सूक्ष्म अन्तरिक्षीय हलचलें भी - युगपरिवर्तन का ही संकेत देती है।

February 1998

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युगपरिवर्तन के इन अन्तिम वर्षों में अन्तर्ग्रही उथल-पुथल में अचानक तीव्रता आयी है। सौर−कलंकों, सौर ज्वाला, चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहणों की संख्या यकायक बढ़ गयी है। इसके अलावा अष्टग्रही योग, धूमकेतुओं का उदय एवं उल्कापात किन्हीं नवीन घटनाओं की ओर संकेत करते है। पृथ्वी का सूर्य से सीधा सम्बन्ध होने के कारण सौर-परिवर्तन से यहाँ का भौगोलिक परिवेश और पर्यावरण अत्यन्त प्रभावित होता है। खगोलविद् एवं अन्तरिक्ष विशेषज्ञ सन् 2000 तक अन्तरिक्षीय घटनाओं में भारी वृद्धि की सम्भावनाओं को देखते हुए पृथ्वी की परिस्थितियों में आमूल-चूल बदलाव को सुनिश्चित मान रहे है। प्रख्यात ज्योतिषविद् इस अन्तरिक्षीय परिवर्तनों को अरुणोदय के पूर्व की सघन तमिस्रा का द्योक मान रहे हैं। उनके अनुसार निश्चय ही ये आकाशीय हलचलें युगपरिवर्तन की स्पष्ट परिचायक है।

ज्योतिषवेत्ताओं के अनुसार 6,7 8 ग्रहों के एकत्रित होने से विभिन्न कुयोग बनते हैं। 11 जनवरी से 12 फरवरी, 1962 तक 25 दिन का षड्ग्रही योग था। इसी बीच 24 जनवरी से 9 फरवरी तक सप्तग्रही योग आया। 2 फरवरी से 5 फरवरी सन् 1962 अष्टग्रही योग आया। 2 फरवरी से 5 फरवरी सन् 1962 अष्टग्रही योग का काल था, जिसे परम पूज्य गुरुदेव ने युगपरिवर्तन की सक्रिय शुरुआत के शुभमुहूर्त्त की संज्ञा दीं। 4 फरवरी को सूर्यग्रहण भी था। इस अष्टग्रही योग के बारे में परमपूज्य गुरुदेव ने 1961 के अक्टूबर अंक में पहले से ही लिख दिया था-पिछले अज्ञातवास में हमें उच्चकोटि के तत्वदर्शियों का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिला है। उनके व्यक्तिगत निष्कर्ष यह हैं कि इस योग के फल स्वरूप जहाँ एक ओर विनाश की विभीषिका सामने आएगी, वहीं युग परिवर्तन के उपयोगी तत्वों का इस अवधि में तीव्रगति से अवतरण और विकास होगा। ज्ञान और विज्ञान दोनों की उन्नति चरमोत्कर्ष को पहुँचेगी। निर्माण और उत्पादन के कार्य भी बड़े विशाल परिणाम में होंगे, किन्तु इसी के साथ युगपरिवर्तन चक्र की धुरी होने के कारण अपने महादेश भारत को लगातार एक के बाद एक कई अग्नि-परीक्षाओं से गुजरना पड़ेगा। 1962 का चीनी आक्रमण शायद इसी की शुरुआत थी। अंतरिक्ष के प्रभावों के विषय में पुरातन ज्योतिषी ही नहीं, आधुनिक खगोल विज्ञानी एवं अन्य वैज्ञानिक सभी एकमत हैं डॉ. मौरिय के अनुसार पूर्णिमाकाल में सूर्य और और चन्द्रमा तीनों एक ही सीधी रेखा में आते हैं। उस वक्त उनके सम्मिलित विद्युत चुम्बकीय प्रभाव एवं गुरुत्वाकर्षण में जो परिवर्तन प्रभाव एवं गुरुत्वाकर्षण में जो परिवर्तन होता है, वह काया के सूक्ष्म विद्युतप्रवाहों पर सीधा प्रभाव डालता है। ग्रहण के समय का प्रभाव और भी व्यापक एवं परिवर्तनकारी होता है। इससे प्रकृति में भारी उलट-फेर की सम्भावना बनता हैं इन्हीं परिवर्तनों के संकेत के रूप में सन् 1962 में 1962 में हृमसेन नामक धूमकेतु का उदय हुआ था। 1962 में इकेवर पुच्छलतारा दिखाई दिया था। इसी वर्ष 1 जनवरी 6 जुलाई एवं 30 दिसम्बर को तीन बार स्वल्पग्रास चंद्रग्रहण हुए। 1964 में 234 जून को खग्रास चन्द्रग्रहण देखा गया। 23 नवम्बर, 1965 को ग्रस्तोदय सूर्यग्रहण हुआ। इक्रोवासेवी धूमकेतु भी इसी साल उदय हुआ था। इसी वर्ष अपने देश को पाकिस्तान के साथ युद्ध के रूप में एक नयी अग्नि-परीक्षा से गुजरना पड़ा।

