‘विचारक्रान्ति’ परिवर्तन की वेला में एक नये दर्शन का प्रवर्तन

February 1998

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सृष्टि का एक शाश्वत नियम है। ‘परिवर्तन ‘ मानव समाज, संस्कृति और सभ्यता को हमेशा हर युग में इस परिवर्तन प्रक्रिया से गुजरता पड़ता हैं जो मान्यताएँ कभी उपयोगी’ समयानुकूल जान पड़ती थीं, उनमें परिवर्तन-सुधार करना पड़ता है। एक व्यवस्था, एक नियम, एक कानून प्रत्येक काल में उपयोगी सिद्ध हों, जरूरी नहीं बदलती परिस्थितियों, माँगों, समय की आवश्यकताओं के अनुरूप हेर-फेर होता चले, तो समाज की सुव्यवस्था बनी रहती है। ‘परिवर्तन’ की इस व्यापक व्याख्या के मूल में ही क्रान्ति शब्द का मर्म छिपा हुआ है। क्रान्ति का अर्थ हिंसा नहीं अपितु वैचारिक परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें जनचेतना दैवी अनुकूलन के आधार पर अनौचित्य का विरोध करने, छोड़ने तथा औचित्य को अपनाने के लिए विवश हो जाय। ‘क्रान्ति’ यदि व्यक्ति के अन्तरंग और बहिरंग का आमूल-चूल परिवर्तन करती है तो उसका स्वरूप सही हैं यदि वह भौतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, राजनैतिक आधार पर रूढ़िवादिता, तानाशाही, भोगलिप्सा साधनों पर निर्भरता लाती है। तो यह उसका विकृत स्वरूप है। इसीलिए सभी क्रान्तियों में ‘विचारक्रान्ति’ के अहिंसात्मक, आध्यात्मिक स्वरूप को ही वरेण्य-श्रेष्ठ माना गया है। एवं युग जब भी बदला है, तो मानव के आन्तरिक परिवर्तन की धुरी पर आधारित क्रान्ति से ही बदला है।

वैचारिक परिवर्तन द्वारा पतन-निवारण, आत्म-निर्माण से समाज एवं विश्वनिर्माण की अवधारण जो हमें परमपूज्य गुरुदेव ने दी, उसके मूल में विचारक्रान्ति रूपी यह नया दर्शन ही था। इसी के प्रवर्तक के रूप में बुद्धावतार के उत्तरार्द्ध प्रज्ञावतार के विराट स्वरूप को लेकर वे आए एवं व्यक्ति-व्यक्ति के विचारों को बदलने का संकल्प लेकर ‘युग-निमार्ण योजना’ खड़ी कर सकने में सफल हुए। आज तो हवा युगपरिवर्तन के अनुकूल बढ़ती दिखाई देती है, उसके मूल में विचारक्रान्ति की यह तीव्र आँधी ही है, जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली जा रही है अपने प्रबलतम वेग से। इस क्रान्ति की गति को ‘ह्यूमेनिटी इन इवाँल्यूशन ‘ ग्रन्थ में विद्वान वाट्स कनिंधम के विचारों को पढ़कर समझा जा सकता हैं वे लिखते है कि ईसा के मरने के अठारह सौ पचास वर्षों में जितना तेजी से बदलाव आया वह मात्र विगत डेढ़ सौ वर्षों में सम्पन्न हो गया है। उसमें भी विगत डेढ़ सौ वर्षों के परिवर्तन से कहीं अधिक है। अब आगामी छह वर्षों में जो होने जा रहा है, वह सभी कीर्तिमानों को तोड़ने वाला एवं युग-परिवर्तनकारी होगा। यह छह वर्ष उनने 1998 के प्रारम्भ से 2003 की अवधि तक के बताए है। इस परिवर्तन में धुरी इसी पर केन्द्रित होगी कि जनमानस का प्रवाह पाशविक इंस्टीक्ट्स (वृत्तियों) से हटकर दैवी एवं विराट कौटुम्बिकता का औदार्यपूर्ण भाव लिए होगा।

‘क्रान्ति’ सदा व्यक्ति के अन्तराल में घटती है। परिवर्तन-बदलाव तो सामूहिक होता है जब यह एक समष्टिगत प्रक्रिया बन जाती है, तो समूह मन का बदलाव ही जन क्रान्ति कुछ इसी प्रकार की है। इस विचारक्रान्ति को गत दो शताब्दियों से सतत् सम्पन्न हो रही छुटपुट क्रान्तियों, चाहे वे राजतंत्र से लोकतंत्र के रूप में, चाहें, उपनिवेशवाद की समाप्ति के रूप हों, चाहे विज्ञान की उपलब्धियों के सहारे मनुष्य के पास अगणित साधनों के बाहुल्य के रूप में अथवा चाहे परम्पराओं-रूढ़िवादिता व सड़ी-गली मान्यताओं के मिटाने के रूप में हों, की एक महाक्रान्ति की तैयारी के रूप में समझा जा सकता हैं व्यक्ति ढले नहीं, उसके विचारक्रांति को महाक्रान्ति कहा गया है एवं इसका माध्यम से नवयुग के अवतरण की बात कही गयी है।

