युगपरिवर्तन के तीन सोपान-आत्म, परिवार एवं समाजनिर्माण

February 1998

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युगपरिवर्तन सुनिश्चित है, अवश्यम्भावी है। सारे विश्व की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ चरमरा रही है। एवं जीवनमूल्य तेजी से टूट रहे है। ऐसे में आशा की एक ही किरण शेष है, वह है- व्यक्ति अपने से बदलाव आरम्भ करे- परिवार एवं समाज तभी बदल पायेंगे। ज्ञानयज्ञ-विचार क्रान्ति के माध्यम से ये तीनों प्रक्रियाएँ कैसे सम्पन्न होंगी, इस पर समय-समय पर पूज्यवर ने जो लिखा है उसे साररूप में तीन भागों में आत्मनिर्माण, परिवारनिर्माण एवं समाजनिर्माण के खण्डों में यहाँ दिया जा रहा है। यह मिशन की समग्र क्रियाप्रणाली का युगपरिवर्तन के सिद्धांतों का एक प्रकार से दिग्दर्शन है, एक झलक-झांकी है।

शुभारम्भ होगा-आत्मनिर्माण से

युगपरिवर्तन प्रक्रिया के अंतर्गत नवनिर्माण अभियान का शुभारम्भ श्रीगणेश अपने आप से शुरू किया जाना है। दूसरे को उपदेश और अपनी उपेक्षा, यह बात अन्य प्रकरणों में चल भी सकती है। पर जहाँ लोकमानस के परिष्कार का प्रश्न सामने आयेगा, वहाँ उसका प्रथम चरण स्वयं ही उठाना पड़ेगा। उत्कृष्टता उपदेश से नहीं, अनुकरण से उत्पन्न होती है, इस तथ्य को जितनी जल्दी और जितनी गहराई से समझ लिया जाय, उतना ही उत्तम है। यदि युगपरिवर्तन का प्रतिपादन समझ में आता है तो इसे जानकारी मात्र न रहने देकर आसक्ति में परिणत किया जाए और दो साहसिक कदम उठाये ही जाएँ। एक यह कि अपनी वर्तमान जीवनचर्या में जितना भी सम्भव हो सके, परिवर्तन किया जाए, भले ही वह परिवर्तन न्यूनतम ही क्यों न हो। अपनी अवाँछनीयताओं को ढूँढ़ना, स्वीकार करना, उन्हें हटाने की आवश्यकता अनुभव करनी और साहसपूर्वक कुछ से तो लड़ पड़ा ही जाए और उन्हें छोड़ने के लिए ऐसा संकल्प निश्चय किया जाए कि भविष्य में उसे निबाहते हुए भी बाधा को आड़े न आने दिया जाए। दूसरा कदम यह है कि अपने में जिन सद्गुणों का अभाव यह है कि अपने में जिन सद्गुणों का अभाव है उनमें से कुछ को अपनाने और स्वभाव-अभ्यास में लाने का व्रत-धारण किया जाए। निकृष्टताओं को उत्कृष्टताओं में परिणत करने के शौर्य-साहस का नाम ही आत्मबल है। तप-तितिक्षा का, साधना उपासना का, स्वाध्याय-सत्संग का एकमात्र प्रयोजन इस आत्मकाल को उत्पन्न करने की, मनः स्थिति बनाना ही है। अवांछनीयताओं के अभिवर्धन का शौर्य साहस प्रदर्शन करने से आत्मबल बढ़ता है। बढ़ा हुआ आत्मबल ही वह शक्ति है,

जिससे आश्चर्यजनक एवं चमत्कारी आध्यात्मिक विभूतियों से मनुष्य सुसम्पन्न बनता है। ज्ञान और तप की सार्थकता उस साहसिकता की कसौटी पर कसी जाती है। जिसके आधार पर दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ना और सत्प्रवृत्तियों को जमाने का संकल्प, साहस और पराक्रम सम्भव हो सके।

उपरोक्त दो प्रयास आध्यात्मिक साधना के वे दो दो चरण है। जिनके सहारे जीवन-लक्ष्य की पूर्ति तक क्रमबद्ध रूप से बढ़ा जा सकता हैं इन्हें साधना एवं उपासना का युग्म कहा जाता है। दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन साधना है। और सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन उपासना। असुरता का उन्मूलन और देवत्व का पोषण, यही धर्म-धारणा है और यही ईश्वर-आराधना। यह तथ्य यदि गहराई से समझ लिया जाए तो तत्वदर्शन के उस मूल प्रयोजन को समझा जा सकता हैं जिसके लिए आस्तिकता और धार्मिकता का विशालकाय कलेवर दूरदर्शी ऋषियों ने खड़ा किया है। आत्मिकप्रगति की दिशा में इन्हीं दो कदमों को क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ाते हुए सभी अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकते है। यह तो हुआ सनातन और शाश्वत सत्य। यदि सामाजिक परिस्थितियों की दृष्टि से भी सोचें तो लोकमानस को निकृष्टता से उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के लिए भी इसी उपाय का तात्कालिक उपचार के रूप में भी प्रयोग करना पड़ेगा। विचार-क्रान्ति इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता हैं यह विचार क्रांति भी बंधी और खिंची चली आये। इस समग्र विचारक्रान्ति का शुभारम्भ अपने आप से ही हो सकता हैं दूसरों एक हद एक ही काम करती है। असली प्रभाव तो उपदेशक के चरित्र का ही पड़ता है। अनुकरण के लिए जब तक आदर्श सामने न हो, तब तक उस कष्टसाध्य मार्ग पर चलने का लोगों में साहस ही नहीं होता। भौतिक जानकारियाँ लेखनी और वाणी उसे भी पूरी हो सकती है, पर आध्यात्मिक प्रशिक्षण के लिए तो शिक्षक का परिवर्तित जीवन है प्रधान आधार है। इसके बिना दूसरों में वह उत्साह उत्पन्न ही नहीं हो सकता जिसके आधार पर व्यक्ति में समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन सम्पन्न होते है।

