ईश्वर विश्वास की वैज्ञानिकता व उसके फलितार्थ

January 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

क्यों माने ईश्वर को ? मानना-एक कल्पना जनित विश्वास ही तो है। जिसका वैज्ञानिकता से कोई ताल-मेल नजर नहीं आता। ऐसे विचार स्वयं को वैज्ञानिक कहने-समझने वाली अधकचरी बुद्धि में कुलबुलाया करते हैं। किंतु , क्या कल्पना-मान्यता-विश्वास सर्वथा अवैज्ञानिक हैं या इनमें वैज्ञानिक तथ्य भी हैं। यह एक ऐसा विचार बिंदु है, जिस पर चिंतन करने से बौद्धिक विकास के नए आयाम खुलते नजर आते हैं। तब समझ में आने लगता है कि जिन तथ्यों को हम अपने अधकचरे पन के कारण अवैज्ञानिक समझते रहे-वही वैज्ञानिकता का केन्द्र बिंदु हैं।

बात अजीब सी लगने पर भी सौ फीसदी खरी हैं। विज्ञान और वैज्ञानिकता के मेरुदंड समझे जाने वाले गणित शास्त्र की ही परीक्षा कर लें, तो पाते हैं कि गणितज्ञों ने जो अन्वेषण किए है जिन अजीबोगरीब उलझनों को सुलझाया है, उसका प्रधान आधार “माना कि उत्तर अमुक है ,” का विश्वास रहा है। इस विश्वास को प्रयोग में लाकर शत-प्रतिशत सत्य हल निकाले जाते रहे हैं। उदाहरण के लिए यदि हमारे सामने यह पहेली रखी जाय कि सुनील के पास कुछ रुपये है। उसे अपने धन को मोहन, सुरेश और चंदू में बाँटना है। मोहन को कुल धन का आधा सुरेश को तिहाई देने के बाद चंदू के लिए सौ रुपये बचे तो पता लगाओ कि सुनील के पास कुल धन कितना था ?

अब तो ‘मानने’ को अवैज्ञानिक समझता है उसके लिए तो सवाल का जवाब खोज पाना निरा असंभव काम है। पर जिसे गणित शास्त्र की वैज्ञानिकता का पता है। वह तुरंत सोचने लगेगा-माना यह धन 1 रुपया है। 1/- का 1/2 = 1/2 भाग मोहन को मिला 1 का 1/3 = 1/3 भाग सुरेश ने लिया। कुल 1/2 + 1/3 = 5/6 भाग मोहन और सुरेश ले गए। बचा हुआ 1/6 भाग चंदू ने लिया । अब चंदू को जो हिस्सा मिला वह 100 था। अब ऐहिक नियम के अनुसार चूँकि 1/6 = 100 के इसलिए 1 बराबर है- 600 रुपये के । यही उत्तर है और सही भी है, जबकि सारी दुनिया में एक, छः सौ के बराबर कभी हो ही नहीं सकता। असंभव तरीके से संभव की खोज का नाम विश्वास है। यह एक ऐसा समर्थ सूत्र है, जिसके आधार पर परमात्मा की खोज की जा सकती है।

ईश्वर को मान लेने से-उस पर विश्वास करने से जहाँ अनेक व्यक्तिगत लाभ हैं वहाँ विश्व शाँति के लिए एक मजबूत आधार भी मिलता है। मान लेना एक सूत्र है जिसके आधार पर गणित के उत्तर निकाले जा सकते हैं। उसी तरह संसार में प्राणियों का आविर्भाव क्यों और कहाँ से हुआ है ? अनेक योनियों में बिखरी प्राण सत्ता का रहस्य क्या है ? जीवन का उद्देश्य क्या है और उसे किस तरह प्राप्त किया जा सकता है ? इन सवालों का प्रचलित विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं। वह स्थूलता का ही अध्ययन और प्रतिपादन कर सकता है। जबकि मनुष्य-शरीर की आधी शक्तियाँ भावनामय-विचारमय, संकल्पमय हैं। शारीरिक इंद्रियों की तरह भावनाएँ भी तृप्ति माँगती हैं। उनका भी अपना अलग क्षेत्र है। जब ईश्वर को मानवीय चेतना की तरह कोई सत्ता मान लेते हैं तो जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। हमारी भावनात्मक शक्ति का विकास होने लगता है।

प्राणिमात्र के प्रति, दया, करुणा, व्यवस्था, समता, सहिष्णुता, उदारता, मैत्री के भावों का विकास होने लगता है। जब हम मान लेते हैं कि संसार किसी भावनाशील शक्ति के द्वारा प्रेरित और नियंत्रित है। यह भावनाएँ ही स्थाई सुख और शाँति प्रदान करती है।

