है कि सरल, सस्ता एवं सम्पूर्ण उपचार पद्धति होने के कारण इसका आकर्षण दिनों-दिन बढ़ रहा है। ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के डॉ. हरिशर्मा ने आयुर्वेद पर कई तरह के अनुसन्धान एवं अन्वेषण किए है। इनकी शोध काफी चर्चित भी रही है। अमेरिका में आयुर्वेद के अटूआलोचक भी अब यह मानने लगे हैं। कि ये औषधियाँ स्वास्थ्य के लिए हितकर एवं उपयोगी है। नेशनल काउंसिल अंगेन्स्ट हैल्थ फाइ के अध्यक्ष विलियम जार्विस भी समालोचकों में से एक हैं, परन्तु वे भी अब यह मानने लगे है कि युगपरिवर्तन के इस दौर में चिकित्सापद्धति का परिवर्तन भी सामयिक है। उनका कहना है कि भारतीय जड़ी-बूटी विशेषज्ञ मार्क ब्लूमेंथल के अनुसार, अमेरिका में पिछले दो-तीन सालों में आयुर्वेदिक दवाओं की बिक्री तिगुनी हो गयी है। यहाँ। प्रतिवर्ष 50 लाख डॉलर की आयुर्वेदिक दवाओं की बिक्री होती है। निकट भविष्य में इसमें भारी वृद्धि का अनुमान है।

अपने देश में भी इस चिकित्सापद्धति की ओर रुझान दिनोंदिन बढ़ रहा हैं भारत के शहरों में लगभग एक तिहाई तथा गाँवों में दो तिहाई लोग आयुर्वेद को ही अपना रहे है। सन् 1982 में अपने देश में 3349 आयुर्वेदिक फार्मेसियां थी। जो अब बढ़कर 6,000 के आस-पास हो गयी है। 40 से अधिक राष्ट्रीय स्तर के फार्मास्यूटिकल संस्थान 2 करोड़ से 75 करोड़ रुपये सालाना की बिक्री करते है। एक विदेशी कम्पनी ने तो आयुर्वेद को अपनाकर 45 से 150 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष लाभांश प्राप्त किया है। मुम्बई में झाण्डू सत्तत के दशक में प्रतिवर्ष करीब दस लाख डॉलर की बिक्री करता था, जो 1996 में बढ़कर डेढ़ करोड़ डॉलर हो गया है। इसी तरह हिमालय ड्रग कम्पनी भी सालाना 1.8 करोड़ डॉलर का कारोबार करने लगी है। ये आँकड़े एलोपैथी की असफलता एवं आयुर्वेद की है। इस लोकप्रियता को देखकर सहजतापूर्वक कहा जा सकता है। कि आयुर्वेद ही इक्कीसवीं सदी की नवीनतम एवं आधुनिकतम चिकित्सापद्धति के रूप में अपनाई जाएगी।


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