संभवामि युगे युगे

February 1998

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यह आचार्य कृप भगवान व्यास को प्रणाम करता हैं हिमालय का अत्यन्त दुर्गम दिव्यक्षेत्र कलापग्राम, जो नित्य सिद्ध महायोगियों की साधनाभूमि है, जो मनुष्य तो दूर, गन्धर्वादि उपदेवताओं के लिए भी अगाम्य एवं अदृश्य है, उसी अलौकिक एवं अद्भुत भूमि में आज कुछ हलचल जान पड़ती थी। जहाँ अखण्ड शान्ति, नित्य घनीभूत सत्वगुण छाया रहता है। वहाँ समाधि से अचानक व्युत्थान बड़े आश्चर्य की बात थी। हजारों-हजार साल बीत गए-समूचे युग का पटाक्षेप हो चुका, ऐसा कभी यहाँ हुआ ही नहीं। प्रयत्न करने पर भी आचार्य कृप आज पुनः समाधि नहीं लग पाएं विवशतः वे अपने आसन से उठे और महर्षि व्यास से मिलने के लिए चल दिए।

संकल्प की भाषा में, परा-पश्यन्ती के स्वरों में बात करने के अभ्यासी इन दानों देवपुरुषों का प्रत्यक्ष मिलन बड़ा अचरज भरा था। द्वापर के अन्त में जब परम योगेश्वर भगवान कृष्ण अपनी लीला समेट रहे थे, उसके थोड़े ही समय बाद ये दानों दिव्य विभूतियाँ इस सिद्धभूमि में पधारी थीं। इस अलौकिक क्षेत्र में इन्होंने स्वल्पसमय में अगणित रहस्यमय साधनाएँ संपन्न की। समाधि में सतत् लीन रहकर सृष्टि के गुह्यातिगुह्य सत्यों एवं रहस्यों का साक्षात्कार किया। भगवान व्यास तो पहले भर ऋषि थे- तप, योग और ज्ञान के सतत् अभ्यासी उनकी लोकोत्तर साधना यहाँ आने के पश्चात और भी विशिष्ट और महनीय हो गयी थी। आचार्य कृप तो युद्धविद्या के आचार्य थे, कुरु राजकुमारों, पाण्डुपुत्रों को उन्होंने युद्धविद्या का प्रथम पाठ पढ़ाया था। इसका श्रीगणेश करते समय उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि भाई-भाई आपस में ही इसका प्रयोग करने लगेंगे। उनका आपस का वैर महायुद्ध का रूप ले लेगा।

विगत की घटनाएँ उनकी प्रेरक बनीं और सबसे अधिक प्रेरक एवं पूजनीय तो था-योगेश्वर अधिक प्रेरक एवं पूजनीय तो था- योगेश्वर कृष्ण का व्यक्तित्व, जिनके आशीष एवं अनुग्रह से वे कलापग्राम आए थे। यदा-बदा विगत उनके मनोभावों में स्पन्दित होने लगता था। वह-रहकर एक ही टीस सर्वेश्वर स्वयं धरा का उद्धार करने आए, मैं उनका सार्थक सहयोग न कर सका। सत्य को जानते हुए भी विवशतः उन्हें दुषे्रधन का साथ देना पड़ा। इस घटना ने उन्हें मर्माहत कर दिया था, परन्तु सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्ण ने अपनी लीला का अवसान करने के कुछ समय पूर्व कहा था-खिन्न न हों आचार्य। विधि का विधान सुनिश्चित होता है। फिर भी मैं आपको वरदान देता हूँ कि आप मेरे आगामी अवतार के न केवल साक्षी होंगे, बल्कि सहयोगी भी होंगे। तब तक आप हिमालय के दिव्यक्षेत्र कलापग्राम में तप करें।

