यह हरि की लीला टारी नाँहि टरै

February 1998

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चीत्कार के रव मथुरा की गलियों में गूँज रहे थे। रह-रहकर उठती आहें पाषाण को भी पिघला देने के लिए पर्याप्त थीं, पर आतताइयों के हृदय शायद पाषाण से भी कठोर थे या फिर पता नहीं, उनमें हृदय नाम की कोई चीज भी थी या नहीं। आज सावनी तीज का दिन था। कुँआरियों-सुहागिनों का त्योहार। पिछले आठ-नौ सालों से चले आ रहे प्रलयकाल में जिन सुहागिनों की ससुरालें मथुरा के आस-पास के गाँवों और कस्बों में हैं, वे तो तीज के दिन अपने मायके नहीं आ पाती हैं, पर शहर के भीतर आस-पास के मुहल्लों में या शहर से लगे गाँवों में जिनके मायके-ससुराल हैं उनके दिलों में तीज का त्योहार उल्लास बनकर बरबस पत्थर पर हरियाली-सा उमंग ही पड़ता है।

इसी मल्हार पर घमासान मच गयी। सेठ हुलासराय के घर घुसकर उनके कर्जदार पठान और उसके साथियों ने खूनी तीज मना डाली। न इज्जत बची, न लक्ष्मी। गाँव के लोग सामना करने आये, तो मारकाट के शोर से पड़ोसी गाँव की आग शहर में भी फैल गयी। द्वेष और घृणा की चिंगारियों ने कब धधकती ज्वालाओं का रूप ले लिया, पता ही न चला। धर्म के नाम पर बदला लेने के लिए स्त्री और धन की लूट कुछ लोगों के लिए पुण्यकार्य बन गयी। कुछ बरसों पहले सिकंदर सुलतान ने जब गद्दी पर बैठने के बाद महावन से आकर मथुरा में पहली मार-काट मचायी थी, तभी से यह सिलसिला बदस्तूर जारी था। आज भी मथुरा के सैकड़ों घरों में क्षत-विक्षत लाशें मानवता के दर्दनाक अन्तः की करुण गाथा कह रही थीं। धर्मान्धता के नाम पर इस तरह के भीषण कृत्य तो अब सामान्य सत्य बन चुके थे। यूँ भी काफिरों का काबा मथुरा और मथुरावासियों को बड़ी ओछी दृष्टि से देखा जाता था। मथ्यते तु जगसर्वे ब्रह्मज्ञानेन येन वा तत्सार भूतं यदस्याँ मथुरा सा निगद्यते। जहाँ ब्रह्मज्ञान से जगत मथा जाता है और जहाँ सारे सारभूत ज्ञान सदा विद्यमान रहते हैं, वही पुरी मथुरा है। तीन लोक से न्यारी कही जाने वाली मथुरा आज अपने अस्तित्व के लिए बिलख रही थी।

कई मथुरावासी भागकर वृंदावन की ओर जा रहे थे। अभी वृंदावन से तकरीबन दो कोस पहले यानी गाँव के किनारे पर पहुँचे थे, तभी उन्हें नाव दिखायी पड़ी।इन चार-छह लोगों ने सुरीर से आती हुई नाव को हाथ हिला-हिलाकर अपने पास बुला लिया। मथुरा मती जइयों! आज खून की मल्हारें गायी जा रही हैं, सुनकर नाव पर बैठी सवारियाँ सन्न रह गयी। उन्नीस-बीस लोग थे। तीन को वृंदावन उतरना था, बाकी सब मथुरा जा रहे थे। सभी के होश हवास सूली पर टंग गये।

आखिर बात क्या हुई भाई?

सुल्तान के राज में मार-काट कोई नई बात है क्या? कहने वाले की वाणी में विवशता और हताशा एक साथ सिमट आयी।

यह सब हाल–हवाल सुनकर मथुरा जाने वाली अठारह सवारियों में से आठ ने तो वहीं उतर कर आड़े तिरछे रास्तों से अपने घर को पहुँचने का निश्चय तुरंत कर लिया। बाकी दस लोग अजब ऊहापोह में पड़ गये। उनमें हाथरस के सीताराम भी थे। नाव पर लौटकर अपने अंधे साथी से बोले -सुस्वामी आपकी भविष्यवाणी सत्य हुई।

कालू केवट पास ही खड़ा था, क्या सूर बाबा ने पहले ही बता दिया था महाराज?

