साधु को न जाने क्या सूझी, दुकानदार के यहाँ नौकरी कर ली। दुकानदार ने कहा-”देखना, बिगड़ मत जाना ” उसका इशारा रुपये-पैसों की बेईमानी से था। साधु बोला”निश्चित रहो, अपनी फिकर करो। किन्तु न जाने इस झंझट में क्यों आ फँसा बेचारा।
जब थोड़ी पूँजी एकत्रित हो गई तो एक दिन साधु बोला-”मेरा मन तीर्थयात्रा पर जाने का करता है, क्या आप भी चलेंगे। व्यवसायी बोला- मन तो करता है, किन्तु क्या -क्या तैयारी करनी होगी। संन्यासी बोला, “वह सब तो मैं करवाता रहूँगा, उसकी फिकर छोड़ो | साल भर में संन्यासी दुकानदार की चालबाजियों से पूरी तरह परिचित हो गया। उसे सब चीजों के वास्तविक दाम भी मालूम हो गया। अब जब भी काई ग्राहक आता, व्यवसायी उसको तोलने, नापने में गड़बड़ी करता, तो संन्यासी कहता बतलाता तो कहता प्रभु! याद रखना तीर्थयात्रा करनी है, दुकानदार के दिल की धड़कन बढ़ जाती। साल बाद अब दुकानदार ने कहा- संन्यासी जी’ अब चलें तीर्थयात्रा, ऐसे में फुरसत भी है। किन्तु संन्यासी ने कहा- तात्! तीर्थयात्रा तो पूरी हो गई। ईमानदारी की गंगा में नित्य ही डुबकी लगाने का मौका मिलता रहा। तीर्थयात्रा के बहाने स्मृति सदैव यही बनी रही हक तीर्थयात्रा पर चलना हैं अब चोरी, बेईमानी, ठगी बोल- आपने तो मेरी आँखें खोल दीं जीवन धन्य कर दिया।