युगपरिवर्तन की प्रक्रिया में हिमालय से ऊँची तप-साधना एवं सागर से भी गहरे दैवीरहस्य समाए हैं। इसका संचालन किसी सामान्य व्यक्ति या शक्ति के बस की बात नहीं। व्यक्ति के प्रयासों की सीमा है। सामान्यक्रम में उसे अपने ही जीवन को शुभ और आनन्द से भरा पूरा करना दुष्कर, दूभर लगता है। प्रकृति की शक्तियां भी छोटे-मोटे परिवर्तन, गति परिवर्तन, गति, लय-उभार करने में ही यदि सवाल स्वयं प्रकृति को बदलने का हो, मनुष्य को बदल डालने की आवश्यकता जब अनिवार्य समझी जाने, लगे, समूचा जीवनक्रम एक नए ढाँचे में बदलने के लिए आकुल-आतुर हो उठा हो, तब इसे कौन करे?
निराश के इस घोर-घने अँधेरे में आशा की लाल-मशाल बनकर पुनः उसी को संकल्पित होना पड़ा, जिसने कभी ‘एकोऽहम् बहुस्याम् का संकल्प पूरा किया था। जो प्रकृति एवं उसकी शक्ति का नियन्ता है। काल के गतिमान चक्र का अधीश्वर महाकाल है। मानव समाज के प्रत्येक बड़े कार्य एवं सृष्टि की व्यापक फेरबदल में वह स्वयं सूत्र संचालक का दायित्व सँभालता आया है। इसे ही पश्चिम के मनीषी ‘ट्साइट गाइस्ट’ और पूर्वी तत्वेत्ता ‘महाकाल’ के नाम से सम्बोधित करते है। यह नाम है। ही गम्भीर अर्थ से परिपूर्ण।सड़ी-गली मान्यताओं, रूढ़ियों, कुरीतियों से खण्डहर हो चुकी सामाजिक संरचना को मटियामेट कर उसके स्थान पर नूतन सृजन करने वाली महाशक्ति का उद्गम स्रोत यही है। महाकाल के अपने हाथों में बागडोर थामते ही संसार की समस्त शक्तियाँ एकजुट होकर उसके संकल्प की पूर्ति हेतु संलग्न हो जाती है। अध्यात्म के ध्रुवकेन्द्र देवात्मा हिमालय के ऋषि तपस्वियों की तप-साधना इसी महत् संकल्प को पूरा करने में नियोजित हो जाती है, फिर चाहे मनुष्य सहायता दे अथवा प्रतिरोध करे, किन्तु उसका काम रुकता नहीं, जब तक संकल्प पूरा न हो जाए। हाँ होशोहवासपूर्वक सहयोग करने वाले युगशिल्पी एवं युगनायक का गौरव अनायास पा लेते हैं
इतिहास के इन क्षणों में पुनः एक बार भगवान महाकाल का संकल्प गूँजा है। ठीक वे ही स्वर जो कुरुक्षेत्र में सुनायी दिए थे- “मैं महाकाल हूँ। खण्डहर हो चुके लोकों को उजाड़ कर, नष्ट कर नवसृजन करता हूँ। देखो, मैं पूरी शक्ति के साथ उठ खड़ा हुआ हूँ। वे योद्धा जी विरोध सैन्यदलों में व्यूह बाँधे खड़े हुए है, तेरे बिना भी नहीं बचे रहेंगे। इसलिए तू उठा खड़ा हो और महान यश का लाभ कर, क्योंकि सब कुछ पहले ही मेरे द्वारा किया जा चुका है, केवल निमित्त मात्र बन सव्यसचिन् “ (गीता-अध्याय 11, श्लोक 32-33)।