1966 ई. में 20 मई को सूर्य ग्रहण हुआ। 24 अप्रैल एवं 18 अक्टूबर को दो बार खग्रास चन्द्रग्रहण का योग बना। 1967 में ही सिडनी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एम,टी, बटलर ने घोषणा की थी कि इकास क्षुद्रग्रह पृथ्वी से टकराने की पूर्ण सम्भावना है। इस बारे में परमपूज्य गुरुदेव ने अखण्ड-ज्योति, 1968 के नवम्बर अंक में लिखा कि जब-जब ऐसे विस्फोट हुए हैं अथवा ऐसी परिस्थितियाँ बनी है ओर पृथ्वी के धरातल में हलचल हुई है, तब-तब मानव-जाति का इतिहास करवट बदलता रहा है।

सन् 1968 में 6 अक्टूबर का खग्रास चन्द्रग्रहण तथा 22 दिसम्बर को आशिक सूर्यग्रहण तथा 22 दिसम्बर को आँशिक सूर्यग्रहण हुआ। 1969 में तोगों सातों कोसाका नामक धूमकेतु ने अन्तरिक्ष में अपनी धूम मचाई। 1970 में बेनेट धूमकेतु को आसमान में देखा गया। वर्ष 1971 में भारत को एक बार फिर अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा। हालांकि 1971 में हुए भारत-पाक युद्ध में भारत ने एक नया इतिहास रचा। इसी के साथ बंगलादेश एक नए राष्ट्र के रूप में उदय हुआ। 6 अगस्त, 1971 एवं 30 जनवरी, 1972 को दो बार खग्रास चंद्रग्रहण आया। 30 दिसम्बर, 1973 की खण्डग्रास चन्द्रग्रहण हुआ एवं कोहोयूसिक धूमकेतु का उदय हुआ। 1974 में 4 जून की खण्डग्रहण हुआ एवं कोहोयूसिक धूमकेतु का उदय हुआ। 1974 में 4 जून को खंडग्रास तथा 29 नवंबर को खग्रास चंद्रग्रहण का योग बना।

इस अन्तरिक्षीय उथल-पुथल के साथ युगपरिवर्तन के लिए छेड़े गए अभियान ने भी एक नए आयाम में प्रवेश किया। 1971 से शान्तिकुँज मुख्य रूप से परमपूज्य गुरुदेव की गतिविधियों का केन्द्र बना। 1974 आते-आते प्राण प्रत्यावर्तन सत्रों के माध्यम से सृजन सैनिकों में एक नयी चेतना का अवतरण हुआ। युगपरिवर्तन की प्रक्रिया में तेजी आने के साथ ही अन्तर्ग्रही हलचलों में भी तेजी आ गयी। 18 नवम्बर, 1875 को खग्रास चंद्रग्रहण एवं कोवायासी वर्गर मिलन पुच्छल तारा दिखाई दिया। 1976 में 13 मई को आँशिक चन्द्रग्रहण। तथा 29 अप्रैल को सूर्यग्रहण हुआ। वेस्ट धूमकेतु इसी वर्ष देखा गया। 24 मार्च एवं 16 सितम्बर, 1978 को खग्रास चन्द्रग्रहण हुआ। इसके बाद 13 मार्च, 1979 को खंडग्रास चन्द्रग्रहण तथा 16 फरवरी, 1980 एवं 31 जुलाई, 1981 को सूर्यग्रहण की प्रक्रिया ने अपने प्रभाव दिखाए।