युगनिर्माण की सीढ़ियां है (1) आत्मनिर्माण (2) परिवारनिर्माण (3) समाजनिर्माण। इनमें से क्रमशः एक के बाद सरी पर चढ़ने के लिए अधिक योग्यता ओर समर्थता चाहिए सबसे सरल और सबसे आवश्यक आत्म-निर्माण हैं प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति इस दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते रह सकते हैं घोर व्यस्त, सर्वथा अयोग्य, असमर्थ यहाँ तक कि रुग्ण-अपंग व्यक्ति भी इस मार्ग पर उपयोगी कदम बढ़ा सकते हैं आत्म-निर्माण है। प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति इस दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते रह सकते हैं घोर व्यस्त, आगे बढ़ते रह सकते है। घोर व्यस्त, सर्वथा अयोग्य, असमर्थ, यहाँ तक कि रुग्ण-अपंग व्यक्ति भी इस मार्ग पर उपयोगी कदम बढ़ा सकते है। आत्मनिरीक्षण करके गुण, कर्म, स्वभाव में भरे हुए दोष-दुर्गुणों को ढूँढ़ा जा सकता है और उन्हें निरस्त करने का प्रचार आरम्भ किया जा सकता है। लोहे से लोहा कटता हैं और विचारों से विचारों की काट की जाती हैं हेय आदतों, इच्छाएँ और मान्यताएँ जो अपने मनःक्षेत्र में जड़ जमाए बैठी हो, उन्हें आत्मनिरीक्षण की टॉर्च जलाकर बारीकी से तलाशा करना चाहिए और निश्चय करना चाहिए कि उनका उन्मूलन करके ही रहेंगे।। प्रत्येक निकृष्ट चार के विरोधी विचारों की एक सुसज्जित सेना खड़ी करनी चाहिए। उन्हें नोट करना चाहिए और बार-बार उन पर मनन-चिन्तन करते हुए मनः क्षेत्र में गहराई तक प्रतिष्ठापित करना चाहिए।

धर्म और अध्यात्म के विशालकाय कलेवर का एक ही उद्देश्य हैं व्यक्तित्व को उत्कृष्टता के, सज्जनोचित शालीनता के, प्रतिभा और कर्म-कौशल के उच्च शिखर तक पहुँचाना। इस प्रयोजन के लिए जिस उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्य की आवश्यकता है, उसे जुटाने के लिए अनवरत अथक प्रयत्न करना इसी का नाम तप-साधना है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन का इसके अतिरिक्त, और कोई उद्देश्य नहीं। ईश्वरप्राप्ति आत्मसाक्षात्कार, स्वर्ग-उपलब्धि ओर जीवन-मुक्ति का तात्विक स्वरूप यही हैं कि व्यक्ति अपनी समस्त क्षुद्रताओं और निकृष्टता को निरस्त करके सदुद्देश्यपूर्ण सत्प्रयोजनों में निरस्त रहने का अभ्यस्त बन जाय। परिष्कृत आत्मा का नाम ही परमात्मा हैं अपने कषाय-कल्मषों का निराकरण करना ही तप-साधना हैं ईश्वर-प्रेम का सहारा लेकर अन्तःकरण में अपार प्रेमनिष्ठ की धारणा और उसका लाभ उदार सेवा-प्रवृत्ति के रूप में प्राणिमात्र को देना, ईश्वरभक्ति हमें इसी लक्ष्य उदार सेवा-प्रवृत्ति के रूप में प्राणिमात्र को देना, ईश्वरभक्ति हमें इसी लक्ष्य की ओर ले जाती है। अध्यात्म दर्शन की सारी सफलता इस बात पर निर्भर की सारी सफलता इस बात पर निर्भर है कि व्यक्तित्व के समग्र निर्माण के लिए कितना साहस किया गया? दुर्गुणों को निरस्त करने और सद्गुणों को बढ़ाने के लिए कितना प्रयास किया गया।

आत्मनिर्माण के मूलभूत निम्नलिखित चार दार्शनिक सिद्धांतों पर हर दिन बहुत गम्भीरता के साथ बहुत देर तक मनन-चिन्तन करना चाहिए। जब भी समय मिले, चार तथ्यों को चार वेदों का सारतत्व मानकर समझना और हृदयंगम करना चाहिए। यह तथ्य जितनी गहराई तक अन्तःकरण में प्रवेश कर सकेंगे, प्रतिष्ठित हो सकेंगे, उसी अनुपात से आत्म-निर्माण के लिए आवश्यक वातावरण बनता चला जाएगा।

