महेश्वर महाकाल का संकल्प पूरा होकर ही रहेगा।

February 1998

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खण्डहरों ने देखने वालों के मनों में अगणित भाव उकेर दिए। प्रायः सभी के हृदय में स्पन्दन तीव्र हो उसके। एक से रहा न गया। वह बोल उठा- अपने देश की भी तो यही दशा है। अतीत के गौरव के खण्डहर ही तो अब शेष हैं। कहने वाले के स्वर में क्षोभ था, पीड़ा थी और थी कुछ सार्थक कर गुजरने की व्याकुलता। उसकी ओर उसके साथियों की बातें सुनकर उनके अधरों पर हल्का-सा स्मित झलका। अभी कुछ ही दिनों पहले उनका मद्रास आना हुआ था न जाने कैसे इन सबको उनका पता चल गया। फिर तो जैसे-तैसे उन्हें राजी कर लिया अपनी ‘त्रिपलीकेन साहित्य सभा’ में उद्बोधन देने हेतु। उनके द्वारा दिए गए उद्बोधन का प्रत्येक शब्द सुनने वालों के दिलों का प्रत्येक शब्द सुनने वालों के दिलों में गहरे उतरता चला गया। जिसने सुना वही आश्चर्य एवं आशा से पूरित हो गया। सभी में एक नयी चेतना जाग उठी। सभी में एक नयी चेतना जाग उठी। सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, आध्यात्मिक विषयों की इतनी सारगर्भित, सरल एवं मर्म स्पर्शी विवेचनाएँ भला और कहाँ सुनने को मिलतीं। संस्कृत-अंग्रेजी की मिली-जुली काव्यात्मक भाषा सुनकर सभी अकल्पनीय मनोदशा में तैरने लगें।

उस दिन से आज तक ये सभी उनके साथ थे। सबके हृदय में गहरी टीस थे। सबके हृदय में गहरी टीस थी अपने महादेश के प्रति। सभी भारतमाता के अतीत के गौरव को वापस लाना चाहते थे। किन्तु कैसे? ये सब तो जैसे विशाल महासागर में बैठे उन यात्रियों की तरह थे, जिन्हें गन्तव्य का तो पता था, पर मार्ग एवं केवट के अभाव की बेचैनी उन्हें विकल कर रही थी। इन्हें पाकर लगा, यही तो है, जिसकी उन्हें पाकर लगा, यही तो हैं, जिसकी उन्हें तलाश थी। उन्हें लेकर आज ये सब महाबलीपुरम आए थे। एक ओर थे पाण्ड्य एवं चोल राजाओं द्वारा बनाए गए वास्तुकला के अद्भुत नमूने, जो कला-प्रवाह के थपेड़ों से जराजीर्ण हो रहे थे। दूसरी ओर था विशाल महासागर, जिसके गर्भ से सूर्य उदित हो रहा था। ठीक मानव-जाति के सौभाग्य सूर्य जैसा। रश्मियों से जलराशि स्वर्णिम हो उठी थी। महासागर अपने स्वर्णिम जलकणों को लहरों की अंजलि बनाकर इन देवपुरुषों के चरणों में अर्पित कर धन्य हो रहा था।

स्नेह से अपने शिष्य के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले-निराश मत हो आलसिंगा। एक दिन इन्हीं खंडहरों से वहां सौंदर्य प्रकट होगा, जिसे देखकर विश्व की आँखें चौंधिया जाएँगी। वर्तमान दशा के कारण ीरत पर कटाक्ष ओर व्यंग्य रूप को देखकर दाँतों तले उँगली दबा लेगा। आत्मविश्वास भरे इस कथन पर वह आश्चर्यचकित था। प्रायः सभी की यही दशा थी।

एक इशारे से उन्होंने सभी को और पास बुलाया और सबके साथ नजदीक पड़ी एक पत्थर की शिला पन बैठ गए। स्वामीजी! एक अन्य नवयुवक पाषाण खण्ड पर बैठते हुए कहने लगा- मैं आपकी बातों पर अविश्वास तो नहीं करता, किन्तु...............?