उसी के लिए तो विज्ञान और वैज्ञानिकता का आश्रय लेते हैं। पर प्रचलित विज्ञान के एकाँगीपन के कारण मनुष्य उलझता ही चला जा रहा है। जो तृष्णाएँ, विलासिताएँ, अहं वृत्तियाँ, क्रोध, विक्षोभ, ईर्ष्या, स्पर्धा, प्रतिशोध भौतिक महत्वाकांक्षाओं के मार्ग में भड़कती है। ईश्वर विश्वास के मार्ग में तप, त्याग, स्वाभिमान, सहयोग और सहानुभूति में बदल जाती है। जिससे न केवल अकेला व्यक्ति, बल्कि समूचा संसार भी शाँतिमय परिस्थितियों में बना रहता है।

मान्यताओं- विश्वासों की वैज्ञानिकता-आधुनिक विज्ञान ने सत्य सिद्ध की है। रेखागणित को ही लें-तमाम रेखागणित एक बिंदु से विकसित होती है। रेखा अनेक बिंदुओं से बनी एक दूरी है जिसमें लंबाई है, किंतु चौड़ाई नहीं। बिंदु वह वस्तु है जिसमें न तो लंबाई है, न मोटाई और चौड़ाई। ऐसी वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं होना चाहिए। कोई भी बिंदु अंकित किया जाएगा भले ही दशमलव के आगे कई शून्यों के बाद उसका व्यास आये पर मोटाई होगी अवश्य। यदि मोटाई हो जाती है तो वह बिंदु नहीं रहता और बिंदु रहता है तो परिभाषा गलत। अस्तित्वहीन वस्तु केवल विश्वास मात्र है, उसी पर संपूर्ण रेखागणित का धरातल टिका हुआ है और उसके माध्यम से जो भी अर्थ एकदम सही निकलते हैं। यह है विश्वास का प्रतिफल । उसी प्रकार ईश्वरीय सत्ता को मान लेने पर व्यक्तिगत कल्याण, समाज और विश्व के हित के परिणाम सही उतरने लगते हैं। दृश्य न होने पर भी उसकी कल्पना बिंदु की तरह एक शक्तिशाली सिद्धाँत है। परमात्मा को भी हम उसी रूप में ले लें तो इसमें भी मानवता का कल्याण ही सन्निहित है।

मनुष्य समाज की अधिकाँश व्यवस्था विश्वास पर ही आधारित है और उसी से हम सुखी हैं। भाई-भाई में पति-पत्नी में पिता-पुत्र, डाक्टर-मरीज, दुकानदार-खरीदार सबका काम विश्वास पर ही चल रहा है। विश्वास प्राप्त करके ही एक साधारण व्यक्ति पार्लियामेंट का सदस्य और प्रधानमंत्री बन जाता है। हमारे विश्वास में इतनी जबर्दस्त शक्ति है कि वह सामान्य सी परिस्थितियों को कुछ का कुछ बना सकती है। जो केवल दूसरों पर अविश्वास ही अविश्वास करते हैं, तो दूसरा चाहे कैसे भी हों, पर अविश्वास करने वाला व्यक्ति अपने आप ही दुःखी अशाँत और अव्यवस्थित बना रहता है। विश्वास की शक्ति पर ही संसार टिका हुआ है। हमारे लिए इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं कि ईश्वरीय चेतना पर विश्वास करें और यह देखें कि उसके फलितार्थ हमारे जीवन में उसी प्रकार सही उतरते हैं या नहीं जिस प्रकार पत्नी, पिता, माता, भाई-भतीजों पर विश्वास करके परस्पर हँसी-खुशी प्रेम और आनंद का जीवन जी लेते हैं।

रेखागणित की एक स्वयं सिद्ध साध्य यह है ‘अ’ और ‘ब’ एक सरल रेखा है। ‘उ’ बिंदु पर एक दूसरी सरल रेखा ‘द’ उसे काटती है। इस प्रकार ‘उ’ बिंदु पर बने हुए दोनों कोणों का योग बराबर दो समकोण होता है। यह एक विश्वास है, उसकी सत्यता का कोई आधार नहीं है। हम चाहें तो उसके टुकड़े ऐसे करे कि चह 180 न होकर 279 हो जायें या कुल 31 रखें। 180 डिग्री एक विश्वास की गई संख्या मात्र है और संसार में अब तक जितनी भी रेखागणित विकसित हुई है सभी त्रिभुजीय प्रमेय निर्मेयों का आधार केवल यह प्रारंभिक विश्वास है। और यह विश्वास इतना सही उतरता है कि हम पृथ्वी में बैठे-बैठे सूर्य चंद्रमा, बुध, हर्शल, प्लूटो, एंटलारि आदि विस्तृत तारामंडल की दूरी नाप लेते हैं। एक सरल रेखा पर दूसरी सरल रेखा खड़ी होकर दो समकोण बनाती है, इस विश्वास के द्वारा ही अंतरिक्षयान चंद्रमा तक, मंगल तक, शुक्र तक चला जाता है यह वह विश्वास है, जो बहुत हलका बिलकुल छोटा और निर्जीव सा है। जबकि ईश्वर एक समर्थ विश्वास है। कीट पतंगों के जीवन से लेकर वृक्ष वनस्पतियों के अस्तित्व तक का भेदन इसी शक्ति के द्वारा किया और आध्यात्मिक रहस्यों का पता लगाया जा सकता है।

