दैवी चेतना पर्यावरण-संकट का भी समाधान करेगी।

February 1998

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महापरिवर्तन के इस वर्तमान युग में प्रकृति भी परिवर्तनों से अछूती नहीं रही है। सब ओर भयंकर उथल-पुथल मची हुई है। प्रदूषण के कहर ने वायु, जल जमीन किसी को नहीं छोड़ा है यह जहरीला जहर सभी को निगलता प्रतीत हो रहा हैं वायुप्रदूषण से धरती का सुरक्षा कवच तार-तार हो रहा है। फलस्वरूप पृथ्वी के तापमान में बढ़ोत्तरी होने से प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ गयी है। पर्यावरण के इस उलट-फेर से सारे संसार के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गया है। इस आसन्न संकट के समाधान के लिए एक के बाद एक ढेरों अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहे है लेकिन कोई समुचित एवं कारगर समाधान न मिल पाने से जीवन के हर क्षेत्र में बेचैनी बढ़ती जा रही है।

वायुमंडल पर सर्वाधिक प्रभाव वायुप्रदूषण का है। इसके जिम्मेदार मुख्यतः औद्योगिक देश हैं। मानवनिर्मित ष्टह्र2 का 10 प्रतिशत केवल उत्तरी पैदा करते हैं। सन् 1988 में विश्व में 6255.9 लाख टन ष्टह्र2 वातावरण में छोड़ा गया। सन् 1989 में यह बढ़कर 9594.26 लाख टन ष्टह्र2 वातावरण में घुलती रहती है। 1990 से अब तक जापान से निकलने वाली ष्टह्र2 में 12 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसके अलावा आस्ट्रेलिया ने 8 प्रतिशत एवं अमेरिका ने 6 प्रतिशत की वृद्धि की है। वैसे जनसंख्या व प्रदूषण की वृद्धि की है। वैसे जनसंख्या व प्रदूषण के अनुपात में औसतन एक अमेरिकन नागरिक प्रतिवर्ष पाँच टन कार्बन हवा में छोड़ता है। यूरोपीय व जापानी नागरिक प्रतिवर्ष दोसे तन टन, चीन 0.6 टन एवं एक भारतीय 0.2 टन ष्टह्र2 वातावरण में छोड़ते है। इस तरह एक अमेरिकन 25 गुना अधिक पर्यावरण को प्रदूषित करता है।

कार्बनडाइ-आक्साइड मुख्यतः उद्योगों एवं वाहनों द्वारा उत्पन्न होती है। भारत में सन् 1950 में 1500 उद्योग थे, जो अब बढ़कर 20 लाख के ऊपर पहुँच गए हैं। यही नहीं अपने देश के महानगरों की गाड़ियां वर्तमान समय में प्रतिदिन 8 से 10,000 टन धुँआ उत्सर्जित करती है। वाहनों के प्रदूषण से उत्पन्न कार्बन मोनो आक्साइड होमोग्लोबिन में आक्सीजन से 210 गुना अधिक घुलनशील है। यह साँस के माध्यम से फेफड़ों में प्रविष्ट होकर साँस सम्बन्धी अनेकों रोग उत्पन्न करती है। इसके अलावा सुस्ती आँखों में जलन, खुजली, त्वचा में रूखापन, थकान, बेचैनी तथा हृदय रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है। सेन्टर फॉर साइन्स एण्ड एन्वायरमेण्ट नामक पर्यावरणवादी स्वयंसेवी संगठन ने ‘स्लोमर्डर द डेहलीर स्टोरी ऑफ वेहिकुलर पॉल्यूशन्स नामक बहुचर्चित पुस्तक निकाली है। इसके अनुसार दिल्ली में 1995 में वायुप्रदूषण से हुई मौतों की संख्या 9900 है। यह संख्या कलकत्ता में 10700 है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार भारत के 36 शहरों में 1995 में 51,779 मौतें हुई। कलकत्ता, दिल्ली, मुम्बई, कानपुर और अहमदाबाद में सन् 1995 में भयावह प्रदूषण की वजह से पूरे देश की तुलना में दो तिहाई नवजात शिशुओं की मौतें हुई।