क्रान्ति की निरन्तरता ही धर्म है। भारतीय दर्शन की अध्यात्म मान्यताएँ जीवन जीने की कला का न केवल शिक्षण देती है, वरन् व्यक्ति-निर्माण की व्यावहारिक प्रक्रिया भी बताती हैं पतन से उबरकर उत्कर्ष की ओर जाने का मार्ग भी बताती है। इसीलिए तो भारतीय अध्यात्म को क्रान्तिकारी दर्शन की उपमा दी गयी है एवं विश्व का हर दार्शनिक हर युग में इससे प्रभावित होकर अपना मंतव्य पूर्वार्त्य आध्यात्म दर्शन के पक्ष में ही लिखता चला आया हैं क्रान्ति की यही प्रक्रिया उठा पटक की बेला में आज पाश्चात्यीकरण की एक आँधी लेकर आयी है, किन्तु यह टिकने वाली नहीं। सारा विश्व इस परिवर्तन की प्रक्रिया उठा पटक की बेला में आज पाश्चात्यीकरण की एक आँधी लेकर आयी है, किन्तु यह टिकने वाली नहीं। सारा विश्व इस परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा हैं एवं एक नया धर्म-मानव से गुजर रहा है। एवं एक नया धर्म-मानव धर्म जन्म ले रहा है, जो अपौरुषेय कही जाने वाली वेदों की वाणी के आधारशिला पर रखा जाएगा। युग-निर्माण योजना, प्रज्ञा अभियान और कुछ नहीं इसी क्रान्तिधर्मी प्रक्रिया का व्यावहारिक कलेवर मात्र है।

परिस्थिति प्रधान युग बीत गया अब मनःस्थिति-वैचारिकता प्रधान युग ही सारी समस्याओं का समाधान कर मनुष्य को खुलकर साँस लेकर जीवन जीने की विद्या प्रदान करेगा। मनःस्थिति हो प्रेरणाओं का प्रवाह पैदा करती है-संकल्प को जन्म देती हैं, जिससे परिस्थितियाँ बदलती चली जाती है। साधन-सामग्री के अभाव को या उनके स्वरूप को दोष देना बेकार है। वस्तुतः वैचारिक विकृति ही हर किसी को गिराती, सताती, तनावग्रस्त कर रोगी बनाती एवं जीवन को नारकीय बनाती देखी जा सकती है। अचिंत्य चिंतन अपनाने से दुर्गति होती है। यह मनुष्य ने इन दो सदियों में अच्छी तरह सीख लिया हैं मनःस्थिति बदलेगी तो ही परिस्थिति बदलेगी, यह सबकी समझ में आ रहा हैं एवं इसी को विचारक्रान्ति का बीज कहा जा सकता हैं

परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने कहा कि”युग का अवसान सद्विचारों एवं सत्प्रवृत्तियों के घट जाने से होता हैं युग का निर्माण करना यदि अभीष्ट हो तो सद्विचारों एवं उच्च आदर्शों की प्रतिष्ठापना ही करनी होगी एवं तब युगपरिवर्तन का कार्य भी कठिन नहीं प्रतीत होगा” ( अखण्ड ज्योति, जनवरी 1962, पृष्ठ 44) इसी चिंतन को और भी परिमार्जित करते हुए उनने सितम्बर, 1962 की अखण्ड ज्योति में नवयुग के संविधान के रूप में -युगनिर्माण सत्संकल्प’ की घोषणा की एवं प्रत्येक की विस्तार से व्याख्या करते हुए एक विशेषाँक सबके समझ प्रस्तुत किया उनने लिखा कि अखण्ड-ज्योति परिवार उसी आधार पर सारी विचारणा, योजना, गतिविधियाँ, कार्यक्रमों को संचालित करेगा। आज राजनैतिक पार्टियाँ कर्मकारण की रहते हैं किन्तु परमपूज्य गुरुदेव ने इसे ‘घोषणा-पत्र’ निकालती है। बड़े-बड़े वादे उनमें रहते हैं किन्तु, परमपूज्य गुरुदेव ने इसे ‘घोषणा-पत्र’ कहते हुए नवयुग के आगमन तक सबके लिए इसे एक दैनिक धर्मकृत्य की तरह नित्य पढ़ने, मनन करने एवं जीवन में उतारने जैसा एक संकल्पपत्र कहा एवं तब से ही युगनिर्माण योजना, प्रज्ञा अभियान, गायत्री परिवार, अखण्ड ज्योति के दर्शन की यह मूल धुरी बना रहा हैं सारी योजनाएं इसी एक केंद्रक के जो विचार क्रान्ति परिक्रमा करती रही हैं। बाह्य ओर परिक्रमा करती रही हैं बाह्य कलेवर भले ही लोगों को धर्मकृत्य, कर्मकाण्ड प्रधान देखने में लगा हो, किन्तु उसका अंतरंग एक ही सूत्र पर टिका है “हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे युग सुधरेगा। “ उन दिनों प्रकाशित युग निर्माण सत्संकल्प पर एक दृष्टि डालकर देखें तो प्रतीत होगा कि समग्र धर्मशास्त्र-नैतिकी एवं अध्यात्म दर्शन का निचोड़ समाहित है।-