अंधे सूर बाबा मुँह उठाकर बोले-मैं क्या बताऊंगा। यह सब तो श्याम सुँदर की कृपा है। वाक्य पूरे करते उनकी अंधी आँखों से आँसू की बूंदें गिरने लगी। विनाशलीला से उनका मन पूरी तरह से विकल था। इस आँतरिक विकलता की छाप उनके गौर मुखमण्डल को स्याह बना रही थी। उनकी यादों में काफी दिन पहले की साँझ उजागर हो गयी। जब.....।

पीपल के पेड़ के तने से सिर टिकाये हुए बैठे थे। अंधे सूर के मनोलोक में उजाले का अधिकार पाने का भयंकर संघर्ष हो रहा था। क्रोध रंजित करुणा के स्वर मुखर हो उठे थे-किन तेरो नाम गोविंद धरोय। गुरु साँदीपनि का पुत्र शोकताप हरने के लिए तुमने असंभव को संभव कर दिखलाया। यमलोक से उनके प्राण छुड़ा लाये। मैंने तुम पर इतना भरोसा किया, इतनी-इतनी स्तुति चिरौरिया की किंतु सूर की बिरियाँ निठुरहै्व बैठ्यौ जन्मत अंध करयो।

उस दिन भी बड़ी विकलता थी मन में। पिता भी अविचारवश भाइयों का ही साथ देते थे। माँ को छोड़कर घर में सभी हर पल ही उसे तरह-तरह से तिरस्कृत करते रहते थे। घर से निराश होकर उसने अपने श्याम को पुकारा था। माँ की वाणी हर पल उसके हृदय में दीपशिखा की भाँति प्रज्ज्वलित रहती थी। उसने कहा था-पुत्र श्याम सुँदर त्रिलोकी नाथ है। जगत के पालनहार है। इसी विश्वास से ओत−प्रोत होकर उसने पुकारा था। अपने चिर सखा यशोदा के लाडले को।

उलाहने से भरा हुआ पद समाप्त हुआ ही था कि एक गैरित वस्त्र धारी संन्यासी उसके पास आ गये। वह अंधा भला क्या जानता कि वे गेरुआ कपड़ा पहने है अथवा पीला। उन्होंने ही मंत्र विद्या सिखायी। फलित ज्योतिष तुर्कों के साथ बाहर से आयी हुई रमल विद्या का ज्ञान भी उन्हीं से मिला। सबसे बढ़कर उन्हें मिला प्यार, जिसके लिए वे तरस रहा था। उन्होंने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था-वत्स तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है।

अंधे सूर के फीके चेहरे पर आशा की चमक धूप-छाँव-सी आयी और उतर भी गयी। कहा-ईंट पत्थर की अंधेरी कोठरी में दीप जलाकर उजाला किया जा सकता है। किंतु काया की अंधी कोठरी में....।

अंतर्ज्ञान से उजाला होगा पुत्र। मैं तुम्हारा वर्तमान नहीं भविष्य देख रहा हूँ। तुम तो श्याम सखा हो वृंदावन बिहारी के अपने हो।

उन्हीं संन्यासी नाद ब्रह्मानंद ने स्वामी हरिदास से उसे मिलाया। हरिदास जी एकाँत साधक थे। उनकी साधना दिनोंदिन ऊंची होती जा रही थी। ब्रह्मानंद जी को देखकर स्वामी हरिदास जी दौड़े हुए आये और वयोवृद्ध के चरण छूने के लिए झुके। स्वामी जी ने उन्हें बीच में ही उठाकर कलेजे से लगा लिया। कहा-देखो मैं तुम्हें प्रेम सरोवर के एक कृष्ण कमल से परिचित कराने के हेतु यहाँ आया हूँ।

कुटिया में चलकर विराजो बाबा। ये तो मेरे जन्म जन्मांतरों के भाई है। कहकर सूर का हाथ पकड़कर चले गये। तभी हरिदास ने मचल कर स्वामी नादब्रह्मानंद जी का हाथ हिलाते हुए पूछा-बाबा तुमने कुँडलिनी तान कैसे सिद्ध की थी।

मैंने सात वर्षों तक अभ्यास किया परंतु सफल न हो सका। फिर ज्वालाजी में एक महात्मा मिले। उनकी प्रेरणा से भगवती आज्ञा शक्ति कृपालु हो गयी।