ओजोन मण्डल धरती का सुरक्षा कवच है, परन्तु बढ़ते विनाशकारी प्रदूषण है, परन्तु बढ़ते विनाशकारी प्रदूषण ने इसमें छेद कर डाला है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह छेद यूरोप महादेश जितना बढ़ा हो गया है। इससे सूर्य की प्रखर किरणें धरती की सतह के तापमान को बढ़ा देती हैं। इसे ग्लोबलवार्मिंग कहते हैं। वैज्ञानिक आकलन के अनुसार, ओजोन मण्डल प्रतिवर्ष पाँच प्रतिशत को दर नष्ट होता जा रहा है। इसके कारण धरती का तापमान प्रतिवर्ष 0.10 सेल्सियस बढ़ जाता है। ओजोन मण्डल को ष्टह्र2 तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन सबसे अधिक क्षति पहुँचाते है। ष्टह्र2 की उम्र सर्वाधिक होती है। यह एक बार उत्पन्न होने के बाद वातावरण में 100 साल तक सक्रिय रहती है। जबकि सी.एफ. सी. पैदा होने के 15 साल बाद ओजोन मण्डल में सक्रिय रूप से क्रियाशील होती है। एक अनुमान के अनुसार, पिछले 200 वर्षों में ष्टह्र2 एक तिहाई बढ़ चुकी है। इसी तीव्रता से बढ़ते जाने पर इक्कीसवीं सदी के वातावरण में इस गैस की मात्रा दो गुनी हो जाएगी। इससे धरती का तापमान काफी बढ़ जाएगा।

ओजोन परत के क्षतिग्रस्त होने से धरती पर पराबैगनी किरणों की बौछार बढ़ जाना स्वाभाविक है। इससे मानवशरीर की त्वचा की सबसे ऊपरी परत टूट जाती है। और पहली रक्तवाहिकाएँ भी नष्ट हो जाती हैं इन क्षतिग्रस्त कोशिकाओं से हिस्टामीन नामक रसायन कोशिकाओं से हिस्टीमीन नामक रसायन का स्राव॰ होने लगता हैं जो ब्रोकाइटिस, अल्सर व निमोनिया जैसी बीमारियों का करण हैं इस वजह से स्किन कैंसर की सम्भावना भी बढ़ जाती है। एक सर्वेक्षणानुसार ओजोन की मात्रा में एक प्रतिशत की कमी से प्रतिवर्ष 2 लाख, व्यक्तियों को स्किन कैंसर हो सकता हैं ओजोन मण्डल की ही क्षरण मोतियाबिन्द और रेटिना को भी खराब कर सकता है। इनसानों के साथ-साथ जानवरों की प्रतिरक्षाप्रणाली पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ता है।

कीटनाशकों के दुरुपयोग ने भी प्राकृतिक सन्तुलन में काफी उथल-पुथल मचाई है। इससे उपयोगी कीड़े-मकोड़ों एवं कीटाणुओं की कई प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं सन् 1950 में कीटनाशक नष्ट हो रही हैं सन् 1950 में कीटनाशक की खपत 2000 टन थी। आज लगभग 84 हजार कीटनाशक दवाएँ भारत के पर्यावरण में हर साल घुल रही है। अपने देश में प्रतिबन्धित होने के बावजूद डी.डी.टी.की कुल खपत 7500 टन प्रतिवर्ष है। चाहे लम्बे समय तक अपना भाव बनाए रखती है। इसके अलावा बी.एच.सी. मेथइस पैराफिन, इण्डोसल्फेन और डाई ब्रोमो क्लोरोप्रोपेन आदि घातक रसायनों के प्रयोग पर्यावरण को लगातार प्रभावित कर रहे है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. ओ.पी. लाल ने एक शोध रिपोर्ट में उल्लेख किया है। कि अधिक मात्रा में रासायनिक दवाओं के प्रयोग की वजह से जनसामान्य के मस्तिष्क, पाचन−तंत्र, छाती एवं स्नायुतन्त्र बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। प्राकृतिक असन्तुलन का एक बड़ा कारण वनों का विनाश भी है। इससे पर्यावरण में ष्टह्र2 गैस की असाधारण रूप से वृद्धि होती हैं वनों का लगभग 14 करोड़ हेक्टेयर हिस्सा हर साल उजड़ रहा है। विश्व में लगभग ढाई लाख वनस्पति प्रजातियाँ है। इसमें से 5050 प्रजातियाँ नष्ट हो चुकी है। 25,000 दुर्लभ किस्म की वनस्पतियाँ समाप्ति की ओर बढ़ रही है। इसके अलावा 15000 प्रजातियों को प्रदूषण का खतरा हैं इसके सर्वाधिक प्रभाव यूरोप, आस्ट्रेलिया, अमेरिका तथा न्यूजीलैण्ड में हो रहे हैं। बन-विनाश का भारी असर जीवधारियों पर भी है। सन् 1990 के ह्रश्वष्टष्ठ आँकड़ों के अनुसार विश्व में 115 स्तनधारी जीव एवं 171 पक्षियों की प्रजातियाँ नष्ट हो चुकी है। 100 प्रजाति प्रतिवर्ष की दर से विलुप्त होती जा रही है। यही स्थिति रही तो धरती इन जीवों से शून्य हो जाएगी। वन-विनाश की तीव्रता से अमेरिका का ग्रेट प्लेन क्षेत्र रेगिस्तान में बदल गया है।