आत्मदर्शन की प्रथम तथ्य है आत्मा को परमात्मा का परमपवित्र अंश मानना और शरीर एवं मन को उससे सर्वथा भिन्न मात्र वाहन अथवा औजार भर समझना।

दूसरा आध्यात्मिक तथ्य है। मानव जीवन को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार मानना। इसे लोकमंगल के लिए दी हुई परमपवित्र अमानत स्वीकार करना।

तीसरा आध्यात्मिक तथ्य है- मानव जीवन को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार मानना। इसे लोकमंगल के लिए दी हुई परमपवित्र अमानत स्वीकार करना।

तीसरा महासत्य है। है। -अपूर्णता को पूर्णता तक पहुँचाने का जीवन लक्ष्य प्राप्त करना। दोष-दुर्गुणों का निराकरण कतरे चलने और गुण-कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता बढ़ाते चलने से ही ईश्वर और जीव के बीच की खाई पट सकती है।

चौथा महासत्य हैं इस विश्व ब्रह्मांड को ईश्वर की साकार प्रतिभा मानना। श्रम-सीकरों और श्रद्धा सद्भावना के अमृतजल से उनका अभिषेक करने की तप -साधना करना। दूसरों के दुःख बँटाने और अपने सुख बाँटने की सहृदयता विकसित करना।

यह चार सत्य चार तथ्य ही समस्त अध्यात्म विज्ञान के साधना विधान के केन्द्रबिन्दु हैं चार वेदों का सारतत्व यही हैं इन्हीं महासत्वों के हृदयंगम करने और उन्हें व्यवहार में उतारने से परमलक्ष्य की प्राप्ति होती हैं जीवनोद्देश्य पूर्ण होता हैं इन महासत्यों को जितनी श्रद्धा और जागरूकता के साथ अपनाया जाएगा, आत्म निर्माण उतना ही सरल और सफल होना चला जाएगा। युग परिवर्तन की प्रक्रिया में युग निर्माण की दिशा में बढ़ते हुए सर्वप्रथम आत्म निर्माण पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए। यहीं से वह शुरुआत होती है जो समग्र परिवर्तन के रूप में चारोँ और दिखाई पड़ती हैं विचारक्रान्ति का बीज है। आत्मनिर्माण।

परिवर्तन -प्रक्रिया का दूसरा चरण परिवारनिर्माण

आत्मनिर्माण के बाद बारी आती है। परिवारनिर्माण की, जो कि एक प्रकार से मिनी प्रजातंत्र है। गृहस्थों की परिवार संस्था एवं वैरागी संत महात्माओं के अखाड़े, समाज सम्प्रदाय आदि भी एक प्रकार से एक ही श्रेणी में आते है। उद्योग व्यवसायियों के उच्च आदर्श सामने रखकर खड़े किए संगठन, सामाजिक एवं जातीय संगठन भी एक परिवार ही बनाते हैं पूर्ण एकाकी तो कोई जड़ या परमहंस ही रह सकता हैं स्नेह-सहयोग के आदान-प्रदान का तंत्र जब तक एक समूह में मौजूद है, उसे एक छोटा राष्ट्र एक छोटी इकाई मानकर परिवार की परिधि में ही रखना चाहिए, एवं उसके बिना आत्मा की तृप्ति या कल्याण की बात नहीं सोचती चाहिए।

युगनिर्माण के योग्य बनने, विकसित होने के लिए सभी को परिवार निर्माण की पाठशाला में प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए। भोजन, वस्त्र की, शौक मौज, की शिक्षा-सुविधा की व्यवस्था बनाये रहने से ही परिवार की आवश्यकता पूर्ण नहीं हो जाती, वरन् उस छोटे क्षेत्र में ऐसा वातावरण बनाना पड़ता है, जिसमें पलने वाले प्राणी हर दृष्टि, से समुन्नत-सुसंस्कृत बन सके। अधिक खर्च करने, अधिक सुविधा-साधन रहने से, नौकर-चाकरों की व्यवस्था रहने से घर साफ-सुथरा और सुसज्जित रह सकता है। सम्पन्नता के आधार पर बढ़िया भोजन वस्तु? ऐश आराम, विनोद-मनोरंजन के साध मिल सकते हैं, किन्तु व्यक्तित्व को समग्र रूप से विकसित कर सकने वाले सुसंस्कार केवल उपयुक्त वातावरण में ही सम्भव हो सकते हैं ऐसा वातावरण कीं बना-बनाया नहीं मिलता, न कहीं खरीदा जा सकता हैं उसे तो स्वयं ही बनाना पड़ता है।