उस समय से समाधि लीन रहते हुए एक दीर्घकालखण्ड व्यतीत हो गया। अब वे युद्ध के आचार्य नहीं ज्ञान, तप एवं योग के आचार्य थे। आज की दृष्टि से असाधारण, अकल्पनीय, दीर्घकाय, प्रलम्बबाहु, कमलदल विशाल लोचन उत्रत नासिका, प्रशस्त भाल एवं वक्ष और पाटल गौरवर्ण, अत्यन्त सुन्दर-सुगठित किंचित तपःकृशदेह, जटाजूट, बढ़े श्मश्रु केश, केवल कल्कल, परिधान स्रष्टा की अनुपम कृति लगते थे महर्षि व्यास वर्ण में किंचित कृष्ण अवश्य थे, पर उनकी काया के चारों ओर छायी रहने वाली तपस्या की अनोखी छटा प्रदान करती थी। अद्भुत था उनका सम्मान अपने अग्रज के समान करते थे, किन्तु महर्षि व्यास उन्हें सदा अपना समकक्ष मित्र ही मानते थे।

आज कुछ अकल्पनीय होने वाले लगता है। कृपाचार्य ने कहा’ अनेक बार प्रयत्न करके भी एकाग्र नहीं हो सका। जैसे कोई आकर्षण हिमशिखरों से नीचे जन-संकुल जगत की ओर खींच रहा है।

आप जानते ही हैं कि हम दोनों स्रष्टा के एक संकल्पविशेष के यन्त्र हैं। महर्षि व्यास बोले-स्वयं मेरी भी आज यह अवस्था है। लगता है कि वह समय आ गया है जिसके लिए योगेश्वर कृष्ण ने आपको संकेत दिया था। अबकी बार सर्वेश्वर स्वयं कल्कि अवतार लेकर धर्म-स्थापना की अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेंगे। निष्कलंक अवतार द्वारा महाकाल की युग-परिवर्तन प्रक्रिया के मूर्त होने की शुभ घड़ी आ पहुँची है।

महात्मन्! श्रजस का लेश भी यहाँ वर्जित है। सहसा दोनों ही महाविभूतियों वर्जित है। सहसा दोनों ही महाविभूतियों के हृदय में कोई अलक्ष्यवाणी गूँजी तुम्हारा साधनाकाल पूर्ण हो गया है। अभी तुम्हें भावी अवतार प्रक्रिया के क्रिया–कलापों को साक्षात अपने नेत्रों से देखना है।

आदेश आ गया। वहाँ प्रत्यक्ष मिलन कोई महत्व नहीं रखता। अदृश्य-दृश्य का भेद नगण्य है। मन का संकल्प ही परस्पर विचार-विनिमय, उपदेश-ग्रहण एवं आदेशप्राप्ति का सुपरिचित माध्यम है। उस सिद्धस्थली में दोनों अमर विभूतियों ने हाथ जोड़कर सिर झुकाया और एक साथ वहाँ से चले।

मनुष्य रूप में है। ये? आचार्य कृप एवं भगवान व्यास के सम्मुख आज के मनुष्यों का आकार अत्यन्त क्षीण था। उनके शरीर ही नहीं, मन भी उन दोनों महानुभावों को संकीर्ण एवं संकुचित लगे। हम सीधे महेन्द्रांचल पर चलेंगे। थोड़ी देर भगवती भागीरथी के तट पर हरिद्वार में ध्यानस्थ रहकर दोनों उठे। इस आगामी सतयुग के युगनिर्माता एवं शास्त्रनिदेशक भगवान परशुराम है। उनके पावन चरणों में प्रणाम करके हमें आदेश की अपेक्षा करनी है।

महेंद्रांचल साधारण पर्वत नहीं है। इस दिव्यगिरि पर देवता भी संकोच एवं श्रद्धा के साथ ही उतरते है। भगवान परशुराम की अनेक युगों से यह साधना स्थली माया का आच्छन्न करने वाला प्रभाव इसका समीप नहीं आता। देवपुरुष परशुराम का सत्संग पाने के लिए अगणित ऋषि तपस्वीगण भी इसकी गुफाओं में, साधन कानूनों में अपने आराध्य का चिन्तन करते नित्य तन्मय रहते हैं। दिव्य लतातरु, पुष्पित- पल्लवित मधुरफल वनभूमि और रत्नोज्ज्वल गुफाएँ। यहाँ न केवल पशुओं का नाद, पक्षियों का कलरव, भ्रमरों का गुँजन ही, बल्कि निर्झरी की तरंगित ध्वनि में भी ओंकार का दिव्यनाद गूँजता है। यहाँ का पत्ता-पत्ता इस दिव्यगूँज के साथ नर्तन करने में लीन रहता है।