सन् 1982 को सभी ने एकमत से आकाशीय योग की दृष्टि से अद्भुत माना। यद्यपि परमपूज्य गुरुदेव ने वर्ष 1980 से सन् 2000 तक के समय को युगसंधिकाल घोषित किया था, तो भी 1980 से इस प्रक्रिया के तीव्र होने के संकेत अन्तरिक्ष में साफतौर पर न नजर आए। इस वर्ष 9 जनवरी एवं 30 दिसम्बर को दो बार पूर्ण चंद्रग्रहण तथा 15 दिसम्बर को दो बार पूर्ण चन्द्रग्रहण तथा 15 दिसम्बर को सूर्यग्रहण दिखाई दिया। सन् 1986 में 24 अप्रैल एवं 16 अक्टूबर को भी दो बार खग्रास चन्द्रग्रहण का योग आया। इसी साल हेली धूमकेतु आकाश में काफी चर्चित हुआ। 1988 में 3 मार्च को चंद्रग्रहण तथा 18 मार्च व 11 सितम्बर का सूर्यग्रहण देखे गए। 20 फरवरी, 1989 को हुए खग्रास चन्द्रग्रहण ने एक बार फिर अन्तरिक्षीय हलचलों की तीव्रता को सूचित किया।

सन् 1990 में 9 फरवरी को खग्रास एवं 6 अगस्त को स्वल्पग्रास सूर्यग्रहण आया था। वर्ष 1990 में परमपूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के साथ उनकी सूक्ष्मसत्ता की विशेष सक्रियता के साथ युगपरिवर्तन की हलचलों में तीव्रता आयी। 31 दिसम्बर, 1991 को खण्डग्रास चन्द्रग्रहण हुआ। 9 दिसम्बर, 19912 एवं 4 जून, 1993 को दो बार खग्रास चन्द्रग्रहण देखा गया। बृहस्पति ग्रह का दस हजार वर्षों से चक्कर लगाने वाले एक धूमकेतु को अमेरिकी खगोलविद् कैरोलीन शूमेकर एवं डेविडलेवी ने पता लगाया। इन्हीं के नाम से इसे शूमेकर लेवी के नाम से जाना गया। जुलाई, 19992 में यह धूमकेतु बृहस्पति के प्रबल आकर्षण के फलस्वरूप 21 टुकड़ों में विभक्त हो गया। 17 जुलाई, 1994 की मध्य रात्रि से बृहस्पति ग्रह से ये टुकड़े एक-एक कर टकराना शुरू हुए और 22 जुलाई की दोपहर तक यह टकराव जारी रहा। दो लाख नौ हजार किलोमीटर प्रतिघंटे के वेग से हुई इस टक्कर के कारण बृहस्पति पर पृथ्वी के आकार का एक विशाल गड्ढा विनिर्मित हो गया। इस विस्फोट से उत्पन्न ऊर्जा दो लाख टी. एन. यानि कि इस हजार हाइड्रोजन बमों के बराबर थी। अगर यह घटना पृथ्वी पर होती तो महाविनाश हो जाता है।

वर्ष 1994 में वंदनीय माता जीव भर अपने स्थूलशरीर का परित्याग करके सूक्ष्मशरीर से युगपरिवर्तन प्रक्रिया को और अधिक तीव्रतर बनाने में तत्पर हो गयी। 15 अप्रैल, 1995 को ग्रस्तोदय चन्द्रग्रहण तथा 24 अक्टूबर, कार्तिक अमावस्या को व्यापक प्रभावों वाला अमावस्या को व्यापक प्रभावों वाला अमावस्या को व्यापक प्रभावों वाला अमावस्या को व्यापक प्रभावों वाला सूर्यवस्या को व्यापक प्रभावों वाला सूर्यग्रहण हुआ। 3 अप्रैल, 1996 को खग्रास चंद्रग्रहण दिखाई दिया। 1997 का वर्ष आकाशीय हलचलों के लिए बड़ा रोमाँचक रहा। खुली आँखों से देखा जाने वाला हलचलों के लिए बड़ा रोमांचक रहा है। खुली आँखों से देखा जाने वाला हेलीबाँप धूमकेतु कई सप्ताह तक आकाश में आकर्षण का केन्द्र बना रहा। आगामी वर्षों में सन् 2000 तक के इस संक्रांतिकाल में चार और ग्रहण होंगे। 22 अगस्त, 1998 को सूर्यग्रहण होंगे। 22 अगस्त, 1998 को सूर्यग्रहण, 28 जुलाई, 1999 को पश्चिमी देशों में चन्द्रग्रहण तथा सन् 2000 को 29 जनवरी को विदेशों में एवं 16 जुलाई को भारत में पूर्ण चन्द्रग्रहण का योग है।