हवा की प्रत्येक साँस से, सृष्टि के प्रत्येक स्पन्दन से उठ रही इस धरती की नन्दन-कानन बनने के लिए है। महाकाल स्वयं को दो रूपों में प्रकट करते हैं। अपने पहले रूप में वे रुद्र होते हैं और दूसरे में शिव। रुद्र होते है और दूसरे में शिव। रुद्र की विनाशलीला शिव के सृजन के लिए शुरुआत से आज तक हुई घटनाओं का सरसरी से आज तक हुई घटनाओं का सरसरी नजर से जायजा लें, तो महारुद्र का माण्डव नर्तन समझा जा सकेगा। शुरुआत से लेकर लगभग आधी सदी तक मानव जाति दो महायुद्धों की तैयारियाँ करने और विनाश के ज्वालामुखी को भड़काने में जुटी रही। जर्मनी के तहखानों का लहू अभी तक सुखा नहीं था कि को कोरिया युद्ध की लपटों से घिर गया। एक के बाद एक कम्बोडिया, वियतनाम, बोस्निया, ईरान, ईराक जैसे अनेकों ने महारुद्र की विनाशलीला में अपनी भागीदारी निभाई। जी. विलकिन की पुस्तक ‘ह्यूमन रेस इन ट्वेन्टियथ सेंचुरी’ के अनुसार इस सदी में लगभग दो सौ छोटे-बड़े युद्ध लड़े गए। धरती पर कोई ऐसी जगह नहीं बची, जिसे महारुद्र के चरणों ने प्रकम्पित न किया हो। इस प्रकम्पन से न जाने कितने राममुकुट भू-लुँठित हुए, इक्के–दुक्के जो बचे हैं वे भी अपने अवसान की तैयारी कर रहे है। जिनके राज्य में कभी सूर्य नहीं अस्त होता था, वे ही अब कोने में सिमटते जा रहे है।
बात युद्धों की नहीं है। मान्यताएँ, नीतियाँ, प्रणालियाँ बनी और वहीं। नाजीवाद, फासीवाद धूमकेतु की तरह उल्टा होकर काल के प्रचण्ड झोंकों में बह गया। साम्यवाद के वितान फैले और सिमटने लगें। साम्यवाद के वितान फैले और सिमटने लगें। हीगल, मार्क्स एंगल्स गुजरे जमाने की चीजें होती जा रही हैं। जिनकी पूजा होती थी, उनके बुत टूटने लगें हिटलर, कावूर, नेपोलियन के व्यक्तित्व व कर्तृत्व दोनों तिरस्कृत हो काल के किसी कोने में जा पड़े है।
ऐसे में प्रकृति भला पीछे क्यों रहती? उसने भूकम्प, सूखा, बाढ़ जैसे पुराने युग के हथियारों के साथ ही ग्रीनहाउस प्रभाव, ओजोन की छतरी को फाड़ना, खनिज सम्पदाओं की रिक्तता, हवा, पानी की विषाक्तता जैसे अनेकों सिहरन पैदा कर दी। सदी के अन्तिम दशक में प्रवेश करते-करते धरती के ख्यातिनामा वैज्ञानिक, चिन्तक, समाज के कर्णधार चीत्कार कर उठे अब हम धरती को नहीं बचा सकते, महाप्रलय आने ही वाला है।
किन्तु कहाँ? बीत चली कालरात्रि का ब्रह्ममुहूर्त आते-आते रुद्र के क्रिया–कलापों में शिवत्व झलकने लगा है। भले ही अभी यह सबको स्पष्ट न ही रहा हों, किन्तु ऐसा कुछ घट रहा है, जो ‘ह्यूमन साइकिल’ नामक’ अपने ख्यातिनामा ग्रन्थ में इसे स्पष्ट करते हुए श्री अरविन्द कहते है, “दक्षिणेश्वर में जो काम शुरू हुआ था, वह पूरा होना बाकी है। सामान्यजन तो इसे समझ भी नहीं सके हैं। स्वामी विवेकानन्द ने जो कुछ प्राप्त किया, जिसे अभिवर्धित करने का प्रयत्न किया, वह अभी तक मूर्त कहाँ हुआ है? विजय गोस्वामी ने भविष्य के जिस सत्व को निगूढ़ रखा, वह उनके शिष्य तक नहीं जान पाए और अब अधिक उन्मुक्त ईश्वरीय प्रकाश की तैयारी हो रही है, अधिक ठोस शक्ति प्रकट होने की है। यह कार्य युग परिवर्तन की प्रक्रिया ही है।