प्राचीनकाल के गुरुकुलों की बात दूसरी थी, वहाँ उत्कृष्टता का वातावरण बना हुआ रहता था, घर–परिवार में जो कमी रहती थी, उसकी पूर्ति वहाँ हो जाती थी, ऋषि तपस्वी अपने ज्ञान, कर्म और प्रभाव से विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण की आवश्यकता पूरी किया करते थे, पर अब वैसे गुरुकुल, विद्यालय कहाँ है? अब तो वह आवश्यकता प्रत्येक सद्गृहस्थ को स्वयं ही पूरी करनी पड़ेगी इस यदि पूरा न किया गया घर में सुसंस्कृत वातावरण न बनाया जा सका, परिष्कृत-परम्पराओं का प्रचलन न किया जा सका तो उस धर में रहने पलने वाले लोग भूत-बेताल बनकर ही रहेंगे लोग भूत-बेताल बनकर ही रहेंगे। स्वास्थ्य, शिक्षा चतुरता की दृष्टि से वे कितने ही अच्छे क्यों न हो, मानवी सद्गुणों से वंचित ही रहेंगे। कोई कितना कमाता है, कितना बड़ा कहाता हैं यह बात अलग है ओर किसका व्यक्तित्व कितना समुन्नत हैं यह कहाता है यह बात अलग है और किसका व्यक्तित्व कितना समुन्नत है, यह प्रश्न बिलकुल अगल है। बड़ा आदमी बनना सरल हैं श्रेष्ठ, सज्जन बनना कठिन हैं सुख शान्तिपूर्वक रहने के लिए बड़प्पन की नहीं, महानता की आवश्यकता पड़ी हैं उसी का उपार्जन मानव-जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कोई परिवार इस दिशा में जितना सफल होता है उसकी उतनी ही सार्थकता मानी जा सकती है।

घर के वातावरण में यदि अवांछनीयताएं, विकृतियाँ फैली पड़ी हैं तो इसका एकमात्र कारण सद्प्रवृत्तियों सद्भावनाएँ उत्पन्न कर सकने वाले वातावरण का अभाव है। उसे पैदा करने पर ही उलझनें सुलझेंगी। अन्धकार का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं, प्रकाश का अभाव ही अन्धकार का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं, प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है। ठीक यही बात पारिवारिक वातावरण पर लागू होती है, जहाँ सद्भावनाओं को आरोपित पल्लवित न किया गया होगा वहाँ दुर्भावनाओं की, दुष्प्रवृत्तियों की कँटीली झाड़ियाँ उगेगी ही और उनके काँटे चुभे बिना रहेंगे ही नहीं। यही है पारिवारिक क्लेश-कलह का दार्शनिक कारण बाहरी दृष्टि से लड़-झगड़ या मानों मालिन्य के दूसरे स्थूल कारण भी हो सकते है उनका निवारण भी किया जा सकता है फिर भी आंतरिक दुर्बुद्धि जहाँ सकता हैं फिर भी आन्तरिक दुर्बुद्धि जहाँ बनी ही बनी हुई है वहाँ द्वेष और कलह के लिए कुछ न कुछ बहाने समाने आते ही रहेंगे और दुर्गन्ध भरी नारकीय सड़न उत्पन्न करते हो रहेंगे। ऐसे घर-परिवार में रहकर कोई व्यक्ति न तो सुखी-सन्तुष्ट रह सकता है और न जीवन में महत्वपूर्ण प्रगति का अभ्यस्त हो सकता हैं

परिवारनिर्माण वस्तुतः एक दर्शन है क्रिया-कलाप तक इसे सीमित नहीं रखा जा सकता। जैसी भी व्यवस्था अभीष्ट हो, उसके लिए परिवार के लोगों की मन स्थिति का निर्माण किया जाना चाहिए यह प्रयोजन तभी सफल हो सकता है जब तक अपना मनोयोग, समय और श्रम उसके लिए नियमित रूप से लगाया जाए। यह अभिरुचि, तरपश्रता एवं संलग्नता तक उत्पन्न हो सकती है। जब परिवारनिर्माण की आवश्यकता को गम्भीरतापूर्वक समझा जाए और यह सोचा परिवारनिर्माण की आवश्यकता को गंभीरतापूर्वक समझा जाए ओर यह सोचा कि इस मान उत्तरदायित्व का निर्वाह करना कितना अधिक महत्वपूर्ण हैं यह काम नौकरों से, बाहरी के आदमियों से कराने का नहीं हैं अन्यान्य लोग बता-सिखा सकते है, परिवार के लोगों में धुल-मूल नहीं सकते, घनिष्ठ आत्मीयता भरा अपनापन ही आन्तरिक आदान-प्रदान का अपनापन ही आंतरिक आदान-प्रदान का ही माध्यम होता है मनःस्थिति पर प्रभाव डालने की क्षमता केवल उन्हीं में होता है। मनःस्थिति पर प्रभाव डालने की क्षमता स्पर्श करे। विशेषतया स्वभाव एवं दृष्टिकोण में परिष्कृत परिवर्तन करने के लिए तो ऐसे ही शिक्षक बाहर से ढूँढ़ना बेकार है, हेय कार्य हमें स्वयं ही करना पड़ेगा। भोजन, स्नान, निद्रा, विनोद आदि की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए श्रम हमें स्वयं ही करना होता है, यह प्रयोजन दूसरों के द्वारा पूरे नहीं कराये जा सकते है। परिवारनिर्माण का कार्य अपने अतिरिक्त बाहर के लोगों से कराया नहीं जा सकता। आज की स्थिति में इस तथ्य को हमें पूरी तरह ध्यान में रखना चाहिए दूसरे, कुछ सामयिक परामर्श दे सकते हैं या क्षणिक प्रभाव डाल सकते सुसंस्कारों की जड़ जमाने के लिए जिस अध्यवसाय की दीर्घकालीन और अनवरत आवश्यकता पड़ती है, उसकी पूर्ति कोई बाहर का व्यक्ति कब तक और कहाँ तक करेगा?

