मृत्यु का हँसकर स्वागत कीजिए

January 1994

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मृत्यु एक सुनिश्चित तथ्य है। यह एक ऐसी सचाई है जो सबके सामने एक न एक दिन आकर ही रहती है। इस संसार का कुछ नियम ही ऐसा है कि जो आया उसे जाना पड़ा। जो जिया उसे मरना पड़ा। इस तथ्य को हर कोई जानता है, पर जानते हुए भी मानने को तैयार नहीं होता । हर किसी को मृत्यु भय आरंभ से ही सताता रहता है और उससे बचे रहने का हर संभव प्रयत्न भी किया जाता रहता है। मरने के समय आदमी की दशा बड़ी दयनीय हो जाती है और वह किसी भी मूल्य पर उस घड़ी को टालने के लिए तैयार होता है, पर विधि के विधान के आगे किसी का वश नहीं चलता। यदि अपनी मृत्यु अवश्यंभावी है और वह बिना अवधि और सूचना के कभी भी हो सकती है- इस तथ्य को हृदयंगम किया जा सके तो फिर जीवन की अविच्छिन्न सहचरी मृत्यु से भयभीत होने का कोई कारण नहीं रह जाता।

तत्वदर्शी मनीषियों के अनुसार मृत्यु का अर्थ है- कुरूपता का सौंदर्य में परिवर्तन। अनुपयोगिता के स्थान पर उपयोगिता का आरोपण। इससे न तो डरने का कोई कारण है न रुदन का। वह तो हर्षोल्लास का उत्सव है जिसमें अनेक तरह की जीवनोपयोगी सत्प्रेरणाएं उभर कर आती हैं। जिस प्रकार दिन और रात काम करने और आराम करने के लिए होते हैं, ठीक उसी तरह जीवन-मृत्यु का क्रम भी अनवरत रूप से चलता रहता है। गीता के दूसरे अध्याय के 22 वें श्लोक- “वासाँसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वति नरोडपराणि ।....” में शरीर को वस्त्र के सदृश समझा गया है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति फटे-पुराने वस्त्र को परित्याग करके नये वस्त्रों को ग्रहण कर लेता है, उसी तरह आत्मा भी निष्क्रिय एवं निस्तेज शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण कर लेती है। यह शरीर बना ही भस्मीभूत होने के लिए “भस्मात् शरीरम्” (यजुर्वेद 40/17) फिर मृत्यु से भय कैसा ? वस्तुतः यह एक ऐसा परीक्षा गृह है जिसमें जीवन की वास्तविकता का पता चलता है कि उसका प्रयोजन क्या था और कैसा प्रयोग किया गया ? शरीर आत्मा का परिधान-वाहन मात्र है। उसकी सुख-सुविधा के लिए आत्मा को पाप और पतन के-शोक और संताप के गर्त में नहीं धकेला जाना चाहिए जिसके कारण जन्म-जन्माँतरों तक नारकीय यातनायें भोगनी पड़ें और अनंतकाल तक पश्चाताप करना पड़े।

पुराने कपड़े उतार कर नये कपड़े पहनने में किसी को कोई कष्ट होता है क्या ? लगभग इसी तरह का प्रश्न मृत्यु के संबंध में पूछा जाय तो उसका उत्तर गंभीरता से ही दिया जाता है। कारण कि लोगों की मान्यता है कि मरण एक दुखदायी, कष्टप्रद और दारुण वेदना देने वाली प्रक्रिया है। भय की गणना मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियों में की जाती हैं, किंतु वह भय कायरता का नहीं-सतर्कता का लक्षण है। यों तो मरना कोई भी नहीं चाहता, वरन् मृत्यु से बचने का हर समय उपाय किया करता है। ‘हाय मैं मर जाऊंगा’ की यह भावना ही भय का कारण है जो कायरता की कोटि में आती है और व्यक्ति के अंतराल में छिपी साहसिकतापूर्ण सत्प्रेरणाओं को उभरने नहीं देती है।