बाबा हम दोनों को भी प्रसाद मिल जाये।अंधे सूर एवं स्वामी हरिदास जी ने लगभग एक साथ आग्रह किया।

स्वामी नादब्रह्मानंद जी ने तान छेड़ी। बूढ़े स्वामी जी की इस कुण्डलिनी तान ने हरिदास और सूरदास की रसकली खिला दी। समय मानो स्तब्ध हो गया था। एक अलौकिक ज्योति धारा बहने लगीं। हरिदास और सूरदास के बीच अंतर नहीं रहा।

अंधे सूर वहाँ से लौटते हुए सोच रहे थे। सचमुच श्याम सुँदर अपने भक्तों की पुकार सुनते है। सबके सब लगभग एक साथ बोल पड़े-महाराज ये तो सब कहने-सुनने की बातें है। श्याम सुँदर अगर पुकार सुनते तो आज मथुरा की ये दशा न होती।

सूर स्वामी के अन्तःकरण में ये बातें तीर की तरह जा लगी। उनकी भावनाओं को समझते हुए पंडित सीताराम जी बोल उठे। महाराज आप तो भक्त है। आप ही बताइये कब तक ऐसी दशा रहेगी देवभूमि भारत की। कब पूरी करेंगे कन्हाई अपनी दुष्ट दलन की प्रतिज्ञा। परित्राणाय साधूनाँ विनाशाय च दुष्कृताम् का उनका वादा कब पूरा होगा? प्रायः सभी जनों के मन में ढेर सारे सवालों को सीताराम जी ने अकेले पूछ लिया।

इसी पूछताछ में शाम हो गयी। रही बची नाव की सवारियों के साथ सूर-स्वामी पंडित सीताराम का हाथ पकड़े वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर जा पहुँचे।

भावों की एकाग्रता मंदिर में सिद्ध की गयी। उन्हें लगा कि उनके अंदर रंगों का झरना बह रहा है। इसी मध्य उन्होंने देखा कि श्याम सुँदर उनके सामने खड़े मुसकरा रहे है। उनकी साँसों में भारत भूमि की विकलता ध्वनित हो उठी। उनकी अनुभूतियों के आगे पहले प्रकाश का अणु-अणु उनकी जिज्ञासाओं की गूँज से निनादित हो रहा है। ज्योति चारों ओर से सिमट कर फिर बिंदु बन रही है। बिंदु उनकी नाभि, हृदय और कंठ को छूता हुआ ऊपर बढ़ रहा है। इस अलौकिक स्पर्श ने इसे जाग्रत कर दिया और जिज्ञासाओं के समाधान प्रत्यक्ष होने लगे।

सुल्तान का अवसान मुगलों का उदय, मुगलों का अवसान, अंग्रेजों का आगमन और प्रस्थान स्वतंत्र भारत बाद में उसकी करुण दशा और अंत में भारत का भाग्योदय सब एक-एक कर साकार हो उठे। भक्त और भगवान दोनों के अधरों पर मुस्कान थी। भाव-विभोर हो वे गा रहे थे।

रेमन धीरज काहे न धरे एक सहस्र नौ सौ के ऊपर ऐसों योग परे शुक्ला जयनाम सवंत्सर छट सोमवार परे

हलधर पूत पवार धर उपजे देहरी क्षत्र धरे मलेच्छ राज्य की सगरी सेना आपही आप मरे

सूर सबहि अनहोनी होइहै जग में अकाल परे हिंदू मुगल तुरक सब नाशै कीट पतंग जरे

सौ पे शुन्न शुन्न के भीतर आगे योग परे सहस्रबरस व्यापे सतयुग धर्म की बेलि बढ़ै सूरदास यह हरि की लीला टारी नाँहि टरै॥

रे मन तू धीरज क्यों नहीं रखता। ये जो वर्तमान स्थिति है वह निश्चय ही बदलेंगे। मलेच्छों की सेनायें आपस में लड़ भिड़कर समाप्त हो जायेंगी। महानाश की स्थिति बनेगी। यह योग 1999 से पूर्व होगा। फिर दो हजार से आगे सतयुग का दौर आयेगा। ये हरि की लीला से होकर रहेगी। सभी सुनने वालों के मन में सतयुग की वापसी की ललक दिखायी दे रही है।


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