किन्तु सदी के अन्तिम दशक के इन अन्तिम वर्षों में जैसे-जैसे ब्रह्ममुहूर्त की घड़ियाँ अरुणोदय की और बढ़ रही हैं, विनाश के आवरण को ढके सृजन स्पष्टतर होने लगा है। आज के जमाने में इसका एक सुस्पष्ट चिह्न है, उन दुनिया के हर कोने में अँगड़ाइयाँ ले रही जन-चेतना। उसे सिर्फ व्यवस्था को बदल डालने मात्र से संतुष्टि नहीं है। वह स्वयं में, समूचे समाज में एक मौलिक परिवर्तन करना चाहती है। महायोगी श्री अरविन्द का संकेत भी इसी ओर है।
अब तक हो चुके परिवर्तनों के इतिहास के पन्ने पलटें, उनके प्रभावी कारणों की ओर देखें, तो यही लगता है। कि सारी फेरबदल राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक, जैविक जनसंख्यात्मक और साँस्कृतिक कारणों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। यद्यपि ऊपर से न दिखते हुए भी इनका किसी न किसी प्रकार मनोवैज्ञानिक कारणों से सम्बन्ध रहा है, किन्तु सामान्यक्रम में राजनैतिक कारण ही प्रधान समझे जाते रहे है। ‘व्यवस्था से कष्ट हो रहा है, व्यवस्था बदल दो।’ यही नीति प्रभावी रही है। राजतन्त्र नहीं तो अधिनायकवाद या फिर साम्यवाद, प्रजातन्त्र अथवा समाजवाद। बदलाव के बाद भी उद्देश्य कोसों दूर रहा। प्रिंस क्रोपाटिकिन का’ क्रान्ति की भावना’ में मानना है कि परिवर्तन करने वाले जब शासन-व्यवस्था सँभाल लेते है, तो कुछ ही समय बाद सारी समस्याएँ फिर से ज्यों-की त्यों खड़ी दिखाई देती है। फ्राँस की राज्यक्रान्ति में इसी की झलक देखी गयीं। फ्राँस ही व्यवस्था तो बदली, परन्तु स्थिति अभी तक समस्या-संकुल बनी हुई है।
ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि व्यवस्था से कही अधिक दोषी वह समाज रहा, जिसने व्यक्ति को सही ढंग से गढ़ा नहीं। समस्त विसंगतियों, दुरावस्थाओं का मूल कारण समाज की जीवनीशक्ति कहे जाने वाले उस वर्ग का अभाव रहा, जिस पर व्यक्ति को गढ़ने, तराशने की जिम्मेदारी थी। इसके अतिरिक्त प्रथाएँ, परम्पराएँ, रीतियाँ, रिवाज, मान्यताएँ, मूल्य और प्रतिमान यही मिलकर वह साँचा बनाते हैं, जिसमें व्यक्ति ढलता है। और आज वह इतना जर्जर हो अपनी उपयोगिता खो बैठा कि इसमें उस इनसान को गढ़ने को ताकत नहीं रही, जो नए समय के अनुरूप नए आदमी तैयार कर सके। ऐसी दशा में आवश्यक हो गया है कि यह सभी परिवर्तन हो, जिससे कि मनुष्य सुधर-सँवर सके।
हालांकि इनसान का मोह इन्हें हर हाल में अपने से चिपटाए रखना चाहता है। इसी वजह से युगपरिवर्तन के लिए संकल्पित महाकाल ने आन्तरिक एवं बाह्य ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं, जिनके दबाव में आकर कोयले को हीरा बनना ही पड़े। सी ढंग से सांचा जाय तो यह भी एक अनुग्रह है, जिसकी वजह से हम सबको पुरानी सड़ी-गली केंचुल उतारकर सर्वथा नवीन सौंदर्य प्रकट करने का अवसर मिल रहा है। रिकाँस्ट्रक्शन ऑफ ह्यूमेनिटी के रचनाकार सुविख्यात मनीषी पी.ए. सोरोविन का स्पष्ट मानना है, इस बार के परिवर्तन पिछली फेरबदल से कही अधिक चिरस्थायी और उपयोगी रहेंगे। उनके अनुसार, इस बार हो रहे परिवर्तन, प्रत्यावर्तन में राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक परिवर्तनों के साथ मानवी अन्तःकरण में भी भारी फेर बदल हुए बिना न रहेगी।