जो जन्म लेता है उसका मरण भी सुनिश्चित है अर्थात् जीवन-मृत्यु का चक्र संसार के हर प्राणी के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। लेकिन मानवी मनोदशा कुछ ऐसे स्तर की बन चुकी है कि वह मृत्यु की अपेक्षा जीवन को ही अच्छा समझती और उसे अक्षुण्ण बनाये रहने का ताना-बाना बुनने में लगी रहती है। भले ही परिस्थितियाँ कितनी ही विपन्न और विषम क्यों न बनी रहें, पर जीवन को चयन करने की प्रवृत्ति का समापन नहीं हो पाता, क्योंकि भविष्य में उनके अनुकूल होने का सपना सँजो कर रखा जाता है। जब कि मृत्यु का चिंतन करते समय भावी संभावनाओं की आशा करना शेखचिल्ली की तरह ही निरर्थक सिद्ध होता है। ‘मैं जीवित बना रहूँ’ वाली जीवेषणा ही हर प्राणी के अस्तित्व को यथावत् बनाये हुए है। मृत्यु से भयभीत होने को यही एक मात्र कारण है। मरघट का गाँव से बाहर होना यही सिद्ध करता है कि व्यक्ति को मृत्यु पसंद नहीं। जबकि यह एक ध्रुव सत्य है जिसे टाला नहीं जा सकता। फिर भी लोग भयभीत बने रहें और सतत् जीवित रहने की आशा सँजोये रखें, तो इससे बड़ा भ्रम और क्या हो सकता है? जीवन के भ्रम-भटकावों की उत्पत्ति मृत्यु-विस्मरण के फलस्वरूप ही होती है। दिन-प्रतिदिन मानव समाज में बढ़ रहे अपराधों-पापाचारों की संख्या को देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि मृत्यु और कर्मफल मिलने के सुनिश्चित तथ्य को मनुष्य भुला बैठा है। सर्वत्र अनास्था, अंधविश्वास और अंध मान्यताओं का ही बोलबाला है।

अज्ञान के कारण ही मृत्यु का भय मनुष्य को सतत् संत्रस्त करता रहता है। यदि इसके कारणों की ढूँढ़-खोज की जा सके तो वास्तविकता को सहज ही समझा जा सकता है। वस्तुतः मृत्यु से बढ़कर मूल्यवान कोई दूसरी यात्रा हो नहीं सकती। उसमें व्यक्ति को कायाकल्प हो जाता है, नये सिरे से नये जीवन की शुरुआत होती है। पर उन्हें क्या कहा जाय जो छोटे बच्चों के समान बालू के मकान बनाने में ही निमग्न रहते हैं जिसे हवा का मामूली सा झोंका भी नष्ट कर डालता है। बचकानेपन को जीवन में समाविष्ट करने पर उसके दुष्परिणाम भी वैसे ही भुगतने पड़ते हैं। मृत्यु का तनिक सा आभास बाल मनोवृत्ति को डराने में कोई कसर नहीं उठा रखता है। तब मनुष्य को अपनी नासमझी पर पश्चाताप होता है, जब सुरदुर्लभ इस मानवी काया को कौड़ी मोल गँवा दिया जाता है और पाप-संताप का गट्ठर सिरपर लादकर यहाँ से कूच करना पड़ता है। तब निराशा और खीज के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगता।

बृहदारण्यकोपनिषद्-4/5/6 के सूत्र आत्मनस्तु कामाय सर्वप्रियं भवति” का सार-संक्षेप यही है कि संसार के समस्त प्राणी और पदार्थ मात्र अपनी ही कामना के लिए मनुष्य को प्रिय लगते हैं। यदि मनुष्य उनके प्रति निरासक्त और तटस्थ हो जाय तो मृत्यु जैसा भय कदापि नहीं दिखेगा। कष्ट तो स्वार्थों की आपूर्ति न होने का ही होता है। संसार में रोजाना सहस्रों व्यक्ति जन्म लेते और मरते हैं, पर हर किसी के लिए न तो कोई हर्षोल्लास का वातावरण बनता है न मातम ध्वनि ही बजती है। यह उनके साथ किसी प्रकार का स्वार्थ और आसक्ति के न जुड़े रहने का ही प्रतिफल है।

किसी चीज की वास्तविकता को समझ लेने पर ही उसके गुणों से लाभान्वित हुआ और अवगुणों से बचा जा सकता है। अग्नि के गुण-धर्म विधि-व्यवस्था क्रम को समझ लेने के उपराँत ही भोजन पकाया और शरीर को जलने से बचाया जा सकता है। मृत्यु के संबंध में भी कुछ ऐसा ही सोचा समझा गया है । उसके स्वरूप को ठीक तरह से न समझने के कारण ही मनुष्य भयग्रस्त होता और जीवन के वास्तविक आनंद से वंचित रह जाता है। यदि इस तथ्य को समझा जा सके कि शरीर के मिटने के साथ ही आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता, तो मरण-भय का कोई कारण शेष नहीं रह जाता । मृत्यु एक परिवर्तनशील अवस्था है जिसके साथ ही जीवन की इति श्री नहीं समझ लेनी चाहिए। आत्मा अनादि, अनंत और अविनाशी है। वह ईश्वर जितनी पुरातन और कभी नष्ट न होने वाली सनातन है। उसकी मृत्यु संभव नहीं। शरीर का परिवर्तन स्वाभाविक ही नहीं, आवश्यक भी है। हर पदार्थ का एक क्रम है- जन्मना, बढ़ना और नष्ट होना। नष्ट होना एक स्वरूप का दूसरे स्वरूप में बदलना भर है। यदि यह परिवर्तन रुक जाय तो मरण तो बंद हो सकता है, पर तब जन्म की भी कोई संभावना नहीं रहेगी। यदि जन्म से प्रेरणास्पद बनाना है तो मरण का वियोग भी सहना होगा।