प्रश्न इतना भर नहीं है कि परिवार का वातावरण अच्छा बनाया जाए और परिजनों को सुसंस्कृत स्तर तक पहुँचाना जाय। यह केवल एक प़ा हैं परिवारनिर्माण का दूसरा पक्ष और भी अधिक महत्वपूर्ण है वह है अपनी जिन की आदतों, आस्थाओं और गतिविधियों का निर्माण-नियन्त्रण करना। यह कार्य परिवार की प्रयोगशाला में ही सम्भव हो सकता हैं जलाशय में घुसे बिना तैरना कहाँ आता है। व्यायामशाला में प्रवेश किये बिना कोई पहलवान थोड़े ही बन सकता हैं सत्प्रवृत्तियों को परिपक्व करने के लिए अभ्यास करना पड़ता है एवं इस अभ्यास हेतु परिवार से श्रेष्ठ कोई उदाहरण नहीं हो सकता।

परिवारनिर्माण सके लिए प्रयास करना वस्तुतः अपनी श्रेष्ठ मान्यताओं को मूर्त रूप देने के लिए प्रयोगशाला में प्रवेश करना है परिजनों के मध्यम से अपनी शालीनता एवं क्रिया-कुशलता को विकासोन्मुख बनाना हैं इस प्रकार परिवारनिर्माण की दिशा में किये गये प्रयास-केवल कुटुम्बियों की सार्थक सेवा ही सम्पन्न नहीं करते, वरन् अपने व्यक्तित्व को भी निखरते हैं अपनी आदतों में भी उत्कृष्टता का समुचित समावेश करते है, यह दुहरी सफलता प्रस्तुत करता हैं मेंहदी पीसने वाले के हाथ रंग जोते है, वाली उक्ति के अनुसार उस कार्य में संलग्न व्यक्ति के अनुसार उस कार्य में संलग्न व्यक्ति को आत्मनिर्माण का लाभ भी मिलता है।

आजीविका उपार्जन के अतिरिक्त कुछ समय हमें परिवार-निर्माण के लिए भी नियमित रूप से देना चाहिए यह एक उच्चकोटि का मनोरंजन हैं ताश, शतरंज, गपशप, सिनेमा, मटरगश्ती, यारबाजी,आलस्य, अनुत्साहपूर्वक काम करने की मंदगति आदि व्यसनों और प्रमादों में हमारा बहुत-सा समय नष्ट होता हैं हिसाब लगाया जाए तो प्रतीत होगा कि समय की यह बरबादी बहुत बड़ी है। इतनी अधिक है कि उसे बचाकर ही परिवारनिर्माण के अनेक महत्वपूर्ण कार्य करने का अवसर प्राप्त किया जा सकता है और फुरसत न मिलने का बहाना सर्वथा निरर्थक सिद्ध हो सकता हैं मनोरंजनों में सबसे बढ़िया, सबसे सार्थक, सबसे हल्का और सबसे सरल परिवारनिर्माण ही है।

परिवार-निर्माण के दो पक्ष हैं एक व्यावहारिक -क्रियापरक और दूसरा दार्शनिक- दृष्टिकोणपरक। हमें दोनों ही तथ्यों का अपनी क्रिया-प्रक्रिया में समुचित समावेश करके चलना होगा। व्यावहारिक-कार्यक्रम में धर की सुव्यवस्था, सुन्दरता एवं सुसज्जा पर ध्यान दिया जाना चाहिए उसके लिए अकेले ही नहीं लगना चाहिए वरन् क्रमशः सभी लोगों को साथ लगाना चाहिए। स्वयं साथ लगने से दूसरों में उत्साह पैदा होता है, अन्यथा सृजनात्मक कार्यों में रूखापन समझा जाता है और उसे भर-बेकार समझकर कन्नी काटने की मनोवृत्ति रहती है आदेश-निर्देश देते रहने से बात बनती नहीं प्रयोजन तब पूरा होता है, जब स्वयं आगे चला जाए और कंधे से कन्धा लगाकर काम करने के लिए दूसरों को आमन्त्रण दिया जाए। ‘अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं दीखता ‘ वाली कहावत ऐसे ही हर काम पर लागू होती है। इंजन आग चलता है तो डिब्बे पीछे लुढ़कने लगते हैं परिवार-निर्माण के लिए बनाये गये व्यवस्था-क्रम में हर मनुष्य को स्वयं ही इंजन की भूमिका सम्पादित करनी पड़ेगी।

इसके लिए परमपूज्य गुरुदेव ने व्यावहारिकता के धरातल पर सबके लिए हृदयंगम करने योग्य पारिवारिक पंचशील सबके लिए प्रस्तुत हैं, जो इस प्रकार है-