(1) ‘‘मैं आस्तिक 5 और कर्त्तव्यपरायणता कोह मानव जीवन का धर्म-कर्त्तव्य मानता हूँ। शरीर को भगवान का मन्दिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करूंगा। मन को जीवन का केंद्रबिंदु मानकर उसे सदा स्वच्छ रखूँगा। “ युग-निर्माण का यह समग्र सूत्र पूज्यवर ने आस्तिकता एवं कर्तव्यपालन की धुरी पर केन्द्रित रखा।

(2) “अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानूँगा और सबके हित में अपना हित समझूंगा। व्यक्तिगत स्वार्थ एवं सुख को सामूहिक स्वार्थ एवं सामूहिक हित से अधिक महत्व न दूँगा। “ मैं नहीं सब, “ आर्थिक ही नहीं सामाजिक समता भी ‘ व्यक्ति और समाज की अभिन्नता वाला यह समग्र सूत्र-समुच्चय अपने आप में एक क्रान्तिकारी नूतन दर्शन है एवं आज की सभी समस्याओं का समाधान भी

(3) “नागरिकता, नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, शिष्टता, उदारता, मानवता, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों को सच्ची संपत्ति समझकर उन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरन्तर बढ़ाया चलूँगा। साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवाकार्यों में आलस्य और प्रमाद न होने दूँगा। चारों ओर मधुरता, स्वच्छता एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करूंगा। “ आत्मसुधार एवं गुणों के अवलम्बन द्वारा अध्यात्म मूल्यों को जीवन में कैसे उतारा जाए, इसका समग्र शिक्षण संकल्प के इस खण्ड से मिलता है।

(4) “परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व दूँगा। अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करूंगा। मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानूँगा। “विवेक ही विजयी हो, सदा नीि पर चलने की प्रेरणा मिले-यह इस संकल्प खण्ड का सार है।

(5) “मेरा जीवन स्वार्थ के लिए नहीं, परमार्थ के लिए होगा। संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य -प्रचार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाता रहूँगा। “ देवमानव होने के नाते मनुष्य की जिम्मेदारी, परमार्थ में सच्चा स्वार्थ तथा अपनी विभूतियों का परमार्थ हेतु नियोजन यह युगनिर्माण की धुरी है।

(6) “दूसरों के साथ वह व्यवहार न करूंगा, जो मुझे अपने लिए पसन्द नहीं। ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही ग्रहण करूंगा। नारी जाति के प्रति माता, बहिन और पुत्री की दृष्टि रखूँगा।” इस संकल्प खण्ड में आत्मवत् सर्वभूतेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्, मातृवत् परदोरषु की नवयुग से सृजन का मूल आधार कही जा सकती हैं।

(7) “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इस विश्वास के आधार पर मेरी मान्यता है कि मैं। उत्कृष्ट बनूँगा और दूसरों को श्रेष्ठ बनाऊँगा, तो युग अवश्य बदलेगा। हमारा युगनिर्माण सत्संकल्प अवश्य पूर्ण होगा।” मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, भाग्य विधाता है। युगनिर्माण की धुरी हैं संकल्पशक्ति द्वारा आत्मनिर्माण, स्वयं को श्रेष्ठ बनाना, श्रेष्ठ चिंतन-चरित्र व व्यवहार विकसित करना। अंतिमसूत्र में यही सब सारभूत दर्शन छिपा पड़ा है। बाद में परमपूज्य गुरुदेव छिपा पड़ा है। बाद में परमपूज्य गुरुदेव ने इन्हीं सूत्रों को 18 संकल्पों के रूप में संशोधित रूप में 1986 में प्रस्तुत कर संधिकाल में परिवर्तन का मूल आधार बनाते हुए इसे प्रस्तुत किया था। आज उपरोक्त सूत्र नयी शब्दावली में सब ओर पढ़े जाते है।

(7) “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इस विश्वास के आधार पर मेरी मान्यता है कि मैं। उत्कृष्ट बनूँगा और दूसरों को श्रेष्ठ बनाऊँगा, तो युग अवश्य बदलेगा। हमारा युगनिर्माण सत्संकल्प अवश्य पूर्ण होगा।” मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, भाग्य विधाता है। युगनिर्माण की धुरी हैं संकल्पशक्ति द्वारा आत्मनिर्माण, स्वयं को श्रेष्ठ बनाना, श्रेष्ठ चिंतन-चरित्र व व्यवहार विकसित करना। अंतिमसूत्र में यही सब सारभूत दर्शन छिपा पड़ा है। बाद में परमपूज्य गुरुदेव छिपा पड़ा है। बाद में परमपूज्य गुरुदेव ने इन्हीं सूत्रों को 18 संकल्पों के रूप में संशोधित रूप में 1986 में प्रस्तुत कर संधिकाल में परिवर्तन का मूल आधार बनाते हुए इसे प्रस्तुत किया था। आज उपरोक्त सूत्र नयी शब्दावली में सब ओर पढ़े जाते है।


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