मनुष्य ने देवत्व-मानव की नियति है। शायद इसी वजह से महाकाल की संकल्पशक्ति के लिए, बल्कि अपनी सोच बदलने के लिए विवश है जो अभी तक अड़े हुए हैं, उनका नष्ट होना एक अनिवार्य सत्य बन चुका है। सभी विवेकीजनों को स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि व्यवस्था बदलने भर से पर्यावरण-संकट, प्राकृतिक असंतुलन सुधरने वाला नहीं है। उसके लिए तो हमें ही बदलना होगा। सत्य भी यही है असन्तुलित प्रकृति नहीं बल्कि असन्तुलित तो स्वयं मनुष्य है। प्रकृति तो अपने नियन्ता परमपुरुष भगवान महाकाल के संकेतों के अनुसार इनसान को सुधारने के लिए सक्रिय भर हुई है।
महाकाल के उस महान संकल्प के क्रियान्वयन का केन्द्र है व्यक्ति और परिधि है-समाज। दिव्यदर्शियों की दृष्टि में इस सृजनात्मिका शक्ति की धुरी के रूप में मातृभूमि को चुना गया है। तीन चरणों वाली इस संकल्पित योजना का पहला चरण है, व्यक्ति की सोच को उलटना।
संकल्पित योजना के दूसरे चरण में रीतियों, मूल्यों, प्रथा-परम्पराओं में व्यापक स्तर की फेर-बदल7 होगी धर्म और धार्मिकता का नए सिरे से मूल्याँकन होगा। हर कोई यह समझ सकेगा कि धर्म का अर्थ साम्प्रदायिक कट्टरता या मन्दिर, मस्जिद के झगड़ों नहीं है। वरन् यह व पारसमणि है जिसका स्पर्श पाकर क्रूरकर्मा अंगुलिमाल महाभिक्षुक बन सका। आज की परम्पराओं, प्रथाओं की कतर–व्यौंतकर वे ही नीतियाँ रची जाएँगी जो समूची वसुधा को आत्मीय भावनाओं के सूत्र में पिरोकर एक कुटुम्ब का रूप दे सकें। महाकाल के महासंकल्प के रूप में संचालित युगपरिवर्तन प्रक्रिया का अन्तिम चरण है समाज। जिसने अभी बीहड़-वियावान जंगल का रूप ले रखा है। जहाँ उत्कृष्ट चिंतन, मृदुल व्यवहार एवं उत्तम चरित्र कभी किसी बिरले भाग्यशाली को ही दिखाई पड़ते है। वही समाज युगपरिवर्तन प्रक्रिया के द्वारा अपना स्वरूप बदलकर ऋषि-मनीषियों का आरण्यक बन जाएगा। इक्कीसवीं सदी में समाज ऐसी पाठशाला का रूप ले लेगा, जहाँ आदमी सोचना, जीना एवं व्यवहार करना सीख सके।
अपना लीला-पार्षद बनाने के लिए उन्होंने हम सबसे साहस भरा कदम उठाने को आह्वान किया है। परवाह नहीं यदि हम शक्तिहीन है,, पुराने समाज ने हमें नीचा और नगण्य माना है। जिन्हें भी अति प्रबल परिवर्तन का आदेश प्राप्त होता है, वे स्वयं महाकाल की अनन्त शक्ति से ओत-प्रोत हो जाते हैं। हम क्या हैं, कैसे हैं, भूलकर जैसे भी हैं? भगवान महाकाल के संकल्पपूर्ति के अन्तिम चरण में अपनी भूमिका निभाने के लिए तत्पर हैं। वर्तमान सदी के इस अन्तिम दो वर्षों में ऐसा सौंप जाएगी, जिसके गौरव से हम अनेक जन्मों तक पुलकित, प्रफुल्लित होते रहेंगे।