(1) सुव्यवस्था- इसमें अपने आपको, साधनों को सुनियोजित आपको, साधनों को सुव्यवस्थित रखने की प्रक्रिया पर ध्यान दिया जाता है। प्रकारान्तर से यही दिया जाता है। प्रकारान्तर में ही स्वच्छता सौंदर्यदृष्टि जैसी सत्प्रवृत्ति का भी समावेश हो जाता हैं

(2) नियमित-श्रम और संयम के समन्वय का नाम ही नियमितता हैं हर काम समय पर करना, परिवार में श्रेष्ठ संस्कार लेने का द्वार खोलने की प्रक्रिया है।

(3) सहकारिता-प्रगति का मूल है सहकार-सद्भाव के साथ किया गया कार्य। स्वच्छता अभियान से लेकर ज्ञानार्जन, स्वस्थ मनोरंजन, सकारात्मक निर्माण आदि में इस गुण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

(4) प्रगतिशीलता- उत्कृष्ट महत्वाकाँक्षाएँ रखकर मनःस्थिति को इस महत्वाकांक्षाएं रखकर मनःस्थिति को इस प्रकार नियोजित करना कि सभी की उन्नति, नियोजित करना कि सभी की उन्नति, प्रगति भौतिक एवं आत्मिक हर क्षेत्र में समान रूप से हो, इस विधा में आते है।

(5) शालीनता- सज्जनता, मधुरता आदि गुण इस विधा में होते है। एवं फलश्रुतिस्वरूप प्रामाणिकता, नागरिकता, सामाजिकता जैसे सद्गुण उभरकर आते हैं यह परिवारनिर्माण की कुंजी है।

परिवार का एक सहयोग-समिति के रूप में विकसित करना चाहिए। के रूप में विकसित करना चाहिए। जिसका हर सदस्य अपने कर्त्तव्य और अधिकार की मर्यादाओं को समझे। न तो कोई पिसता रहे और न किसी को मटरगश्ती करने दी जायं। बड़े- बूढ़े भी ठाली बैठना अपना अधिकार एवं सम्मान न समझें, वरन् सामर्थ्य भर श्रम करते हुए परिवार के विकास में समुचित योगदान करे। विचार-स्वतन्त्रता का सम्मान किया जाएं न किसी पर अवाँछनीय प्रतिबन्ध लगें और न कोई उद्धत उच्छृंखलता बरते, तभी परिवार में सुसंतुलन बना रह सकता है। हराम की कमाई खाने का लालच किसी में पैदा न होने दिया जाए। परिवार के हर सदस्य को स्वावलम्बी बनाया जाय। पूर्वजों की संचित संपत्ति पर गुजारा करना कृत्य माना जाए। हर व्यक्ति स्वावलम्बनपूर्वक कमाये। पूर्वजों की संचित पूंजी सामाजिक सत्कार्यों के लिए दान कर दी जाए। यही श्राद्ध की चिरपुरातन परम्परा है, उत्तराधिकार में प्रचुर सम्पदा छोड़ मरना अपने बच्चों का पतन हनन करना हैं उन्हें सुयोग्य स्वावलंबी बनाया जाएं और अपने परिश्रम की कमाई पर गुजारा करने में स्वाभिमान अनुभव करने दिया जाए।

वस्तुतः परिवार एक पूरा समाज, एक पूरा राष्ट्र है। भले ही उसका आकार छोटा हो, पर समस्याएँ वे सभी मौजूद है जो किसी राष्ट्र या समाज के समाने प्रस्तुत रहती हैं प्रधानमन्त्री अथवा राष्ट्रपति को जो बात अपने देश को समुन्नत बनाने के लिए बात अपने देश को समुन्नत बनाने के लिए सोचनी-करनी चाहिए, वही सब कुछ किसी सद्गृहस्थ को परिवार निर्माण के लिए करना चाहिए। कुशल माली जिस तरह अपने उद्यान को सुरम्य, सुविकसित बनाने के लिए अथक परिश्रम करता है हर पौधे पर पूरा ध्यान रखता है, उसे सींचता-छाँटता है, उसी प्रकार परिवार के हर सदस्य की सुसंस्कृत बनाने के लिए उसके साथ नरम-कठोर व्यवहार करते रहना चाहिए। उपार्जन और यारबासी में ही आमतौर से लोग अपना अधिकाँश समय गुजारते हैं फलतः परिवार की उपेक्षा होती रहती हैं और उसमें ऐसे विषबीज पनपते रहते है, जिनके कारण आगे चलकर कुटुम्ब दुष्प्रवृत्तियों का, फुट-फिसाद का शिकार होकर नष्ट-भ्रष्ट हो ही जाय।

अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास करने के लिए गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए परिवार-निर्माण का परिष्कृत करने के लिए परिवार-निर्माण के कार्यक्रम को एक उपयोगी प्रयोग-प्रकरण मानना चाहिए। यह छोटे रूप में एक प्रकार की देशसेवा, समाज-सेवा, विश्व-सेवा ही है। अपना और परिवार के सदस्यों का कल्याण तो इसमें ही है।