जल प्रकृति का मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण घटक है। आज पृथ्वी की समस्त घटक है। आज पृथ्वी की समस्त जलराशि में 0.8 प्रतिशत ही मनुष्य के पीने लायक हैं वर्तमान विश्व की स्थिति यह है। कि 2 अरब लोगों को स्वच्छ जल नहीं मिल पाता है जबकि हर 21 साल में पानी की माँग दुनिया में दो गुनी हो जाती है। 22 देश ऐसे है जो पानी के अभाव से बुरी तरह त्रस्त हैं 18 देशों में सुखा पड़ जाता है। जल-प्रदूषण की स्थिति भयावह होती जा रही है। लगता है आगामी समय में कही जल को लेकर महायुद्धों की नौबत न आने लगे। अपने ही देश के 21 प्रमुख शहर अपना कचरा सीधे समुद्र में उड़ेलते है। इनकी सम्मिलित मात्रा 24.921 लाख लीटर है, जो जल तत्व को प्रदूषित किए जा रही है।

सब ओर संव्याप्त इस प्रदूषण ने धरती के तापमान को बढ़ा दिया है। वैज्ञानिकों को आशंका है कि यदि इस तापमान में कुछ और वृद्धि हुई तो ध्रुवों में सदियों से जमे हुए विशाल हिमखण्ड पिघलने लगेंगे। जिससे समुद्र का जल स्तर बढ़ जाने से महासागरों के तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे। मालदीव जैसे इलाकों के लिए तो यह भयंकर खतरे का संकेत है। समुद्र स्तर में मात्र दो मीटर की बढ़ोत्तरी से समूचा मालदीव समुद्र में डूब जाएगा। इन परिस्थितियों से अपना महादेश भी अछूता नहीं है। यहाँ का भी एक बड़ा भू-भाग समुद्र से मिलता है, अतः यहाँ के तटीय क्षेत्र भी सुरक्षित नहीं है। अफ्रीका में ब्रेनिन खाड़ी तट की भूमि बराबर जलमग्न होती जा रही है। पिछले पचास सालों से धाना में क्वेटा निवासियों को इसी कारण विस्थापित होना पड़ा रहा है। ग्रेंड पोपो में कोकोआ बाग का दो कि. मी. अन्दर का भाग समुद्र के गर्भ में समा गया है। अमेरिका, कनाडा तथा यूरोप को इस आशंकित जलप्रलय का सबसे अधिक समाना करना पड़ सकता है।

यही क्यों मौसम की बिगड़ती स्थिति भी व्यापक प्राकृतिक परिवर्तनों का संकेत है। मौसम की इस विकराल प्रवृत्ति को अलनीनों कहते है। एक अमेरिकी मौसमविद् एन्टस लीनमा का कहना है कि वर्तमान समय शताब्दी का सबसे शक्तिशाली अलनीनों देख रहा हैं अन्य अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार इसका उफान प्रशान्त महासागर में उठता है तथा इसका प्रभाव एशिया, अफ्रीका, दक्षिणी तथा उतरी अमेरिका में होता है। इसी की वजह से कींस खा, तो कही बाढ़ आ रही हैं अलनीनों का विनाशकारी प्रभाव 1982-83 में हुआ था। इस वर्ष 2000 व्यक्ति मारे गये तथा 2 अरब डॉलर की क्षति हुई। यह सब पृथ्वी के तापमान में वृद्धि के कारण हो रहा है। 1996 अक्टूबर में कैलीफोर्निया तट तथा आसपास बहुत असामान्य मौसम रहा-तूफान, वर्षों और बाढ़ ने यहाँ जो तबाही मचाई, उसने पिछले सभी रिकार्डों को ध्वस्त कर दिया है। इंडोनेशिया में सूखा की स्थिति अभी से नजर आ रही है। इथेपिया तो इसका ज्वलन्त उदाहरण है। भारत में उड़ीसा का कालाहाण्डी क्षेत्र सूखा के लिए प्रख्यात हो चुका है।

