अपनों से अपनी बात- - युगपरिवर्तन की अन्तिम घड़ी आ पहुँची, अब तो सँभलें

February 1998

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प्रस्तुत, अंक वसंत की वेला में लिखा गया ‘युगपरिवर्तन विशेषांक’ है। एक तो संधिकाल एवं उस पर भी वसंतोत्सव, तो संधिकाल एवं उस पर भी वसंतोत्सव, जो कि हमारी गुरुसत्ता का आध्यात्मिक जन्मदिवस भी है हम सब के लिए बड़े ही महत्वपूर्ण संदेश के साथ आया है कि करवट लेती इस विदाई वेला में यदि हम चेत गए, संभल गए तो निश्चित ही श्रेय के अधिकारी बनेंगे। यदि चूक गए तो पछताने के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा। इस अंक को दो बार पढ़ें बार -बार पढ़े ताकि आश्वस्त हो सके कि जो भी कुछ होने जा रहा है इसकी बानगी इतिहास एवं हर क्षेत्र के विशेषज्ञ दे रहे हैं यदि सामूहिक आत्महत्या के बेतालनृत्य का भागीदार बनाना हो तो मूकदर्शक बनने व प्रमाद बरतने के अतिरिक्त ओर किया भी क्या जा सकता है प्रस्तुत समय सव्तुतः आपत्तिकाल जैसा समय है जिसमें सूझबूझ से काम लिया जाना चाहिए एवं बड़ी जागरूकता, तत्परता से समर्पण की भावना के साथ आगामी ढाई से लेकर तीन वर्षों की अपनी जीवनयात्रा का एक-एक क्षण सतर्कतापूर्वक नियोजित किया जाना चाहिए। जिस गुरुसत्ता ने ऋषियुग्म ने अपना सारा जीवन देवसंस्कृति को घर -घर पहुंचाने के निमित्त लगा दिया, समिधा व घूत की तरह इस विराट हवनकुण्ड में जिनने अपने आपको होम कर दिया उनके प्रति यदि हमारे अन्दर थोड़ी थी कृतज्ञता की भावना उनके थोड़ी भी कृतज्ञता की भावना उनके अनुदानों के बदले हो तो हमें एक क्षण भी गंवाए बिना अब लोकसेवा के इस परमपुण्य प्रयोजन प्रज्ञावतार के अवतरण की वेला में सम्पन्न किए जाने वाले ब्राह्मण में स्वयं को खपा देना चाहिए। पेट-प्रजनन, सुविधा बटोरने के समय तो और भी आते रहेंगे, किन्तु आपत्तिकाल की यह घड़ियां बार- बार नहीं आएगी प्रत्येक परिजन को जो युगनिर्माण की प्रक्रिया से अखण्ड-ज्योति के तत्वज्ञान से पाठक, हितैषी परिजन जिस भी रूप में से जुटा है प्रयासपूर्वक मणिमुक्तकों की तरह संग्रह करके एवं अदृश्यसत्ता की इच्छानुसार एवं बहुमूल्य माला की तरह पिरोया गया है उसे युगावतार के गले का हीरकहार बनाना है रावण युग की विकृतियों के समाधान के लिए रीछ−वानरों ने जो भूमिका सम्पादित की है कंस और दुर्योधन के अनाचार को निरस्त करने के लिए पाण्डवों ने जो रीति -नीति अपनायी थी, वही ठीक वही हमें भी करना है। प्रश्न हमारी स्वल्प योग्यता, न्यूनशक्ति का साधनों के अभाव का नहीं महत्व है इस विशिष्ट वेला में भावनाओं के उभरते स्तर का यदि हमें युगकर्तव्यों के प्रति उत्साह हो तो संगठित सत्प्रवृत्तियों के प्रति उत्साह हो तो संगठित सत्प्रवृत्तियों को अंगीकार कर यथाशीघ्र प्रवाह को रो सकते हैं जो इन दिनों विश्वमानव का भविष्य सदा के लिए अन्धकारमय बनाने के लिए द्रुतगति से बढ़ता हुआ चला आ रहा है। महाकाल के प्रस्तुत आह्वान को हर किसी को स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है इनकार करने से तो अनार्य, अस्वग्ये अकीर्तिकर वाली नियति को ही प्राप्त होना होगा। पलायन की मोहग्रस्तता की स्थिति में अर्जुन को जो गीता सुनायी गयी थी, आज उसे ही हमारी हृदय तन्त्रिकाओं के हर तार को झंकृत करने का अवसर आया हैं गांडीव एक तरफ पटककर बैठ जाने मुंह फुला लेने, हमसे नहीं पूछा’ ‘हम वरिष्ठ थे। हमें क्यों नहीं श्रेय दिया ऐसी रट लगा लेने पर युग की पुकार से विमुख रहकर जी भी कुछ हम खोयेंगे वह अत्यन्त ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा। किले के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर यह नियति हर किसी को खलनी चाहिए इसकी कसक की अनुभूति उसे होनी चाहिए।