नवसृजन प्रक्रिया का तीसरा चरण समाज-निर्माण

व्यक्तिनिर्माण एवं परिवार-निर्माण के दो कार्यक्रमों के बाद तीसरी बारी समाज की आती है। व्यक्ति सुखी रहे, इसके लिए समुन्नत समाज की आवश्यकता पड़ती हैं उत्कृष्ट व्यक्तियों का श्रेष्ठ सज्जनों के नेतृत्व में विनिर्मित समूह ही समुन्नत समाज का निर्माण करता हैं समाज का स्तर गिरता तब है, जब श्रेष्ठ व्यक्ति घट जाता है एवं सामाजिक वातावरण में उत्कृष्टता बनाए रखने में सभी रचनात्मक प्रयास शिथिल पड़ने लगते है। समाज गिरता है तो उस का विशेष के प्रायः सभी व्यक्ति निकृष्ट, अधोपतित व दुर्बल बनते चले जायेंगे। अच्छा समाज व्यक्ति अच्छा समाज बनाते हैं। दोनों ही अन्योन्याश्रित है।

जिस मुहल्ले में आग लगी हो, हैजा फैला हो उसमें रहने वाले स्वच्छताप्रिय अथवा जागरूक लोगों की भी सुरक्षा नहीं होती। सुखे के साथ गीला जलने की कहावत चरितार्थ होती है। चोरों और दुष्टों के पड़ोस में रहकर कोई सज्जन भी चैन से नहीं बैठ सकता। बैठना चाहे तो भी वे दुष्टों के पड़ोस में रहकर कोई सज्जन भी चैन से नहीं बैठ सकता। बैठना चाहे तो भी क्यों न किया जाता हरे, पड़ोसी की गनदरी हवा अपना प्रभाव छोड़ेगी ओर निकृष्टता का आकर्षण कुटुम्बियों में भी उसी प्रकार की दुर्बुद्धि के संस्कार पैदा करेगा। वेश्याओं के पड़ोस में रहकर उनकी हरकतें भर देखते रहा जाए तो सदाचार की मानसिक मर्यादाएँ टूटे बिना न रहेगी।

समाज में यदि अनैतिक अवाँछनीय अपराधी-तत्व भरे पड़े हो तो उनकी हलचलें, हरकतें किसी सन्त, सज्जन की उत्कृष्टता को सुरक्षित नहीं रहने दे कसती। विकृत समाज में असीम विकृतियाँ उत्पन्न होती है। और अनेक प्रकार के विग्रह उत्पन्न करती हैं उनकी लपेट में आये बिना कोई नीतिवान व्यक्ति भी रह नहीं सकता। उसे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष आक्रमणों का शिकार होना पड़ेगा। जहाँ खाद्य-पदार्थों में मिलावट का बोलबाला हो, पदार्थों में मिलावट का बोलबाला हो, वहाँ स्वास्थ्य रक्षा पर ध्यान रखे रहने वाला व्यक्ति भी बीमार पड़े बिना नहीं रह सकता। कुरीतियों और रूढ़ियों से भरे समाज में सामान्य मनोबल का सुधारवादी ची बोल जाएगा। और उसे सिद्धांतवाद ताक पर रखते हुए समूह गत प्रवाह में बहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। दहेज के विरोधी और आदर्श-विवाहों के समर्थक को भी जब अपनी जवान कन्या के लिए विवाह का कोई सुयोग बनता नहीं दीखता, तो जाकित बिरादरी वालों ओर दहेज मोभियों की शरण में ही जाना पड़ता है ओर उनके इशारे पर चलने के लिए समाज के विरुद्ध एकाकी खड़े रहने वाले तो कोई विरले ही दुस्साहसी होते है सामान्य मनोबल के लोग तो खड़खड़ा ही जाते है।

व्यक्ति-निर्माण और परिवार निर्माण की तरह ही समाज-निर्माण भी हमारे अत्यन्त आवश्यक दैनिक कार्यक्रमों का अंग माना जाना चाहिए। अपने लिए हम जितना श्रम, समय, मनोयोग एवं धन खर्च करते है, उतना ही समाज को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए लगाना चाहिए। परोपकार-परमार्थ की दृष्टि से ही नहीं, विशुद्ध स्वार्थ साधन और सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से भी आवश्यक है।

अपनी क्षुद्रता की संकीर्णता को व्यापक आत्मीयता में विकसित करना ही अध्यात्म तत्व-दर्शन का मूलभूत प्रयोजन है। इस दृष्टिकोण को अपनाने पर ही संयम, सदाचार, सेवा एवं लोक मंगल के लिए संकल्प एवं उत्साह उत्पन्न होता हैं और उन्हें निरन्तर निबाहने के लिए साहस, विश्वास बढ़ता हैं ईश्वर भक्ति इस तात्विक दृष्टि का नाम है। इसी तत्व दर्शन का प्रतिपादन करने के लिए धर्म, अध्यात्म एवं ईश्वरवाद का विशालकाय कलेवर खड़ा किया गया है।

