इस संधिवेला में अपनायी जाने वाली विशिष्ट साधनाएँ

February 1998

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युगनिर्माण परिवार का सृजन किसी दिव्यशक्ति की योजनानुसार इसी निमित्त हुआ है कि उसे युगपरिवर्तन का श्रेय मिले। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण सचमुच हो अपने समय का इतना बड़ा काम है जिसे अवतारी सामर्थ्य ही सम्पन्न कर सकती है इसी सामर्थ्य से सुसम्पन्न नर रत्नों का सुदाय ग की पुकार पूरा करने के लिए आगे आ सकता है भौतिक दृष्टि से स्वल्प साधन होते हुए भी बहुत कुछ कर सकने की आत्मबल के धनी अपने परिजनों की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है। नवसृजन के महान प्रयोजन को पूरा करने के लिए असंख्यों द्वारा असंख्य कार्य किये जाने हैं किन्तु प्रश्न अग्रगमन का है झण्डा हाथ में लिए बिगुल बजाते हुए अग्रगामी जब प्रयास करते है तो पीछे-पीछे महारथी भी अपनी चतुरंगिणी को हांकते हुए मोर्चे पर जूझने के लिए बढ़ते चले जाते हैं युगान्तरकारी प्रस्तुत प्रयत्नों को भी अपने समय का महाभारत ही मानना चाहिए। पांचजन्य बज रहा है गाण्डीव की प्रत्यंचा चढ़ने में भी अब देर नहीं है

इस बार के प्रेरणाप्रद वसन्त पर्व पर जाग्रत आत्माओं को युग आह्वान उतरा है। अपने पूरे देवपरिवार में इस दिव्य अवतरण हल हलचलें दिखाई देने लग है जीवित मृतकों की अथवा वितृष्णा के दलदल में बेतरह फंसे हुए लोगों की बात दूसरी है पर जिनमें प्राण अपने भीतर समुद्रमंथन जैसा कुहराम पाया है। हर प्राणवान की आत्मा ने पूछा कि इस युगपरिवर्तन की महासंक्रांति में उसकी अपनी भी कुछ भूमिका हो सकती है यह नहीं। पिछले दिनों समारोहों में यह समुद्र-मंथन आरम्भ हुआ और वसन्त पर्व पर उसमें तूफानी चक्रवात उभरा। इसी के साथ निष्कर्या का प्राणवान परिजन को युग- परिवर्तन में अपनी भूमिकाएं निभानी होगी। जो नल−नील की तरह सेतुबन्ध बाध सकेंगे हनुमान की तरह पर्व एठा सकेंगे वे वैसा करेंगे जिनसे कुछ भी न बन पड़ेगा उन्हें भी गिलहरी की तरह बालों में समा सकने लायक बालू तो ढोनी ही पड़ेगी परीक्षा की इस घड़ी में अचकचा कर खाकटा सिद्ध होने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। पूरे या अधूरे मन या साधना में हम में हर किस को अपनी-अपनी मनःस्थिति और परिस्थितियों के अनुरूप युगपरिवर्तन के महाप्रयोजन के लिए सम्भव न रह जाएगा।