गगन से दो चन्द्रमा भूमि पर आ जाएँ, इसी प्रकार महेन्द्र के शिखर पर दो विभूतियाँ उतर आयी। ब्रह्मर्षि परशुराम निर्धूम अग्नि की तरह वहाँ प्रकाशित थे। वे जैसे इन्हीं दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी पारदर्शी प्रज्ञा में सब कुछ स्पष्ट था। जिज्ञासाएँ एक पल में ही समाधान के स्वरों में बदल गयी।

धन्य हो गए योगेश्वर कृष्ण की लीलाभूमि के समीप का वह छोटा-सा ग्राम। पवित्र हो गया यशस्वी ब्राह्मणश्रेष्ठ का कुल। भगवान कल्कि रूप में ब्राह्मणश्रेष्ठ का कुल। भगवान परशुराम बड़े ही विह्वल स्वरों में कल्कि के प्रज्ञावतार के आगमन की कथा सुना रहे थे। आचार्य कृप एवं महर्षि व्यास दोनों को ही उन्होंने आज ही भुजाओं में भर लिया था। पूर्व परिचित तो वे थे ही, बड़े आत्मीयभाव से वे कहने लगे। आप दोनों तो उनके परमप्रिय है। आप से मिलने वे स्वयं पधारेंगे।

पर कहाँ? आचार्य कृप ने चकित भाव से पूछा। जबकि भगवान व्यास ब्रह्मर्षि परशुराम का संकेत समझ चुके थे। देवभूति का संकेत समझ चुके थे।

देवभूमि हिमालय ही उनकी मिलनस्थली होगी इस साँकेतिक शब्दावली के साथ ही पुनः कल्कि का वर्णन करने लगें जगत को ब्रह्मणत्व का गौरव प्रदान करने तथा जन-जन का जगज्जननी गायत्री महाविद्या का रहस्य बताने के लिए ही उनका अवतरण हुआ है। लोकशिक्षण के लिए उन्होंने स्वयं भी उग्र तप साधना की है। उनका तपः तेज दुर्धर्ष है।

वे परमप्रभु किधर...........................? जिज्ञासा इस बार भी आचार्य कृप की ही थी।

वे उग्रतेजा रूप में ही इस बार अवतीर्ण हुए है। परशुराम जी ने प्रश्न का तात्पर्य समझ लिया-विचारक्रान्ति ही उनका प्रचण्ड परशु है। जिसके द्वारा वे तीव्र वेग से समूचे भूमण्डल के मानव समुदाय के मन-मस्तिष्क को बदल डालने के लिए कृतसंकल्प है। उनके दर्शन करना चाहोगे?

देव! छयामय! एकबारगी चौंक उठी ये दोनों ये महाविभूतियाँ। महाभारत कालीन विषमताओं, विचित्रताओं को उन्होंने अपनी आँखों से देखा-असह्य था वह उनके लिए। प्रबल वेग से घूमता कालचक्र, महायुद्ध, गृहयुद्ध, शीतयुद्ध, व्यक्तियुद्ध, प्रकृतियुद्ध, आदि अनेक प्रकार के क्लेश, संघर्ष उद्वेग, अवरोध के तूफान उठते नजर आ रहे थे। इन सभी को महातपस्वी निष्कलंक भगवान अपने तप-तेज से नियंत्रित करते हुए, मनुष्यों की रक्षा करने में संलग्न थे, पर साथ उन्हें बदलने के लिए विवश कर रहे थे।

प्रज्ञावान महर्षि अपनी अंतःप्रज्ञा से उन प्रखरप्रज्ञा पुरुष के कर्तृत्व को देख रहे थे। ज्ञानयज्ञों-वाजपेय यज्ञों का संचालन, देवमानवों का अद्भुत संगठन एवं जन-जन में देवत्व का अवतरण। यमुना तट से गंगा तट पर हिमालय की तलहटी में आकर उन्होंने सूक्ष्मजगत को जिस आश्चर्यचकित करने वाली रीति से परिवर्तित किया-उससे वे हतप्रभ थे।