प्राचीन काल और ब्राह्मण वर्ग अपना समस्त जीवन लोकमंगल के लिए समर्पित करते थे। वानप्रस्थ आश्रम स्वार्थ की परिधि से निकलकर परमार्थ की कक्षा में प्रवेश करने की सन्धि वेला ही तो है। क्षुद्रता की, संकीर्णता की, आत्मवत् सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुंबकम् के देवत्व में विकसित परिणत करने का व्यावहारिक कार्यक्रम वानप्रस्थ के रूप में आप्त पुरुषों ने निर्धारित किया है। भारतीय संस्कृति की सुनिश्चित परम्परा है कि वैयक्तिक और पारिवारिक प्रयोजनों के लिए किसी को आधे से अधिक समय एवं मनोयोग नहीं लगाना चाहिए।

जीवन का पूर्वार्द्ध-ब्रह्मचर्य-गृहस्थ की भौतिक प्रगति के लिए पर्याप्त हैं उत्तरार्द्ध को वानप्रस्थ एवं संन्यास रूप में समाज के लिए समर्पित चाहिए।

यह समाधान इसीलिए है कि व्यक्ति को अपना महत्वपूर्ण अनुदान समाज-निर्माण के लिए देना चाहिए। उतपजं दान-पुण्य का जो माहात्म्य-महत्त्व बताया गया है, उसके पीछे भी यही प्रयोजन है।

प्राचीनकाल में साधु-ब्राह्मण उन्हें कहते थे, जो लोकमंगल के लिए सर्वतोभावेन आत्मदान करके उसी में निमग्न हो जाएँ। उन दिनों देवालयों और तीर्थस्थानों का निर्माण, जन-कल्याण के लिए संचालित प्रवृत्तियों के केन्द्र-संस्थान के रूप में होता था। उनका संचालन ऋषि-कल्प, देव-पुरुषों के हाथ में रहता था। जनता भी इस झंझट में नहीं पड़ती थी कि इन दिनों किन सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन को प्राथमिकता दी जाए? यह निर्णय साधु-ब्राह्मणों की परिषद् ही करती थी।

धार्मिक जनता साधु ब्राह्मणों को-तीर्थ देवालयों को दान इसी के लिए देती थी कि उसके द्वारा समाज में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का प्रयोजन पूरा होता रहे। इस लोक-सेवा के निमित्त बने धर्म-केन्द्रों को भगवान का निवास-गृह माना जाता था और वहाँ जाकर लोग श्रद्धा से मस्तक नवाते थे एवं संचालित सत्प्रवृत्तियों में योगदान की प्रेरणा प्राप्त करते थे। तीर्थ में विशेष समारोह समय-समय पर इसी आह्वान के लिए होते थे कि इन अवसरों पर अधिक संख्या में, अधिक भावना-सम्पन्न लोग एकत्रित हों और समाज-निर्माण के लिए तत्कालीन योजनाओं को अग्रगामी बनाने के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शन एवं अभीष्ट उत्साह प्राप्त करें। समयदान-श्रमदान, साधनदान का एकमात्र उद्देश्य समाज के पिछड़ेपन को भी दूर करना-पिछड़े वर्गों को ऊँचा उठाना होता था। यही उद्देश्य वाजपेय स्तर के ज्ञानयज्ञों, कुम्भयज्ञों का भी था। आज तो वह परम्परा समाप्त-सी है। शांतिकुंज युगतीर्थ द्वारा इसी प्रक्रिया को पुनर्जीवित कर समग्र व्यक्तित्व निर्माण से लेकर समाजनिर्माण की शुरुआत की है। समाजनिर्माण प्रक्रिया में संगठनात्मक, विचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रमों के अंतर्गत समाजनिर्माण की जो सुव्यवस्थित क्रिया-प्रक्रिया प्रस्तुत की गयी है, उसमें उन सभी तत्वों का समावेश है, जो आज की स्थिति में समाजोत्थान के सुनिश्चित आधार बन सकते हैं। विचार-विस्तार जैसा व्यापक और महान प्रयोजन संगठित संस्थान ही पूरा कर सकते हैं। वह मिल-जुलकर करने का काम है। एक व्यक्ति चाहे कितना प्रतिभाशाली क्यों न हो, जन-संपर्क का कार्य बड़े पैमाने पर नहीं कर सकता। इस युग की सबसे बड़ी सामर्थ्य ‘संघ-शक्ति’ ही है। जहाँ भी युगपरिवर्तन की विचारधारा में परिचित-प्रभावित लोग हों, वहाँ उन्हें संघबद्ध होना चाहिए और अपना संगठन केंद्र के अंतर्गत खड़ा कर लेने का संकेत समय-समय पर दिया जाता रहा है। प्रतिदिन 20 पैसा और दो घण्टा समय नियमित रूप से देते रहने वालों को भी इस शाखा-संगठन का सदस्य बनाया जाता है। कोई एक व्यक्ति कार्य-वाहक बन सकता है। यह कोई पद नहीं एक सामाजिक जिम्मेदारी हैं जो कार्यकर्ता को दी गयी है। प्रसन्नता की बात है कि यह भलीभाँति निभाई जा रही है।

संगठन का प्रथम और प्रमुख कार्य विचार-क्रान्ति की भूमिका प्रस्तुत करना है। इसके लिए झोला-पुस्तकालय, ज्ञान-रथ, समय-समय पीर प्रसारित विज्ञप्ति-वित


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