मृत्यु पर विजय पाने का एक तरीका यह है कि इस संसार को एक रंग-मंच माना जाय और अपने हिस्से के ‘रोल’ को ईमानदारी के साथ बखूबी निभाया जाय। दूसरे इसे रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म अथवा प्रतीक्षालय समझा जाय-स्थायी निवास व्यवस्था नहीं। ऐसे स्थान पर बैठा व्यक्ति बहिर्मुखी क्रिया-कलापों की ओर नहीं निहारता कि कोई क्या कह रहा है। यदि कोई गंदगी उछाल भी देता है तो भी उसे क्षमा कर दिया जाता है। किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष की भावनायें नहीं पनपतीं, क्योंकि यहाँ पर हर कोई व्यक्ति स्थायी रूप से नहीं ठहरता। एक के बाद एक के आने-जाने का क्रम सतत् बना रहता है। मरण का स्मरण करने का अर्थ ही जीवन को एक प्रतीक्षालय के रूप में समझना है जहाँ पर स्थायी पड़ाव डालने की योजना महत्वहीन ही मानी जायगी। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें मृत्यु को देखने वाला मृत्यु से पृथक् हो जाता है। ऐसी मनोदशा बना लेने पर दृश्य और दृष्ट का अलग होना सहज-स्वाभाविक है। मृत्यु और शरीर का संबंध अन्योन्याश्रित है। मृत्यु के प्रति सजगता एवं जागरुकता बरतने पर शरीर के प्रति जाग्रति स्वतः ही आ जाती है।

जन्म के साथ मृत्यु का जुड़ा रहना निताँत आवश्यक है। आधा व्यक्ति तो उसी दिन मर जाता है जब पैदा होता है और शेष आधा किसी भी क्षण दम तोड़ सकता है। जो व्यक्ति इस तथ्य को समझता है वह सजगता और जागरुकता के साथ मौत को एक सहचरी मानकर चलता है। मृत्यु उसे डराती नहीं, वरन् सद्प्रेरणाएँ उभारती हैं। मृत्यु का स्मरण बने रहने पर मनुष्य के जीवन में उथल-पुथल एवं क्राँतिकारी परिवर्तन आरंभ हो जाते हैं। उसके जीवन में सरलता समता और शुचिता की त्रिवेणी फूट पड़ती है जिसके संगम समागम से स्नेह, परोपकार, सहयोग-सहकार की आकृतियां स्वतः ही सुविकसित होती चली जाती हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता मिटकर परमार्थ परायणता का स्वरूप ग्रहण कर लेती है। यदि जीवन को एक खिलाड़ी की तरह जिया जाय तो मृत्यु के कटु-अनुभवों से बच निकलना सहज संभव है।

वस्तुतः मृत्यु एक ऐसी शुभ मार्गदर्शिका है जो ईश्वरीय विधान की वास्तविकता को समझने का पथ प्रशस्त करनी और जीवन को सही दिशाधारा देने में सक्षम होती है। इस संदर्भ में मूर्धन्य मनीषी वाल्टर स्काट का कहना है-मृत्यु निविड़ अंधकार भरी निशा में आखिरी नींद नहीं, वरन् ब्राह्ममुहूर्त का प्रथम जागरण है जिसके बाद हम उस ओर बढ़ सकते हैं जिस संबंध में कि अभी सोचना ही संभव है। दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने लिखा है-”हम जिस जिंदगी को जी रहे हैं, उस तक का मर्म नहीं जान पाये तो उस मृत्यु का जो अभी कई कोस आगे है-रहस्य कैसे जान पायेंगे ? प्रख्यात शोधकर्मी विलियम हैटर ने अपने शोधकार्यों को पूरा कर लेने पर मृत्यु समय की अंतिम साँस लेते हुए कहा-यदि इस समय भी मुझ में कलम उठा कर लिखने की शक्ति होती तो लिखता कि मरना कितना सरल और शाँतिपूर्ण है।”

कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर के शब्दों में-’जन्म जीवन का आरंभ नहीं है और न मृत्यु जीवन का अंत। जीवन और मृत्यु मात्र जीवनक्रम का एक छोटा सा अध्ययन मात्र है।’ इसलिए दोनों को घनिष्ठ सहचर मानकर चलना चाहिए। जीवन इस तरह जिया जाय जिसे शानदार और सराहनीय कहा जा सके। जब मृत्यु आये तब शाँति और मुसकराहट के साथ उसका ऐसा स्वागत करें जैसा विचारशील, धैर्यवान और बहादुर लोग करते हैं।


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