परन्तु हथियारों का प्रयोग करने से पूर्व उनकी धार तेज की जाती हैं विजयादशमी पर्व मनाने के अनेक प्रयोजनों में से एक यह भी था कि योद्धा अपने-अपने हथियारों की धार तेज कर ले टूट-फूट की मरम्मत कर लेने और चलाने की कला यदि अभ्यास से उतर गई हो तो उसे फिर से ठीक कर ले। युगपरिवर्तन में छोटी-बड़ी भूमिका जिन्हें निभानी है वे सभी युगांतरकारी सैनिक ही कहे जाएगी। उनका प्रधान हथियार उनका अपना व्यक्तित्व है यदि उसमें प्रखरता मौजूद होगी तो फिर हाथ में जो भी कार्य लेंगे उन सभी में सफल होंगे। व्यक्तित्वहीनों के लिए युग है रंगमंच पर लड़ाई के पैंतरे बदलना एक बात है और रणभूमि में भवानी को बिजली की तरह चमकाना दूसरी। अभिनेता के रूप में तो वक्ता नेता का कार्य कोई मसखरा भी कर सकता है किन्तु प्रभावोत्पादक परिणाम उत्पन्न कर सम्भव हो सकता है युगपरिवर्तन के लिए एकमात्र साधन उस पुण्य प्रयोजन को हाथ में लेने वाले प्रखर व्यक्तित्व ही हो सकते हैं उत्कट तप के साथ ही जाने वाली साधना इसी निर्माण की प्रयोगशाला है।

भावनाओं के उभार, कुछ कर महत्वपूर्ण है कि जो करना है। उसके लिए उपयुक्त सामर्थ्य और कुशलता प्राप्त कर ली जाए। युगपरिवर्तन में लगें हुए और लगने वालों को अपना व्यक्तित्व इस महान प्रयोजन के उपयुक्त बनाना प्रथम कार्य है कार्य पद्धति कि शिक्षा तो बोझ उठाते-उठाते अनुभव के सहारे भी मिलती रहती है। कौशल की कमी भी पूरी कर लेना भी अत्यन्त सरल हैं महत्व तो व्यक्तित्व का है वही अपंग रहा तो फिर लकड़ी की तलवार के सहारे प्रबल शत्रु से जूझकर विजयश्री वरण करते हुए लौट सकता अत्यन्त कठिन है।

शांतिकुंज में रहकर विशेष साधनासत्रों में सम्मिलित होना या फिर घर में सवा-लाख के चालीस दिवसीय अनुष्ठानों में संलग्न होना ऐसा है जिसे सामयिक ही कह सकते हैं परिवर्तन में महान दायित्वों को निभाते रहकर सदा इस रीति को अपनाए रखना रहकर असंभव है घर में रहकर रोजमर्रा के जीवनक्रम के साथ किस प्रकार साधनाएं चलाया जाता चाहिए इसकी क्रमबद्ध विधि-व्यवस्था बनाकर साधकों को दी जा रही है साथ ही उनके आशा की जाती है कि वे इस विशिष्ट अवधि में ओर भविष्य में भी इसका निष्ठापूर्वक पालन करते रहेंगे।

प्रभा समर्पित जीवन किया जाए। अनासक्त कर्मयोगपरायण गतिविधियां ऐसी हो जिन्हें यज्ञीय जीवन की संज्ञा दी जा सके। यही अध्यात्मपरायण व्यक्तियों की रीति-नीति होती चाहिए। इसमें उपासना के लिए एक घण्टे का समय भी पर्याप्त हैं साधना अहर्निश होनी चाहिए एक क्षण भी साधना अहर्निश होनी चाहिए एक क्षण भी साधना विरत नहीं किया जाना चाहिए। प्रमाद जहां भी जब भी आएगा, शैतान को चढ़ दौड़ने का अवसर मिल जाएगा। चौकीदार थोड़े समय कि लिए सो जाए, तो चोरों को घात लगाने में देर नहीं लगती। हम तनिक भी प्रमाद बरतेंगे, तो मस्तिष्क पर दुर्भावनाओं का और शरीर तो मस्तिष्क पर दुष्प्रवृत्तियों का आक्रमण होते देर नहीं लगेगी। युगपरिवर्तन की अवधि में अपनायी जानें वाली साधना पद्धति इसी तथ्य को ध्यान में रखकर साधकों को दी जा रही है, ताकि वे अध्यात्म एवं युगान्तरकारी गतिविधियों के ध्रुवकेंद्र देवात्मा हिमालय एवं वहां निवास करने वाली विभूतियों से जुड़े रहे और निरंतर हो रहे आसुरी आक्रमणों से सुरक्षित रह सकें। क्रम प्रातः आँख खुलते ही आरम्भ हो जाता है और जब तक नींद नहीं आ जाती तब तक चालू रहता है। इस साधना-प्रक्रिया में सूत्र रूप से सभी साधनाएं समाहित कर दी गई है। जिनके प्रभाव अतिविशिष्ट, रहस्यमय एवं सर्वथा गोपनीय है।