परमपूज्य गुरुदेव जब शक्तिपीठ उद्घाटन के प्रवास के अन्तिम चरण में थे। तब क्षेत्रों से नित्य के अपने क्रम की तरह परमवंदनीय माता जी एवं मिशन के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के नाम ऐ प्रतिदिन व कभी-कभी दो या तीन चिट्ठियां लिखकर अपना उस समय का चिंतन अंतःवेदना एवं भविष्य की योजनाएं भजा करते थे यह क्रम उनके पूरे प्रवास में चला था किन्तु 1982 के वर्ष के अन्तिम दौरे के क्षणों में बड़े व्यथित हृदय से उन्होंने प्रचारात्मक दौरों-शक्तिपीठ उद्घाटनों की भीड़ की मनःस्थिति का अध्ययन कर लिखा था कि “अब बड़े व्यापक स्तर पर साधनों का निर्माण का समय आ गया है हमारे हृदय के टुकड़ों के समान प्रिय ये कार्यकर्ता जब अपनी साधना को भूलकर लोकसम्मान व यरु अर्जन हेतु मेरे चारों और भीड़ लगाते दीखते है तो मुझे बड़ा क्लेश होता है मैं तो चाहता था कि इन शक्तियों को माध्यम से संगठन का मूल ढांचा खड़ा हो किंतु अब जब संधिवेला की एक घड़ी भारी पड़ रही है तब मैं खिन्नता मन में लिए अपने इस दौरे सके लौटूंगा ताकि कुछ नवीन जो किया जाना चाहिए उस पर तुम सबसे विचार वितश्ज्ञ कर सकूं।” प्रज्ञावतार की सत्ता के मन की वेदना क्यों हो सकती थी आज हर कोई समझ सकता है आते ही परमपूज्य गुरुदेव ने दो सम्पादकीय लिखे-” क्या काफिला बिछड़ा ही जाएगा तथा मलाई को तैरकर ऊपर आने का आमन्त्रण। ये अखण्ड ज्योति की ‘अपनी से अपनी बात ‘ अंतर्गत पृष्ठ 53 से 60 तक के पृष्ठों पर अप्रैल 1982 में प्रकाशित हुए। ये वस्तुतः उनके शब्द नहीं उनके मन की पीड़ा थी महाकाल के स्तर की सत्त की अंतर्वेदना थी, जो उसमें भावों के साथ पिरोकर लिखी गयी थी। इसने अगणित पाठकों को रुलाया अंतर्मंथन हेतु उद्वेलित किया। कार्यकर्त्ताओं में नए प्राण फूंके एवं फिर वह समय आरम्भ हुआ जिसमें पूज्यवर की इच्छानुसार तपःपूत वातावरण विनिर्मित होने के साथ -साथ साधना अवधि में संकेत भी सभी को मिलने लगें। इसके कुछ ही माहों बाद तो पूज्यवर की सूक्ष्मीकरण- साधना आरम्भ हो गयी है। उपरोक्त प्रसंग आज की वेला में यही सोच कर दिया गया कि कही वही अवसाद मतिभ्रम-आत्मसम्मोहन हम सभी के ऊपर हावी तो नहीं हो रहा जिसने गुरुसत्ता को व्यथित किया जाता है। व समझ में नहीं आता यह समय पराक्रम और पौरुष का है शौर्य और साहस का है इस विषम वेला में युग के अर्जुन के हाथों में गाण्डीव क्यों छूटे जा रहे हैं उनके मुख क्यों सूख रहे हैं पसीने क्यों झर रहे हैं। सान्तवाद क्या कथा-गाथा जैसा कोई विनोद-मनोरंजन है जिसकी यथार्थता परखी जाने का कोई अवसर ही न आये। “ यह चर्चा यहां इसलिए करनी पड़ी है कि किसी महान प्रयोजन के लिए लम्बी यात्रा पर निकले काफिले के सदस्यों में भटकाव आ गया है उसके कारण और निवारण का समाधान वे स्वयं खोज सके। वरिष्ठों, विशिष्टों, विशेषज्ञों के काफिले को बचकानी हरकतें करते यदि युगऋषि ने देखा व वैसा कुछ लिखकर अपनी अन्तर्वेदना व्यक्त की तो इसे अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा वरिष्ठ गिरेंगे तो फिर बचेगा क्या? सूरज डूबेगा तो सघन तमिस्रा के अतिरिक्त ओर कही कुछ रहेगा क्या।

आज भी प्रतिभाओं का आह्वान पुनः कचोटते हुए शब्दों को दुहरा का फिर से किया जा रहा हैं ताकि वे युगपरिवर्तन के इस अन्धड़ जैसे प्रवाह की गम्भीरता को समझ सके। वस्तुतः इस आपातकाल में हम सभी को वही करना होगा जो हमारी अंतर्गरिमा के अनुरूप हमारी अंतरात्मा हमें पुकार पुकार कर करने को कहती है अभी तो प्रतिकूलताएं और आनी है विभीषिकाओं का घटाटोप और गहराना है फिर अभी से हाथ खड़े करके कह देना कि हमसे अब नहीं होता अपनी अवमानना के साथ-साथ समय के साथ बेईमानी करने का है मंजिल समीप आ पहुंची सतयुग की लाली के प्रारम्भिक चिह्न दिखाई देने लगे। है मात्र थोड़ी संघर्ष की अवधि सामने है इसे भी अपने साधना पराक्रम के साथ - साथ दैवी इच्छा के अनुरूप को ढालकर पार कर लिया जाए तो फिर जीत ही जीत है यह भाव रखा जाना चाहिए।