कल्कि के रूप में सर्वेश्वर की पूर्ण चेतना का अवतरण हुआ। उनके कर्तृत्वों स्थूलशरीर से ही नहीं, कल्कि अपने पाँच सूक्ष्मशरीरों से भी अपनी लीला का संचालन करेंगे। वे मानवता को उज्ज्वल भविष्य देने के लिए संकल्पित है। उनके संकल्प को अन्यथा कर सके ऐसी शक्ति देव, दानव, मानव किसी में नहीं।

पर अभी तो.......? अन्तर्प्रज्ञा से निहार रहे भविष्यलोक से वे वर्तमान में आ गए। सचमुच बड़ा ही दुखद है वर्तमान! भगवान परशुराम ने एक दीर्घ निःश्वास ली। युग बीत गए, धरती स्वादिष्ट फल, उर्वरकों का इतना उपयोग किया कि धरा बंजर बन गयी। समुद्री काई को आहार बनाना चाहा, किन्तु अपने ही आविष्कृत अद्भुत विस्फोटकों से उन्होंने सागरीय आहार को भी विषैला बना दिया। इस समय तो मानव न तो खाद्य-अखाद्य का विचार करता है और न ही आचार व्यवहार का।

यह हीनसत्व ......। कृप ने खिन्न स्वर में कहा, अपने मस्तिष्क पर बड़ा गर्व किया इसने, किन्तु अपने गर्व में अपने ही आविष्कारों का आखेट हो गया। खिन्न स्वर ही था भगवान परशुराम का भी, इसने ऐसे विस्फोटक निर्मित किए कि उसने अपने को ही समाप्त करने की ठान ली। ईश्वर की सत्ता, धर्म-परलोक आदि को इसने पहले ही अस्वीकार कर दिया था। स्थूल भोगों को ही महत्ता देने का परिणाम जो विनाश होता है, उसी को भुगत रहा है मनुष्य।

और अब यह दीन पशुप्राय मानव.........। महर्षि व्यास एवं आचार्य कृप अतिशय क्षुब्ध होने के कारण बोल नहीं सके।

कोटप्राय कहो वत्स! भार्गव बता रहे थे-परन्तु प्रज्ञा पुरुष के रूप में स्वयं भगवान अपनी युग-परिवर्तन प्रक्रिया के प्रचण्ड वेग से नरपशु नरकीटक एवं नरपिशाचों को ऐसे देव-मानवों का रूप देंगे, जिन पर धरा युगों तक गर्व कर सके। अपनी उग्र तपस्या से वे समस्त मानवजाति के पापों को भस्म करने में लगे हैं। उनका परमोज्ज्वल तप ही मानव जाति का उज्ज्वल भविष्य बनेगा।

इस परमविश्वास के साथ ही परशुराम ने उन दोनों दिव्य देहधारी महापुरुषों की ओर देखा। उनकी दृष्टि में सहज स्नेह था, कर्तव्य के प्रति आग्रह था और निर्देश देने की आतुरता थी। पल के मौन के पश्चात वह कहने लगे-

सन्त सुकरात से मिलने गये एक भक्त ने प्रश्न किया “महात्मन्! चन्द्रमा में कलंक और दीपक तले अँधेरा क्यों रहता है?” सुकरात ने पूछा- “अच्छा तुम्हीं बताओ-तुम्हें दीपक का प्रकाश और चन्द्रमा की ज्योति क्यों नहीं दिखाई देती?”भक्त ने विचार किया सचमुच संसार में हर वस्तु में अच्छे और बुरे दो पहलू हैं, जो और जिन्हें केवल बुरा पहलू देखना आता है, वे बुराई संग्रह करते है।

हिमालय के हृदयक्षेत्र में रहकर ही अप दोनों प्रज्ञावतार की इस लीला के साक्षी एवं सहयोगी को दीर्घकालीन साधना से प्राप्त लगाओ यही युगसाधना है। कल्कि अवतार की चेतना तुम्हें समय-समय पर इसके लिए आवश्यक दिशा-दर्शन कराती रहेगी।

महाभार्गव का निर्देश पाकर वे दोनों देवपुरुष अपने गन्तव्य की और चल पड़े। अब उन दोनों को ही युगपरिवर्तन हेतु की जाने वाली युगसाधना में सम्मिलित होने की शीघ्रता थी।


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