शान्त हो सुनो! इन शब्दों ने जादुई असर किया। सबके सब निस्पन्द हो उनका वाणी की प्रतीक्षा करने लगे। उन्होंने अपने अर्द्वोन्ममिलित नेत्रों को पसार कर एक गहरी दृष्टि सब पर डाली। उनकी आँखों से निकलती नीली लहरें सभी को एक अनजाने देश में ले जाने लगीं। वे कह रहे थे, आज मैं तुम सबके सामने एक रहस्य उद्घाटित करता हूँ। वह रहस्य! जो कठोर साधनाओं के द्वारा मेरे अन्तराल में उतरा है। वह रहस्य! जिसे हिमालय की ऋषिसत्ताओं ने मेरे समझ उद्घाटित किया है।

युगपरिवर्तन होने को है। वर्तमान युग के स्थान पर सतयुग की प्रतिष्ठापना होगी। विश्व की प्राणशक्ति अकुलाकर जाग रही है। विश्व-कुण्डलिनी के इस जागरण को केन्द्र बनेगा। भारत! ऋषियों की चिरपुरातन गौरवभूमि पुनः जगतगुरु का मुकुट पहनेगी। आवाज किन्हीं अतल गहराइयों से उभर रही थी। वह महाकाल की महत्चेतना से एकात्म हो बोल रहे थे। निस्तब्धता स्वरों को धारण कर रही थी।

वह कह रहे थे, युगपरिवर्तन व्यक्ति, जाति, प्रशासन अथवा किसी देश का नहीं, स्वयं महेश्वर महाकाल की योजना है। उसी सृजेता का संकल्प है, जिसके संकेत मात्र से निहारिकाओं की सृष्टि होती है। सैकड़ों, लाखों, करोड़ों ब्रह्माण्डों का उदय और अवसान होता चरण में उपयुक्त समय पर एक शक्तिपुंज महामानव सामने आएगा और तब सभी चूहे जो आज दबे-दबे दिखाई देते है, साहसी बन जाएँगे।

शब्द सभी की रगों में लहू के साथ दौड़ने लगे। रोमांच का अनुभव होने लगा सबको। उनकी शब्द-सरिता प्रवाहमान थी, जब कभी कोई महापुरुष आता है, तो परिस्थितियाँ पहले उसके पैरों के नीचे तैयार रहती हैं। वह ऊँट की पीठ को तोड़ देने वाले बोझ का अन्तिम तृण साबित होगा। हम उसके लिए भूमि तैयार कर रहे हैं।

सतयुग की वापसी ईश्वर की योजना है। हमें उसके लिए भूमि तैयार करनी है मेरे बच्चो! सभी जैसे सोते से जगे। चेतना के अतल सागर से सभी के मन एक−एक करके उबरने लगे। थोड़े क्षण के लिए सभी मूक हो गए।

भूति की तैयादी? पर किस तरह? कई कण्ठों से आतुरवाणी निकली।

यह एक दिन का काम नहीं, इक्कीसवीं सदी ही मानवता के उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष करेगी। तभी सतयुग साकार होगा। पथ हर कदम पर शूलों से भरा है, परन्तु भय क्या? हम स्वयं काल के भी काल महेश्वर महाकाल के सहचर हैं। उनका नाम लेकर, उन पर अनन्त विश्वास रखकर भारत के युगों से संचित पर्वतकाय अनन्त दुःख राशि में आग लगा दो। उल्लसित युवक गैरिक परिधान से आवेष्ठित महाकाल के अग्रदूत स्वामी विवेकानन्द की जय पुकार उठे। सभी की अंतर्चेतना युगपरिवर्तन को सुनिश्चित जान पुलकित हो उठी।


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