सुभाषचन्द्र बोस के पिताजी ने उन्हें कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में भर्ती करा दिया। सुभाष ने कॉलेज में अपनी विचारधारा के विद्यार्थियों को तलाशना शुरू कर दिया। बहुत जल्दी वहाँ उन्होंने समूह बना लिया, जा अपने आध्यात्मिक विकास और राष्ट्रसेवा को सर्वोपरि मानते थे। उस समय प्रेसीडेंसी कॉलेज में विद्यार्थियों के चार गुट बने हुए थे। चारों ही गुट अलग-अलग विचारधारा के थे। धनिक, सेठ साहूकार, जमींदार और राजाओं के लाड़लों का गुट मौजमस्ती और आवारागर्दी के चक्कर में रहता था। दूसरा समूह किताबी कीड़ों के नाम से प्रख्यात था। तीसरा समूह स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण परमहंस के भक्तों के नाम से जाना जाता है। इनका ध्येय इन संतों के उपदेशों के अनुसार जीवन व्यतीत करने का था। इसी समूह में सुभाष था। आखिरी समूह क्रान्तिकारियों का था, जो किसी भी तरह से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना लक्ष्य मानते थे।
उन्हीं दिनों श्री अरविन्द अपनी क्रान्तिकारी विचार धारा से आध्यात्मिक विचारधारा में जा चुके थे, पर बंगाल के नवयुवकों को उम्मीद थी कि श्री अरविंद अपनी तपस्या पूरी करने के बाद एक बार फिर लौटेंगे और राष्ट्र की आध्यात्मिकता की उस सीढ़ी पर पहुँच चुके थे जहाँ विश्व-ब्रह्मांड और आत्मा की एकात्मता स्थापित हो जाती है और जीव उस अनन्त का स्पर्श करने लगता है। जहाँ न तो कोई अपना हैं और न कोई पराया।
सुभाष श्री अरविन्द के आध्यात्मिक ज्ञान से प्रभावित थे। उसके लिए उनका यह रूप पूजनीय था। श्री अरविन्द लोगों के पत्रों का जवाब भी देते थे। जिसे पचासों लोग पढ़ते और मनन-चिंतन करते थे। सुभाष के एक मित्र ने श्री अरविन्द को पत्र भेजकर अपनी शंका के समाधानार्थ निवेदन किया। श्री अरविन्द का उत्तर आया तो उसने वह सुभाष को भी पढ़वाया। कुछ पंक्तियाँ ऐसी ही थीं जिनने सुभाष के जीवन में बम-विस्फोट का काम किया। ये पंक्तियाँ थीं- ‘‘हममें से प्रत्येक को दैवी विद्युत का डायनेमो बनना चाहिए, जिससे कि हम अनुभूति से ओत-प्रोत हो जाएँ। तुम श्रम करो, जिससे मातृभूमि सबल बने, समृद्धशाली बने, तुम कष्ट सहो जिससे मातृभूमि सुखी हो।”