सारी खगोल विद्या की जानकारी वृत्त सिद्धाँतों पर आधारित है। एक विश्वास या स्वयं सिद्ध प्रतिज्ञा है कि तुल्य चापों पर आधारित कोण भी तुल्य होते हैं। एक गोलाकार वृत्त में कहीं भी ‘अब’ और ‘सद’ दो समान दूरी के चाप लीजिए । अब चाप ‘अ ब’ को उसी वृत्त के किसी भी बिंदु ‘य’ से मिलाइए चाप ‘स द’ को भी उसी प्रकार किसी बिंदु ‘र’ मिलाइए। इस तरह बिंदु ‘य’ और ‘र’ पर बने कोण बराबर होते हैँ यह एक स्वयं सिद्ध साध्य है, जिस पर सारी ग्रह रेखागणित टिकी हुई हैं, यदि कोई अविश्वास करे कि हम यह बात नहीं मानेंगे-तो उसके लिए शेष सारे अभ्यास गलत हो जाते हैं पर यह स्वयं सिद्ध साध्य फलित होती है-तो उसके आधार पर सारे विश्व ब्रह्मांड में भ्रमण कर आना उसी तरह संभव हो जाता है जिस प्रकार हम अपने किसी जाने-माने शहर तक घूम आते हैं।

मान्यता पर चलने वाली गणित जब ऐसे ठोस और सत्य फलितार्थ प्रस्तुत कर सकती है, तो हम ईश्वर पर विश्वास करके क्या विश्व के रहस्यों का मूल्याँकन नहीं कर सकते ? ऐसी एक विचारधारा ऋषि के अंतरंग में उठी थी और उन्होंने प्रश्न करके सृष्टि के सब तत्वों को खोज डाला था। वेदों में सन्निहित ज्ञान वही विज्ञान है, जिसको पाने के लिए आज पाश्चात्य वैज्ञानिक भारी असंतुलन, यंत्रीकरण, हिंसा और असामाजिकता पैदा कर रहे हैं। फिर भी वस्तुस्थिति की खोज नहीं कर पा रहे हैं। सिद्धाँत बनते हैं, अगले वाला वैज्ञानिक उस सिद्धाँत में या तो संशोधन कर देता या काट कर रख देता है। संशोधनकर्ता भी अपने आपको पूर्ण विश्वस्त नहीं मानता। उसे तब भी यह आशंका बनी रहती है कि ही उसी के रहते हुए उसका सिद्धाँत काट न दिया जाये। अनेक नोबुल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों के सिद्धाँतों के धुर्रे उड़ गए। तब यही मानना पड़ता है कि पाश्चात्य जगत जिस विज्ञान पर ऐंठा हुआ बैठा है, वह खेत खिलौना है। तथ्य उनमें कुछ भी नहीं है।

विशाल ब्रह्मांड के रहस्यों, पृथ्वी पर होने वाली पुनर्जन्म की घटनाओं अति मानसिक शक्ति, बौद्धिक क्षमता, आत्मशक्ति के करतबों, दूरदर्शन पूर्वानुभूतियों, भविष्य ज्ञान आदि के प्रति हमारे मस्तिष्क में रचनात्मक और उपयोगी दृष्टिकोण ईश्वर को मान लेने पर ही बनता है।

ईश्वर विश्वास एक उत्पादक शक्ति है जो सृष्टि के गहन अंतराल से ज्ञान के हीरे मोती खोज-खोज कर हमारे ज्ञान-बुद्धि और वर्चस् को महान बना देता है। अब तो वैज्ञानिक फलितार्थों से भी यह निश्चय हो चुका है कि ईश्वर एक प्रकार की पूर्ण शक्ति है और उस पूर्णता का कितना भी अंश निकाल लेने पर पूर्णता ही शेष रहती हैं । बात कुछ अटपटी लगती है पर सच । एक चुम्बक पत्थर को कागज में रखकर उसकी शक्ति का चार्ट तैयार कर लें। फिर उस चुम्बक को लोहे से स्पर्श कराएँ तो लोहा भी चुम्बक बन जाता है। चुम्बक को हटाकर फिर उसका चार्ट तैयार करें तो पता चलेगा कि उसके आवेश का काफी अंश लोहे में खिंच जाने के बाद भी उसकी मूल शक्ति में कोई अंतर नहीं पड़ा। उसी प्रकार केवल विश्वास के आधार पर अपनी चेतना के साथ संबंध जोड़कर हम उन शक्तियों को विकसित और व्यवस्थित कर सकते हैं जिन्हें ईश्वरीय वैभव के रूप में जाना जाता है और जिनसे हमारे जीवन का वास्तविक अर्थ फलित होता है। न केवल इतना ही बल्कि मान्यता और विश्वास की वैज्ञानिकता को समझकर ईश्वर को मान लेने से समाज और देश भी अनुशासित, व्यवस्थित और मैत्री-पूर्वक रह सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118