समुद्री चक्रवात का विश्व में सर्वाधिक प्रभाव बंगलादेश पर हुआ है। सर्वाधिक प्रभाव बंगलादेश पर हुआ है। यहाँ पर 1970 में 3 लाख लोग मारे गये थे। सन् 1995 में 11,000 तथा 1999 में 2 लाख लोगों की जाने गयी, सन् 1974 में लुईसुइना में समुद्री तूफान ने 10,000 लोगों की जाने ली। 1979 में फ्लोरिडा में 2400 तथा 1988 में मैक्सिको में 534 व्यक्ति मारे गए। सन् 1976 में सेलवेस समुद्र में 30 मीटर की लहरें उठी, जिसमें फिलीपीन्स के 5,000 लोग काल के गाल में समा गए। इसी प्रकार 1979 में इंडोनेशिया के समुद्र में 10 मीटर की ऊँची लहरों के उठने से 187 लोग तथा 1983 में जापानी समुद्र से उठीं 15 मीटर की समुद्री तरंगें 1078 लोगों को समुद्र में खींच ले गयीं। 1997 में अपने ही देश के आन्ध्रप्रदेश में आये समुद्री तूफान की चपेट में 1 हजार लोगों की मृत्यु हो गयी। इसी वर्ष कनाडा के क्यूबेक प्रांत में आए बर्फीले तूफान से हुई तबाही तो अवर्णनीय है।

समुद्री चक्रवातों को ही तरह प्रचण्ड 1 दिसम्बर, 1997 में पूर्वांचल में तूफानी चक्रवात आया, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। हजारों मकान एवं पेड़ धराशायी हो गए यातायात अस्त−व्यस्त हो गया। इस तूफान की चपेट में बनारस पूर्वी उत्तर प्रदेश के चन्प्दौली, आजमगढ़, सुल्तानपुर, मऊ तथा बिहार के कुछ इलाके आए। यह तूफानी चक्रवात इतना भयंकर था कि इससे 10 किमी. चौड़े तथा 100 किमी. लम्बे क्षेत्र में भयावह एवं विकराल स्थिति पैदा हो गयी। 5 किलों से लेकर 20 किलों तक बर्फ के टुकड़े आसमान से गिरें। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार इन क्षेत्रों में यह पहली ऐसी घटना थी।

पिछले पाँच सालों में बादल फटने की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। 1997 में टिहरी में बादल फटने से काफी जान-माल का नुकसान हुआ। बड़ी संख्या में मवेशी एवं फसल दबकर नष्ट हो गए। लगभग 5 करोड़ की क्षति हुई। यहाँ पर बादल फटने से आयी अचानक बाढ़ ने तबाही मचा दी। शिमला में बादल फटने से आंध्रा नदी में भयंकर बाढ़ आ गयी थी।, जिसमें 139 आदमी बह गए। सुप्रसिद्ध वनस्पतिविज्ञानी प्रोफेसर आदित्य नारायण पुरोहित के अनुसार बादल फटने की ये बेशुमार घटनाएँ वृक्षों की अंधाधुन्ध कटाई का ही परिणाम है।

वृक्ष कटने से जो प्राकृतिक असन्तुलन पैदा होता है- भूस्खलन भी उसी का परिणाम है। इससे पर्वतवासियों को भारी संकट का सामना करना पड़ता है। वर्षों या बादल फटने से पहाड़ खिसककर नदी में गिर जाते है। इससे स्थाई झील बन जाती है। एवं इस झील के फटने-फूटने से भयंकर तबाही शुरू हो जाती है। पिथौरागढ़ में 1977 में भूस्खलन से 44 लोग मरे। प्रख्यात पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा के अनुसार पिछली शताब्दी में गंगोत्री ग्लेशियर केवल 7.3 मीटर घटा, जबकि इस शताब्दी में 1990 तक 4 कि.मी. पीछे खिसक चुका है।