भारत के दो वैज्ञानिकों प्रो. के. आर. रामनाथन और डॉ. एस. अनन्त कृष्णनन के अनुसार धरती पर आकाशीय पिण्डों का व्यापक प्रभाव पड़ता है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार धूमकेतु सूर्य की सन्तानें है, परन्तु ये ग्रहों के आस-पास एक विशाल धूमकेतु या उल्कापिण्ड पृथ्वी के वातावरण में विकराल आग के गोले के समान प्रवेश करेगा। दीखने में यह छोटे सूर्य के समान होगा एवं पृथ्वी में प्रचण्ड परिवर्तन खड़ा करेगा। व्याख्याकार रेने नूर बजेन के मतानुसार यह युगपरिवर्तन की अन्तिम घटना होगी। दिव्यद्रष्टाओं के अनुसार धूमकेतु अनेकानेक क्रान्तिकारी परिवर्तनों को जन्म देता हैं इसे अगणित शासकों एवं सम्भावनाओं के उत्थान पतन से संबद्ध माना जाता है।

सूक्ष्मवेत्ताओं ने 1997 में दिखे हेलबाँप को भी नवयुग के अभ्युदय का संदेशवाहक माना है।

नवम्बर, 1997 में ही अन्तरिक्ष में ग्रहों की पेरड का एक दुर्लभ दृश्य देखा गया। 18 नवम्बर से 20 नवम्बर तक सूर्यास्त के ठीक आधे घंटे ग्रहों को एक ही पंक्ति में देखा गया। यह दुर्लभ आकर्षक आकाशीय घटना 15 सालों के बाद घटित हुई। इसके पूर्व 10 मार्च, 1882 को ये आठों ग्रह एक ही वृत्तपाद में आ गए थे। इस बार ये आठों ग्रह 130 डिग्री क्वार्ड्रे में फैले थे।

ग्रहों का यह संयोग नवयुग के पूर्वाभास का द्योतक है। अमरीकी अन्तरिक्ष अनुसंधानकर्त्ताओं के अनुसार, अपने सौरपरिवार में नौ ग्रहों के अलावा एक दसवाँ ग्रह भी हैं। यह शनि और पृथ्वी के परिपथों को काटता हुआ गति करता है। सूर्य से सर्वाधिक दूरस्थ कक्षा में स्थित यह ग्रह एक हजार साल में अपना परिक्रमापथ पूर्ण करता है। सुदूर भविष्य में इसे पृथ्वी से भी स्पष्ट देखा जा सकेगा। अमेरिकी अन्तरिक्षवेत्ता जॉन एण्डरसन की एक रिपोर्ट के आधार पर कैनेथ सीडेलमान का कहना हैं कि यह प्लेनेट देन पृथ्वी से पाँच गुना बड़ा है।

जैवब्रह्मांडशास्त्री डेनियल हृटमायर इस ग्रह के साथ भावी प्राकृतिक परिवर्तनों को अनिवार्य मानते है।

अंतरिक्षीय हलचलों में सर्वाधिक प्रमुख है-आठ अप्रैल, 1997 की नासा तथा यूरोपीय एजेन्सियों द्वारा देखी गयी सूर्य की प्लाज्मा में भीषणतम उथल पुथल। वैज्ञानिकों ने इसका प्रभाव पृथ्वी के चारों ओर खासकर ध्रुवीय प्रदेशों में प्रचण्ड आतिशबाजी के रूप में अनुभव किया। सूर्य से आने वाला यह चुम्बकीय अंधड़ 18 लाख मील प्रतिघंटे की रफ्तार से पृथ्वी की ओर आना शुरू हुआ। है। पृथ्वी से 145000 कि.मी दूर सूर्य के तरफ वाले कक्ष में स्थित सोहों उपग्रह के अनुसार सूर्य के अधिक क्रियाशील होने से चुम्बकीय बादलों का निर्माण होने से चुम्बकीय बादलों का निर्माण होता है।, जिसका प्रभाव पृथ्वी के वायुमण्डल पर पड़ता है। इसी अन्धड़ की अधिकता के कारण 11 जनवरी 1990 को बीस करोड़ डॉलर से बने अत्याधुनिक टेलीस्टार उपग्रह ने काम करना बन्द कर दिया था। इससे लाखों अमेरिकियों तक पहुंचने वाला टेलीविजन प्रसारण बन्द हो गया है। विश्वविख्यात साप्ताहिक पत्रिका टाइम के 9 सितम्बर, 1996 के अंक के अनुसार इसी तरह के चुंबकीय तूफान से 1985 में कनाडा अत्यधिक प्रभावित हुआ। इस दौरान वहाँ टी.वी. टेलीफोन तथा रेडियो का प्रसारण यकायक बंद हो गया एवं पाइपों में चुम्बकीय जल प्रवाहित होने लगा।