प्रातः आँख खुलने से लेकर बिस्तर छोड़ने तक प्रायः आधा घण्टा लग जाता है आलस्य, सुस्ती, अंगड़ाई और करवट बदलने में इतनी देर तो लग ही जाती है इन उनींदे क्षणों में यह विचरना चाहिए कि आज अपना एक ही दिन के लिए नया जन्म हुआ है। रात्रि होते ही मृत्यु हो जाएगी। ‘हर दिन नया जन्म हर राज नयी मौत ‘ वाला सूत्र साधनात्मक जीवन जीने वालों के लिए स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है आज के दिन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कैसे हो सकता है इसका क्रमविभाजन इन्हीं क्षणों में कर लिया जाना चाहिए। स्थूलशरीर (देह), सूक्ष्मशरीर (मन) एवं कारणशरीर (भाव) ये तीन कर्मचारी हमें मिले है। इन्हें क्रिया, विचारणा एवं भावना भी कह सकते है हेय तीनों जब किसी एक काम में पूरे सहयोग और उत्साह के साथ जुटते है तो वह कार्य कर्मयोग की साधना जैसा पुण्य फलदायक बन जाता है उसकी सुन्दरता और सफलता देखते ही बनती है।

हर दिन को जीवन की बहुमूल्य सम्पदा मानकर उसके सदुपयोग की दिनचर्या बिस्तर पर पड़े-पड़े ही इन प्रकार निर्धारित कर दी जानी चाहिए कि उसमें समय की बर्बादी के लिए कही कोई गुंजाइश न रहे। आवश्यकतानुसार बीच-बीच में विश्राम की व्यवस्था भी रखी जा सकती है पर वह भी नियमित और निर्धारित होनी चाहिए उठने से लेकर सोने तक कसा हुआ खिंचा हुआ और उसे टाइम–टेबुल बनाना चाहिए और उसे मुस्तैदी के साथ निबाहा जाना चाहिए शरीर को जो कार्य करना है मन पूरी तरह उसमें तन्मय रहे। हर छोटा-बड़ा काम पूरे मनोयोग से किया जाय। दोनों के सहयोग से जो काम होते हैं उन्हीं में कला कौशल निखरता है उन्हीं का स्तर उत्कृष्ट बनाता है काम ही ईश्वर की पूजा है यदि अपना हर काम सुन्दर-सुव्यवस्थित, सर्वांगपूर्ण और सही हो तो उसे कर्मयोग के स्तर पर ही रखा जाएगा। मन के निग्रह की असली साधना अपने दैनिक कार्यों में समग्र मनोयोग लगाने से ही सम्भव होती हैं उपासना में भी यही अभ्यास काम दे जाता है। यदि हर काम आधे मन से करने की आदत होगी तो फिर पूजा ही तन्मयतापूर्वक कैसे सम्भव होगी।

शयनकक्ष में परमपूज्य गुरुदेव का चित्र रहना चाहिए, क्योंकि वे ही युगपरिवर्तन के सूत्रधार एवं देव-शक्तियों के प्रतिनिधि है दूसरा बड़े साइज का दर्पण रहे। गुरुदेव को उठते ही प्रणाम करना चाहिए और सद्बुद्धि की कर्मनिष्ठा की याचना करनी चाहिए। उसके उपरान्त दर्पण में अपने आपको देखते हुए आत्मचिन्तन, आत्मसमीक्षा की साधना करनी चाहिए। आत्मदेव की सद्गुरु परमात्मा का प्रतिनिधि, उद्धारकर्ता एवं इष्टदेव के रूप में नमन करना चाहिए और आग्रह भरा अनुरोध करना चाहिए कि अपनी गतिविधियों का स्तर ऊंचा उठाए ताकि लक्ष्य की ओर सुख-शान्ति पूर्वक बढ़ चलाना संभव हो सके।