सरकारी सर्वेक्षणों के अनुसार अपने देश में सन् 1951 में बाढ़ग्रस्त भूमि की माप 1 करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह बढ़कर करोड़ हो गयीं। वर्ष 1996 में सात करोड़ हेक्टेयर जमीन बाढ़ग्रस्त हुई। इस बाढ़ में साढ़े नौ हजार से अधिक लोगों के मरने, तीन लाख मकान ढहने तथा चार लाख हेक्टेयर रबी की फसल नष्ट होने की घटनाएं हुईं। इसी वर्ष हिमांचल, केरल, बिहार, और मेघालय में आँधी-बाढ़ से सैकड़ों लोगों की जाने गयी और हजारों बेघर-बार हुए। असम की ब्रह्मपुत्र नदी में आयी बाढ़ ने जो विप्लव मचाया, उससे 500 गाँवों में खड़ी फसल वाली 18 हजार हेक्टेयर भूमि समेत 44 हजार हेक्टेयर भूमि समेत 55 हजार हेक्टेयर भूमि समेत 55 हजार हेक्टेयर से अधिक भूक्षेत्र प्रभावित हुआ। प्रकृति में इन दिनों जो व्यापक उथल-पुथल चल रही है, उसके प्रभावों एवं परिणामों की सीमा नहीं हैं इसका सर्वाधिक व्यापक प्रभाव भूकम्प के रूप में देखा जा सकता हैं भूकम्प के इतिहास में चीन इस त्रासदी का सबसे बड़ा उदाहरण है। 1976 में वहाँ आए भूकम्प से 2 लाख, 42 हजार लोगों की मृत्यु हुई। 1978 में ईरान 40,000 तथा फिलीपीन्स की दो घटनाओं में 3253 व्यक्ति मारे गए। 1991 में उत्तरकाशी में आए तीव्र भूकंप के झटकों ने सब कुछ उलट-पुलट कर रख दिया। 1993 में पाकिस्तान में 1300 लोग तथा रूस में इस क्रम में सैकड़ों को जान से हाथ धोना पड़ा।1992 में तुर्की में 2000 तथा कमरों में 500 लोग भूकम्प से मृत्यु को प्राप्त हुए। 1993 में महाराष्ट्र के लातुर एवं उस्मानाबाद में आए भूकम्प ने हजारों की मौत के मुँह में धकेल दिया। 1995 में भूकम्प ने 5000 लोगों की जाने ली तथा 10 मई, 1997 को ईरान में 2400 लोग भूकम्प के तेज झटकों की चपेट में आए। मई, 1997 को ही मध्यप्रदेश के जबलपुर इलाके में आए भूकम्प से सैकड़ों लोग मारे गए, 421 गाँव एवं घर नष्ट हो गए। इस तबाही से एक अरब 31 करोड़ रुपये की सम्पत्ति बर्बाद हो गयी।

प्रकृति एवं पर्यावरण में जो परिवर्तनों का दौर चल रहा हैं, उसके प्रभाव से 1997 का दौर चल रहा है, उसके प्रभाव से 1997 एवं 98 के प्रारम्भिक महीनों की ठण्ड ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिये। 1 दिसम्बर, 1997 को हुआ मंसूरी में भयंकर हिमपात, सत्रह वर्षों के बाद इतने शीघ्र एवं प्रचण्ड रूप से हुआ है। 1998 की जनवरी में पहाड़ों पर धूप व मैदानी इलाकों में बर्फीले पर धूप व मैदानी इलाकों में बर्फीले कुहासे ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। समूचे हिमांचल प्रदेश में भी इतनी जल्दी हिमपात प्रदेश में भी इतनी जल्दी हिमपात होने का रिकार्ड कायम हुआ। दिल्ली की ठण्ड ने तो 30 सालों की ठण्ड को पीछे छोड़ दिया। पहाड़ी इलाकों की बात जाने भी दे तो मैदानी इलाकोँ में ठण्ड शून्य से -2 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंची।

प्रकृति में हो रही इस अभूतपूर्व उथल-पुथल एवं परिवर्तनों से सारा विश्व चिन्तित एवं परेशान है, इसलिए विभिन्न पर्यावरण सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में धरती का प्रदूषण मुक्त करने की योजनाएँ बनायी जा रही हैं। सन् 1992 में रियोडी जेनेरा के पृथ्वी सम्मेलन में अनेक रचनात्मक योजनाओं एवं कार्यक्रमों की घोषणा की गयी। इसी के सार्थक प्रयास के कारण आज ओजोन मण्डल को बचाने का जबरदस्त अभियान शुरू हो सका है। ओजोन परत की रक्षा के लिए मिथाइल ब्रोमाइड बन्द करने हेतु सितम्बर, 1997 में मांट्रियल में सौ से अधिक देशों ने समझौता किया है। औद्योगिक देश 2005 तक इसके उत्पादन को बन्द कर देने के लिए सहमत हुए है। अमेरिका स्थित ‘वर्ल्डवाच इन्स्टीट्यूट’ नामक एक संस्था के अनुसार सी.एफ.सी. गैस के उत्पादन में 1988 से अब तक 46 प्रतिशत की गिरावट आयी है। कई अन्य देशों की कम्पनियों ने भी दिशा में सकारात्मक रुख अपनाया है।