मोटाँना स्टेट यूनिवर्सिटी की एक बैठक में वैज्ञानिकों ने आशा प्रकट की है। कि सूर्य में उठा इस बार का चुम्बकीय तूफान पृथ्वी की प्राकृतिक स्थिति एवं पर्यावरण में आमूलचूल परिवर्तन को एकबारगी सुधारने वाला दैवीप्रयास है। हालाँकि कइयों का यह भी कहना है कि सम्भवतः यह धरती के पर्यावरण को एकबारगी सुधारने वाला दैवीप्रयास है। हालाँकि कइयों का यह कहना है कि अगर इसकी तीव्रता में वृद्धि हुई तो पृथ्वी का अस्तित्व संकट ग्रस्त भी हो आब्जर्वेटरी’ एवं ‘सोलर हीलियों स्फेरिक आब्जर्वेटरी’ एवं ‘फास्ट आँरोरल स्फेरिक आब्जर्वेटरी’ एवं ‘ फास्ट आँरोरल सन स्पाट एक्सप्लोरा’ नामक उपग्रहों के नवीतम आँकड़ों से पता चलता है। कि सन् 2000 तक सूर्य में चुम्बकीय तूफान नासा के भौतिकवेत्ता जू गर्मन ने कहा है कि सोलर मिनीमम दो सूर्य धब्बों के बीच आता है। सूर्य का धब्बों के बीच आता हैं सूर्य की धब्बा प्रत्येक 11 वर्ष की अवधि में आता है।

उज़्बेकिस्तान के विज्ञानी एन. केनोसेरित ने उल्लेख किया हैं कि सूर्य धब्बों के दौरान पृथ्वी की गतिविधियाँ तीव्रतम हो जाती हैं इनके अनुसार धरती के इतिहास में जब-जब सूर्य में तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुई। है, धरती पर क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए है। इन दिनों सूर्य अपने 11 वर्षीय सक्रियता के शान्त चरण को समाप्त कर तीव्र सक्रियता की ओर अग्रसर हो रहा है। गर्मन का कहना है कि सन् 2000 के अन्दर ही सूर्य में ऐसे कई चुम्बकीय अन्धड़ उठने की सम्भावना है।

कोलारिडो के अन्तरिक्षशास्त्री डेनियलबेकर के अनुसार जब सूर्य टर्बोचाज्ज होता है, तो सूर्य की प्लाज्मा प्रचण्ड तूफान-सी उमड़ते हुए पृथ्वी की ओर दौड़ती चली आती है। सूर्य की इस सक्रिय अवस्था में सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र कोरोनल छिद्र से विस्फोटक प्लाज्मा के धब्बों की संख्या बढ़ जाती है। इसका प्रभाव पृथ्वी पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। सूर्य के बारे में नवीनतम जानकारी देन वाले सोलर मैक्जीमम मिशन एवं यूलीसिसस अन्तरिक्ष अभियान के अनुसार सोलर वाइण्ड के कारण सूर्य के चारों ओर बहुत बड़ा स्थान रिक्त हो गया हैं इसे हिलीयोस्फियर कहते है। इसका आकार सूर्य एवं पृथ्वी के बीच की दूरी के सौ गुना अधिक बड़ा होता है। सन् 2000 तक इसमें तीव्र प्रतिक्रियाएँ होने की सम्भावना है।

युलिसीस उपग्रह के अनुसार, सूर्य के ध्रुवीय क्षेत्र में चुम्बकीय क्षेत्र की रेखाएँ धरती की तरह दो ध्रुवों में विभक्त नहीं होती। ये अन्तरिक्ष में एक समान रूप से फैली होती हैं इनकी इस विशेषता के कारण ब्रह्मांड का चुम्बकीय क्षेत्र अपना नियंत्रण रख पाता है। सन् 2001 तक इन रेखाओं तथा सौरकलंकों में काफी परिवर्तन होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इससे सौर विचलन के बढ़ने से अन्तरिक्ष में चुम्बकीय तूफान उमड़ सकता है। सोलर प्लाज्मा पृथ्वी की चुम्बकीय रेखाओं को प्रभावित करने के साथ ही बड़ी मात्रा में आन्तरिक भूगर्भीय हलचलें पैदा करेगी, ऐसा वैज्ञानिकों का अनुमान है।