उसके उपरान्त स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होना चाहिए और एक घंटे के लिए नियमित उपासना पर बैठना चाहिए। इस एक घण्टे के तीन भाग किये जा सकते है। (1) पन्द्रह मिनट खेचरीमुद्रा (2) पन्द्रह मिनट-ज्योति अवतरण प्राणयोग (सोऽहम्) साधना (3) आधा घण्टा गायत्री जप-सूर्यार्घ्यदान।

खेचरीमुद्रा में पांच मिनट शरीर को शिथिल करना, पांच मिनट मन को खाली करना और पांच मिनट जिह्वा को तालू में लगाने और सोमरस पान करने का विधान है पहल शरीर को शिथिल करना स्वास्थ्य की दृष्टि से तो उपयोगी है ही साथ ही ध्यान धारणा की पूर्ण भूमिका का पथ भी प्रशस्त हो जाता है मन को खाली करने के लिए नीचे नील आकाश का ध्यान करना पड़ता है और सोचना पड़ता है कि अब कही किसी वस्तु या।व्यक्ति का अस्तित्व नहीं रहा मन को खाली करने के लिए यही ध्यान सबसे अधिक उपयुक्त है इसके उपरान्त खेचरीमुद्रा प्रशस्त हो जाती है जिह्वा उलटना दुनियादारी से भिन्न स्तर की अपनी रीति-नीति अपनाने का संकल्प है उच्चस्तरीय चिन्तन का केन्द्र मस्तिष्क उससे टपकने वाला आनन्द (मानवी उपलब्धियों का सन्तोष) उल्लास (सत्पथ गमन की प्रबल प्रेरणा) भरा सोमरस हमें उपलब्ध होता हैं जीभ उसे प्राप्त कर पाचन−तंत्र में भेजती हैं और वह अमृत रस-रक्त में घुल-मिलकर क्रियापद्धति के रूप में परिणत होता है इन्हीं भावनाओं को प्रखर बनाना खेचरीमुद्रा का सारतत्व हैं आज्ञाचक्र में देवात्मा हिमालय की दिव्य विभूतियों के अनुग्रह के रूप में रो--रोग में समावेश, अंधकार का पलायन, तमसो मा ज्योतिर्गमय की स्थिति यह सब है भ्रूमध्य में प्रकाश का चिन्तन का लक्ष्य। आवश्यकतानुसार देवात्मा हिमालय के हिमशिखरों के मध्य उदय होते सूर्य का चित्र रखा जा सकता है पीछे तो यह ध्यान बिना किन्हीं खास उपकरणों के होने लगता है यह अद्भुत ध्यान है इसके माध्यम से यदि भावनाएं ठीक ढंग से प्रगाढ़ हो जाए तो वहां सूक्ष्म व कारण ऋषिसत्ताओं की प्रत्यक्ष अनुभूति भी सहज सम्भव बन पड़ती है।

सोऽहम् साधना में कुछ समय सास लेते समय ‘सो ओर छोड़ते समय ‘हम्’ की अनुभूति ‘ सो’ के साथ ही युगपरिवर्तन के प्रेरक - प्रवर्तक भगवान महाकाल के महाप्राण का काया के कण -कण और मन की प्रत्येक परत में प्रवेश तथा आधिपत्य की स्थापना। ‘हम ‘ के साथ लोभ मोह भरे अहंकार का पलायन। यही है संक्षेप में सोऽहम् साधना जिसको भावभरा प्रयोग हमें महाकाल के महाप्राणों से जोड़ता है और एक अद्भुत प्रत्यावर्तन प्रक्रिया साकार रूप लेती है।