पर्यावरण सुधार के लिए दिसम्बर, 1997 में हुए जापान के क्योटों सम्मेलन को भी ऐतिहासिक समझा जाएगा। विश्व के 14 देशों ने इक्कीसवीं सदी में धरती को प्रदूषण मुक्त करने का फैसला किया। इसके अलावा यूरोप, अमेरिका और जापान सहित 21 देश ग्रीनहाउस गैसों की कटौती पर सहमत हो गए है। इस समझौते का सभी पर्यावरणविदों ने स्वागत किया हैं दिसम्बर, 17 में भारत में हुए इंडियन एसोसिएशन ऑफ पार्लियामेटेरियन्स ऑन पापुलेशन एण्ड डेवलपमेंट के दो दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में 13 देश के राजनीतिज्ञों ने भाग लिया। इन सभी ने विश्व को जलप्रदूषण से मुक्त कराने के कारगर कार्यक्रम की घोषणा की। पिटर स्वाँट्ज ने ‘द आर्ट ऑफ द लाँग व्यू ‘ में पर्यावरण के प्रति हाल में ही पैदा हुई सकारात्मक सोच का उल्लेख करते हुए कहा है, धीरे-धीरे ही सही पर ऐसी सम्भावनाएँ लगातार बन रही हैं, जिन्हें देखकर लगता हैं कि भविष्य में पर्यावरण स्वच्छ हो सकेगा। ‘वर्ल्ड लाइफ एण्ड फण्ड’ के एडम मार्क हेत ने भी इस सकारात्मक सोच का आशाजनक माना है।

इस बदली हुई सोच का उन दैवी प्रयासों की सफलता का एक अंश माना जा सकता है, जिसकी शुरुआत परमपूज्य गुरुदेव ने आज से लगभग एक दशक पूर्व अपनी सूक्ष्मीकरण साधना के माध्यम से की थी। उन्हीं के शब्दों में, अभी बीसवीं सदी के शेष वर्ष ऐसी ही उखाड़ -पछाड़ से भरे है, जिनमें घटाएँ, घुमड़ती, बिजली कड़कती और अनिष्ट की सम्भावना उतरती दीख पड़ेगी। पर अन्ततः इक्कीसवीं सदी में विश्व की, राष्ट्र की कुण्डलिनी जाग्रत होने का प्रभाव इस रूप में देखा जा सकेगा। कि उससे जड़ पदार्थ, जीवनधारी मनुष्य एवं परिस्थितियों के प्रवाह प्रभावित होंगे।

मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी, खनिजों के भण्डार तथा उत्खनन का अनुपात बढ़ जाएगा। धातुएँ मनुष्य की आवश्यकताओं से अधिक ही उत्पन्न होगी। खनिज तेलों की कमी न होगी। वृक्ष-वनस्पति उगाने के लिए मनुष्य को अधिक प्रयास नहीं करना पड़ेगा। वे प्रकृति की हलचलों से ही उपजते और बढ़ते रहेंगे वनौषधियाँ फिर प्राचीनकाल की ही तरह इतनी गुणकारक होगी कि चिकित्सा के लिए बहुमूल्य उपचार न ढूँढ़ने पड़ेंगे। जलवायु में पोषक तत्व बढ़ेंगे और वे प्रदूषण का परास्त कर देंगे। मलीनता घटेगी और शुद्धता अनायास ही बढ़ेगी प्रकृति-प्रकोपों के समाचार यदा-कदा ही सुनने को मिलेंगे। बाढ़-सूखा। अकाल महामारी, भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट ओलावृष्टि आदि हानिकारक उपद्रव प्रकृति के अनुकूलन से सहज ही समाप्त होते चले जाएँगे। प्राकृतिक सन्तुलन एवं विधेयात्मक परिवर्तन के इस प्रवाह की शुरुआत इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक के उत्तरार्द्ध में ही दिखाई देने लगेगी। पर्यावरण-संकट का समाधान करके ही रहेगी।


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