नासा के एडवान्स कंपोजिशन एक्सप्लोरा के अनुसार सन् 2000 तक सूर्य में कभी भी उपरोक्त विचलन हो सकता हैं विज्ञानवेत्ता विचलन हो सकता है। विज्ञानवेत्ता यह भी मानते है कि सन् 2001 तक सौर−कलंकों की संख्या पिछले सभी रिकार्ड को तोड़ देगी। प्रसारण विशेषज्ञ जॉन केपमेन के अनुसार, सौपप्लाज्मा में तीव्रता ला सकता है। भविष्यवक्ता एडगरकेसी ने बहुत पहले सन् 2000 के आसपास संसार में भौगोलिक परिवर्तन की भविष्यवाणी की थी। अमेरिकन भविष्यवक्ता रूथ माँटगुमरी के अनुसार सन् 2000 तक पृथ्वी की धुरी में बदलाव आने से सम्पूर्ण विश्व का वायुमण्डल एवं मौसम परिवर्तित हो सकता है।

चर्चित कन्नड पत्रिका ‘तरंग’ में प्रकाशित भविष्यवाणी के अनुसार, आठ मई, 1999 को ब्रह्मांड के आठ उपग्रहों के एक साथ मिलने की सम्भावना हैं विशेषज्ञों का मानना है कि इस मिलन के परिणाम काफी व्यापक परिवर्तन लाने वाले होंगे। विश्व के प्रख्यात ज्योतिषविदों के अनुसार 4 मई, 2000 को अन्तरिक्ष में एक अद्भुत एवं महत्वपूर्ण घटना घटित होने वाली है। ज्योतिषाचार्यों की मान्यता है कि उस दिन पृथ्वी के एक तरफ सभी ग्रह सीधे एक पंक्ति में आ जाएँगे। मंगल को छोड़ कर सभी ग्रहों की एक ही राशि मेष में युति होगी। शुक्र के अलावा समस्त ग्रह सूर्य से अस्त होंगे। पाँच ग्रह एक ही नक्षत्र भरणी में स्थित हो रहे है। गुरु व शनि की दीप्ताँश के भीतर ही युति होगी। सभी ग्रह राहु व केतु के रेखाँश के भीतर आयेंगे अर्थात् काल सर्प योग का निर्माण हो रहा है।

इन सभी ग्रहों के पृथ्वी के एक ही सीध में आ जाने से सबकी समन्वित ध्रुव का स्थान परिवर्तित होने की सम्भावना बनती है। इससे पृथ्वी में तीव्र परिवर्तन होंगे। इस दिन काल सर्प का योग विश्व को महापरिवर्तन की ओर मोड़ सकता है। 4 मई, 2000 को नीचे अन्दर हो रही है। यह युति दीप्ताँश के अन्दर हो रही है। यह युति भारत के अध्यात्म क्षेत्र में एक बहुत बड़ी क्रान्ति का सृजन करेगी तथा भारत फिर विश्व का धार्मिक एवं आध्यात्मिक गुरु बनेगा। इस दिन मेष में सभी ग्रहों की युति शून्य अंश पर नहीं होने के बावजूद वह प्रभाव एक नए युग का सूत्रपात करेगा। 2 फरवरी से 5 फरवरी, 1962 के अष्टग्रही योग से प्रारम्भ हुई युगपरिवर्तन की सक्रियता अपनी परिसमाप्ति 4 मई अष्टग्रही योग के अवसर पर करेगी।

इस अवधि में हुई और होने वाली विभिन्न अन्तरिक्षीय हलचलों की चर्चा करते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने वर्ष 1989 की अखण्ड-ज्योति के मई अंक में स्पष्ट घोषणा की थी, “पिछली सहस्राब्दियों के समय जो परिवर्तन हुए होंगे, उनकी तुलना में इस प्रकार की अन्तरिक्षीय हलचलों को हद दृष्टि से अद्भुत माना जाना चाहिए। इसे नयी सदी में आने वाले नवयुग के प्रभातकालीन अरुणोदय की वेला कहा जा सकता है।”


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