उपरोक्त दोनों साधनाओं के लिए कुल मिलाकर पन्द्रह मिनट हैं प्रतिदिन करना हो तो दोनों साढ़े सात-सात मिनट की जा सकती है अन्यथा यह तरीका भी अच्छा है कि एक दिन पंद्रह मिनट ज्योति-अवतरण और दूसरे दिन सोऽहम् साधना करते रहा जाए, पन्द्रह मिनट खेचरी मुद्रा, पंद्रह मिनट खेचरी मुद्रा, पन्द्रह मिनट प्रकाश का ध्यान तथा सोऽहम् साधना में लगाने से आधा घण्टा हो जाता है शेष आधा घण्टा गायत्री की पांच मालाएं पूरी करने के लिए है।

गायत्री के पांच मुख माने गए है। यह पांच कोशों के प्रतीक है हर कोश का जागरण करने के लिए एक माला। इस प्रकार पांच मालाओं का जप उचित है। इससे कम में जितना चाहिए उतना शक्ति एद्भव नहीं होता। जप के आध भाग में अपने मलीनताग्रस्त होने के कारण माता की गोद में न पहुंचे सकते का दुर्भाग्य ओर शेष आधे भाग में शुद्ध होने पर उस परमशक्ति का प्यार-दुलार मिलने की यथार्थता हृदयंगम की जानी चाहिए जप के उपरान्त सूर्यार्घ्यदान जल-कलश को सूर्य की दिशा में धार बांधकर छोड़ना और परमतेजस्वी सविता देवता से प्रार्थना करना कि हमारे समर्पित व्यक्तित्व को भी जलधार की तरह स्वीकार करें और उसे वर्षा की अथवा ओंस की बूंदें बनाकर विश्वशान्ति के लिए अनन्त अन्तरिक्ष में बखेर दें।

इसके उपरान्त प्रातःकाल से लेकर सोते समय तक अपने को निर्धारित दिनचर्या में जुटा देना चाहिए शरीर मन ओर भाव कहीं आलस्य प्रमाद अथवा मर्याद व्यतिक्रम तो नहीं कर रहे हैं इसका हर घड़ी ध्यान रखना चाहिए और जहां भी गड़बड़ी दिखाई पड़े तत्काल रोकना, दौकना चाहिए आवश्यक कारण आने पर तो दिनचर्या में हेर-फेर करने ही पड़ते है पर उसमें आलस्य-प्रमाद के कारण व्यतिक्रम नहीं होने देना चाहिए। सन्तोष, मृदुलता और शान्ति के साथ हंसते-मुसकराते हुए अपना क्रिया−कलाप पूरा करना चाहिए क्रोध और खीझ के पतन एवं अनाचार के अवसर आने पर अपने को सँभालने समझाने में कुछ कसर नहीं रखनी चाहिए।

रात्रि में सोते समय बिस्तर पर जाकर दिनभर के कामों का लेखा- जोखा लेना चाहिए और गलतियों के कारणों पर विचार करते हुए अगले दिन उन भूलों के सम्बन्ध में सतर्क रहने की अपने आप को चेतावनी देनी चाहिए सोने से पूर्व तत्वबोध का क्रम आवश्यक रूप से अपनाते हुए सोचना चाहिए कि शरीर आत्मा से पृथक हो गया मरी हुई काया चारपाई पर पड़ी है चारों पाउ चार सम्बन्धी हैं जो उसे जलाने कि लिए ले जा रहे हैं आत्मा दूर खड़ी इस मरण को देख रही है संबंधी व्यक्तियों एवं एवं सम्पत्ति साधनों को छोड़कर जीवात्मा अपने कर्मभोग भोगने के लिए अन्यत्र जा रहा है मित्र-सम्बन्धी अपने मुख मोड़कर अपने धन्धे में लगने जा रही है।