प्रस्तुत पंक्तियां वसंत की पूर्वबेला में लिखी जा रही है जिस किसी को भी पूज्यवर की कसक के साथ अपनी भागीदारी करनी हो, उसके लिए यह अंतिम अवसर है। इस अंक में दिए गए साधना पुरुषार्थ में संलग्न हो अब प्रत्येक परिजन को अपनी तैयारी युगसैनिक के में कर लेनी चाहिए ताकि युगसंधि महापुरश्चरण की महापूर्णाहुति तक वे निर्धारित कर सके। कि उन्हें अब किस रूप में युग के इस महाअभियान में स्वयं को नियोजित करना है इस वर्ष संस्कार महोत्सवों की श्रृंखला चली सभी ओर पर्याप्त उत्साह उमड़ा किन्तु जिस साधना पुरुषार्थ की साथ-साथ अपेक्षा थी। वह प्रचुर परिमाण में उभर कर नहीं आया। यदि कहीं अन्यमनस्कता की पारस्परिक अंतर्कलह या विवाद की स्थिति अंतर्कलह या विवाद की स्थिति आयी है तो उसका कारण एह ही है कार्यकर्ता की साध के रूप में तैयारी में कुछ कमी है इस वर्या चुनाव के बाद के आयोजनों की तो तैयारियों हो चुकी “यथानाम तथा” संकल्पमहोत्सव विराट रूप में सभी और सम्पन्न हो भी जाएगी क्योंकि यह कार्य महाकाल की सूक्ष्मचेतना करा रही है किन्तु भीड़ एकत्र करना, मजमा लगाना मात्र कर्म काण्ड करना हमारा उद्देश्य नहीं है न कभी था हमारा उद्देश्य तो ज्ञानयज्ञ है विचारक्रांति है हस युगप्रवर्तक है एवं प्रज्ञावतार की सत्ता के अंशधर है हमारा पुरुषार्थ अब उसी स्तर का होना चाहिए। यही सब सोचकर अब अधिकाधिक परिजनों को शांतिकुंज विशिष्ट संधिकाल के ऊर्जा संचार सत्रों के लिए आमंत्रित किया जा रहा है इसके साथ-साथ क्षेत्रीय स्तर पर तीन प्रकार के कार्यक्रम दिए जा रहे हैं जो साथ-साथ भी चल सकते है उवं अलग-अलग अवधि में भी पहला प्रज्ञापुराण के पांच अथवा सात दिवसीय आयोजनों को नौकुण्डीय या चौबीसकुण्डीय यज्ञ के साथ समापन-उसी में संस्कारों को प्रतिदिन सम्पन्न कराते चलना। दूसरा प्रबुद्ध वर्ग की गोष्ठियां मल्टीमीडिया प्रोजेक्टर्स स्लाइड प्रोजेक्ट्स के माध्यम से। तीसरा युवा छात्र -छात्राओं तथा जन- सामान्य के लिए योग प्रशिक्षण के दा या तीन दिवसीय सत्र इन तीनों ही आयोजनों में श्रद्धा संवर्ग की समयदान योजन प्रधान (ख) साधना संवर्ग की गायत्री साधना यज्ञ संस्कार देवस्थापना आदि की फलश्रुति प्रधान (ग) पर्यावरण वनौषधि संवर्ग को तत्सम्बन्धी विस्तारपरक तथा (घ) सद्ज्ञान संवर्ग की विद्या−विस्तार साहित्य स्थापना प्रधान प्रदर्शनियां भी यहां से भेजे जाने की व्यवस्था बनायी जा रही हैं प्रस्तुत आयोजनों की श्रृंखला गुरुपूर्णिमा 1998 के बाद आरम्भ होगी किन्तु कार्यकर्ताओं के संगठनपरक अनुयाज दौरे जो केंद्र के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं द्वारा संपन्न होंगे- मार्च में चुनाव के बाद से ही आरम्भ हो जायेंगे।

छोटे -मोटे कार्यक्रम तो क्षेत्रीय स्तर पर 5-5 की टोलियां कराती चलेंगी केंद्रीय कार्यकर्ताओं के लिए अभी से डेढ़ सौ कार्यकर्ताओं के लिए अभी प्रशिक्षण तुरन्त आरंभ किया जा रहा है कार्यक्रम की मांग स्वीकृति का अब तक का जो स्वरूप रहा है उसे भी प्रारूप बनाया गया है जिसे केंद्र से मंगाकर भरकर सभी कार्यकर्ता को सहमति से भेजने के बाद अनुमोदन मिलने पर ही बड़ी तैयारी किसी को करनी चाहिए।


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