छोटी हुई सम्पत्ति हराम में मिले मुफ्त माल की तरह पीछे वाले लोग गुलछर्रे उड़ो में खर्च कर रहे है। बटवारे के लिए परस्पर एक दूसरे का सिर फोड़ रहे है जिन वस्तुओं और व्यक्तियों को अपना समझा जाता था, वह लोभ और मोह निरर्थक साबित हुआ। मृत्यु ने नंगी सच्चाई सामने रख दी और भ्रांतियों का जाल-जंजाल जाल-जंजाल टूटकर एक ओर बिखर गया। अकेले आना -अकेले जाना ‘ वाला सत्य अक्षरशः साबित हुआ आंखों पर से परदा उठा तो पर तब जब सब कुछ हाथ से निकल गया। इससे पूर्व यदि मृत्युदत्त ज्ञान मिल सका होता तो उपलब्धियों के सदुपयोग की बात सोची जा सकती थी। पर अगले जन्म में कल के जीवन में ऐसा प्रयास करेंगे किसी वस्तु या व्यक्ति पर अधिकार जनाने की अपेक्षा उसके सदुपयोग की ही बात को ध्यान में रखकर सारे क्रिया−कलाप निर्धारित किए जाए।

जब झपकी आने लगे तो नादयोग के अनुरूप भावना करनी चाहिए कि भगवान कृष्णा जिस प्रकार रात्रि की नीरवता में बंशी बजाते थे। और गोपियां चुपचाप अपने घरवालों को छोड़कर रासलीला में निरत होकर दौड़ पड़ती थी। उसी प्रकार परमात्मा के आह्वान पर आत्मा अपने प्रियतम से मिलने दौड़ पड़ती है नादयोग की झंकार रात्रि में झींगुर बजते हैं जुगनू इस सास काते है अपने अन्तःकरण में वही नाद निनाद भव-मान्यता के आधार पर सुना जा सकता है इन भावनाओं के साथ भगवान के साथ लिपटकर सोने के लिए आत्मा को निद्राग्रस्त होकर परमशान्ति लाभ करने के लिए समाधिस्थ हो जाना चाहिए। रात में कभी करवट बदलें नींद खुले तो यही प्रतीत होना चाहिए कि भगवान हमारे साथ हैं हम सर्वथा भगवान में विलीन हो चुके हैं।

उठने से लेकर सोने तक की उपासना एवं साधनामिश्रित क्रियापद्धति के साथ युगसाधकों को वर्ष में दो नवरात्रि साधनाएं तथा सप्ताह में एक दिन गुरुवार का एक समय का अस्वादव्रत एवं रविवार का उपवास अनिवार्य रूप से करना चाहिए। सूर्य तत्व ही युगपरिवर्तन को हलचलें अहर्निश उत्पन्न कर रहा है इस सत्य से सभी दिव्यद्रष्टा एवं सूक्ष्मवेत्ता सहमत हैं युगपरिवर्तन की अवधि के इन वर्षों में सौरचेतना का महत्व असाधारण है गायत्री सूर्य की ही दिव्यचेतना शक्ति है रविवार का साप्ताहिक उपवास इससे अपने आपको एकात्म करने के लिए समर्थ एवं सार्थक उपाय है साधना के इस क्रम को आन्तरिक श्रद्धा एवं गहन निष्ठापूर्वक अपनाने वाले अनुभव करेंगे कि उसकी प्रखर उपलब्धियां विश्वात्मा के चरणों में समर्पित होने के लिए उमड़ी पड़ रही है। उनकी स्फूर्ति प्रतिभा एवं समर्थता फूटी पड़ रही है। यही नहीं अपने समर्थ व्यक्तित्व के बल पर महापरिवर्तन की इस अवधि में वे ऐसा कुछ कर दिखायेंगे जिसे युगों तक याद किया जा सकें।


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